
मगर सरकार ने उस मांग को अस्वीकार करते हुए राजीव कुमार की सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले ही बैठक बुला ली और नए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति कर दी गई। अब इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला आएगा, उसका बहुत मतलब नहीं रह जाएगा। नए मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पदोन्नत किया गया है। मगर विपक्ष इसे उचित नहीं मान रहा।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
दरअसल, पिछले कुछ समय से जिस तरह निर्वाचन आयोग के कामकाज और उसकी कर्तव्यनिष्ठा को लेकर सवाल उठते रहे हैं, उसमें नए निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सरकार की हड़बड़ी संदेह की गुंजाइश पैदा करती है। संवैधानिक पदों पर नियुक्ति में पारदर्शिता की अपेक्षा स्वाभाविक है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में निष्पक्षता की मांग इसलिए उठती रही है कि इसी संस्था से लोकतंत्र की रक्षा का भरोसा बनता है। पिछले कुछ वर्षों में निर्वाचन आयुक्तों के सरकार की मंशा के अनुरूप काम करने, मतदाता सूची और मतदान मशीनों में गड़बड़ी कराने, मतदान संबंधी ब्योरों में तालमेल न होने आदि के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। इसीलिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में निष्पक्ष व्यवस्था की गुहार लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया था।
हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब भारत निर्वाचन आयोग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं। पहले भी सरकार पर अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद की जिम्मेदारी सौंपने का आरोप लगा है। प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति इस पद पर नियुक्ति करते थे। मगर जब निर्वाचन आयोग के कामकाज में पारदर्शिता धुंधली होने लगी, तो इस नियुक्ति प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी गई थी। तब सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और प्रधान न्यायाधीश की तीन सदस्यों वाली समिति इस पद पर नियुक्ति करेगी।
मगर सरकार ने उस व्यवस्था को पलट कर कानून बना दिया कि तीन सदस्यों में एक सदस्य प्रधान न्यायाधीश की जगह एक केंद्रीय मंत्री होगा। इसी पर स्थगन की याचिका दायर की गई है, जिस पर सुनवाई होनी है। अगर सरकार सचमुच इस पद की निष्पक्षता को लेकर गंभीर होती, इस संस्था की स्वायत्तता को मूल्यवान समझती, तो शायद इतने विवादों के बावजूद इस पद पर नियुक्ति की ऐसी जल्दबाजी न दिखाती।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संवैधानिक संकल्प है। यह तभी संभव हो सकता है, जब निर्वाचन आयुक्त स्वायत्त और निष्पक्ष ढंग से काम कर सके। अगर उसका झुकाव किसी दल विशेष या सत्तपक्ष की तरफ होगा, तो इसका असर चुनाव नतीजों पर नजर आएगा। स्वायत्तता के साथ-साथ यह मांग भी लगातार उठती रही है कि निर्वाचन आयोग को एक नखदंत विहीन संस्था के बजाय अधिकार संपन्न संस्था बनाया जाना चाहिए, जो आचार संहिता के उल्लंघन आदि के मामले में कठोर कार्रवाई कर सके।
मगर ऐसा कोई चुनाव नहीं गुजरता, जब निर्वाचन आयोग पर गंभीर आरोप नहीं लगते। सबसे अधिक तो मतदान मशीनों को लेकर सवाल उठते हैं। मगर इस शंका के निवारण के लिए कोई भरोसेमंद तरीका नहीं निकाला गया। ऐसे में मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में परस्पर सहमति की अपेक्षा स्वाभाविक है।
