उत्तराखंड की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध है. 150 से ज्यादा प्रसिद्ध मंदिरों के प्रदेश उत्तराखंड में हर मौसम और हर फसल को लेकर पर्व त्यौहार मनाए जाते हैं.

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उत्तराखंड में हरियाली और रंग बिरंगे फूलों की विदाई के पर्व ‘सेलकु’ की धूम, प्रकृति के ‘उपहार’ का जताते हैं ‘उपकार’

उत्तराखंड के उत्तरकाशी में प्रकृति को समर्पित सेलकु नाम का एक अनोखा पर्व है. इस पर्व की इन दिनों उत्तराखंड में धूम है. आप भी जानिए सेलकु पर्व क्या है?

Oउत्तरकाशी में सेलकु पर्व की धूम

देहरादून (उत्तराखंड): प्राकृतिक धरोहरों से समृद्ध हिमालयी राज्य उत्तराखंड में कई ऐसे तीज त्यौहार हैं जो सीधे तौर पर प्रकृति से जुड़े हुए हैं. यहां के लोगों ने अपने पर्यावरण और प्रकृति को अपने देवी देवताओं की तरह पूजा है तो अपने बेटे, बेटियों की तरह स्नेह से संजो कर रखा है. ऐसा ही एक त्यौहार है उच्च हिमालयी क्षेत्र में मौजूद उत्तरकाशी के दयारा बुग्याल क्षेत्र में मनाया जाने वाला ‘सेलकु पर्व’.

उत्तरकाशी में सेलकु पर्व की धूम है

फूलों को विदाई देने का पर्व सेलकु: हिमालयी राज्य उत्तराखंड में ऊंचाई वाले इलाकों में अब सर्दियां दस्तक देने जा रही हैं. ऊंचे हिमालयी बुग्यालों में मौजूद रंग बिरंगे अलग अलग प्रजातियों के फूल अब अगले 10- 15 दिन के भीतर शुष्क होकर सूखना शुरू हो जाएंगे. उत्तरकाशी जिले के टकनौर और नाल्ड-कठूड़ में इस मौके को हरियाली और सुंदर फूलों के सूख जाने होने और लंबी सूखी सर्दियों के स्वागत में एक बेहद अनूठा पर्व मनाया जाता है. स्थानीय भाषा में इस पर्व को सेलकु कहा जाता है.

सेलकु पर्व में सूखने से पहले फूलों को दी जाती है विदाई

ऐसे मनाते हैं सेलकु पर्व: सेलकु पर्व के मौके पर ऊंचे बुग्याल से रात भर में चुनकर लाए गए फूलों को एक बड़े चादरनुमा स्वच्छ पूजा वाले कपड़े के ऊपर बिछाया जाता. अगले दिन सुबह होने पर सभी ग्रामीण इस चादर के चारों तरफ पारंपरिक लोक नृत्य कर प्रकृति का अभिनंदन करते हैं. इस मौके पर जाती हरियाली और एक लंबी सुर्ख रात जैसी सर्दी का अभिनंदन किया जाता है. उत्तरकाशी में इसी सप्ताह से प्रकृति को समर्पित इस पर्व का जश्न शुरू होने जा रहा है.

सेलकु पर्व में पारंपरिक नृत्य किया जाता है

उत्तरकाशी के इन गांवों में मनाया जाता है सेलकु पर्व: सेलकु नाम से लोकप्रिय यह पर्व उत्तरकाशी के टकनौर और नाल्ड- कठूड़ के एक दर्जन से ज्यादा गांवों में मनाया जाता है. इस क्षेत्र में आबादी के मद्देनजर सबसे पुराने इन गांवों में पिछली कई सदियों से पारंपरिक तौर पर हरियाली को इस तरह अलविदा कहने की परम्परा रही है. रैथल में शीतकाल का स्वागत और हरियाली को अलविदा कहने का यह पर्व धूमधाम से मनाया गया. इस पर्व में गंगोत्री विधायक सुरेश चौहान मौजूद रहे.
100 साल से पुराना है बिस्सू गनियात मेले का इतिहास, जौनसारी संस्कृति को है सहेजासेलकु का अर्थ कौन सोएगा? है.

क्या है सेलकु? गर्मियों की दस्तक के साथ जब कुछ देरी से ऊंचे बुग्यालों में जमी बर्फ धीरे धीरे पिघलने लगती है तो ऊंचे बुग्यालों में खिलने वाला उत्तराखंड का राज्य पुष्प ब्रह्मकमल तो वहीं इसके अलावा मासी पुष्प सहित कई दुर्लभ प्रजातियों के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं. थोड़ी सी ही गर्मी के बाद मानसून की दस्तक के साथ बुग्यालों में इन फूलों के खिलने की रफ्तार इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि अलग अलग रंगों के इन फूलों की चादर से पूरा बुग्याल अच्छादित हो जाते हैं.

सेलकु में आराध्य देव की पूजा की जाती है

हरियाली को विदा करने का पर्व है सेलकु: सावन का महीना बीतने के साथ ही ऊंचे बुग्यालों में एक बार फिर सर्दियां दस्तक देने लगती हैं. बेहद कम समय के साथ ही यह फूल सूखना शुरू हो जाते हैं. यह पूरी प्रक्रिया बेहद तेजी से होती है. फूलों का खिलना और फिर सूख जाना यह पूरी प्रक्रिया 1 से 1.5 माह के इतने कम समय में हो जाती है कि मानो ईश्वर का कोई चमत्कार एक क्षण के लिए हुआ हो.

कोई नहीं सोता पूरी रात: इस पूरी प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यहां रहने वाले पर्वतीय लोग इन फूलों के सूखने से पहले इन्हें तोड़कर गांव के आराध्य देव को अर्पित करते हैं. इस पर्व को सेलकु कहा जाता है. ‘सेलकु’ शब्द का अर्थ ‘सोएगा कौन’ से लगाया जाता है.

सेलकु पर गांव से बाहर रहने वाले लोग भी घर आते हैं

पूरी रात भर होने वाले इस उत्सव में दूर दराज के ग्रामीणों के साथ ही गांव से अन्य गांवों में ब्याही बेटियां भी मायके पहुंचती हैं. पूरी रात भर के इस जश्न का समापन अगले दिन होता है, जब गांव के ईष्ट आराध्य देवता अवतरित होकर धारदार कुल्हाड़ियों और फरसों के ऊपर चलते हुए ग्रामीणों की समस्या का निदान बताते हैं.


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