संजय यात्राएं करते हैं और अनुभव के आधार पर किताबें लिखते हैं. वे उत्तराखंड, हिमाचल और बिहार पर्यटन विभाग के साथ भी काम करते हैं. संजय कहते हैं कि साल में मेरे 10 महीने ट्रैवलिंग में बीतते हैं. मैंने हिमालय की यात्राएं की हैं. वहां के प्रोजेक्ट में छह साल लगे. मेरा एक प्रोजेक्ट तीन से चार साल का होता है. ट्रैवलर की यात्रा बहुत अलग है.


संजय का कहना है कि देश में एक भी राइटिंग स्कूल नहीं है, ट्रैवलिंग स्कूल नहीं है. लेखन और ट्रैवल के जरिए भी खूब कमाया जा सकता है. बहुत सारे ट्रैवल मीट अप होते हैं. इसमें लोग आते हैं, वे ट्रैवलर्स से मिलने आते हैं और पैसे भी देते हैं.
संजय ने बताया कि मुझे पिछले छह साल में तीन बार हिमालय से एयरलिफ्ट किया जा चुका है. मैं रहस्यमयी जगहों पर चला जाता हूं. जब ठंड आती है, तब ट्रैकर्स की दुनिया खुलती है. हिमालय के तपोवन में बहुत से संन्यासी रहते हैं. उस स्थान पर पांच से सात फीट तक बर्फ जमी होती है. हिमालय पर केदारकांठा नाम की जगह है. उस स्थान पर बेहद ठंड होती है. वहां जानवरों की आंखों पुतलियां गलकर खत्म हो जाती हैं. इसकी वजह से सरकार ने वहां जानवरों को चश्मे पहनाने की व्यवस्था की है. वहां जानवर चश्मे पहने दिख जाएंगे.
संजय ने कहा कि हिमालय में पार्वती घाटी है, जो बेहद रहस्यमयी है. वहां से 45 ट्रैवलर गायब हुए हैं. मैं वहां पर गया था. मेरे साथ एक और ट्रैवलर थी. हम उस जगह पर रास्ता भटक गए. वहां बर्फ नहीं थी. जंगल थे, गहरी खाई थी. वहां चार घंटे तक भटकने के बाद एक इंसान मिला, उसने मुझे ट्रैक के मुख्य रास्ते तक पहुंचाया. फिर कैंप तक पहुंचा. कैंप में मौजूद साथी बोले कि इतना लेट कैसे हो गया. मैंने कहा कि एक बुजुर्ग रास्ता न दिखाता तो यहां तक पहुंचता ही नहीं. मेरी बात सुनकर मेरी साथी ट्रैवलर ने कहा कि वो बुजुर्ग नहीं था, जवान लड़का था. वो एक व्यक्ति उसे नौजवान दिखा और मुझे बुजुर्ग. इस पर हमारी काफी बहस हुई.
इस सत्र में लेखिका अनुलता राज नायर, शिखा वार्ष्णेय, दिव्या विजय ने भी अपने अनुभव साझा किए और रचनाएं पढ़ीं. लेखिका अनुलता राज नायर ने कहा कि लोग अपना पढ़ाना चाहते हैं. मैंने लिखने के दौरान पढ़ना शुरू किया. ब्लॉग भी लिखे. नीलेश मिश्रा के साथ जुड़कर ये सिलसिला आगे बढ़ा. आज मैं लिखना सिखा भी रही हूं. लोगों की शिकायत होती है कि हिंदी में पैसा नहीं है, लेकिन हमने काफी पैसे लेकर हिंदी की मास्टरक्लास शुरू की. कॉर्पोरेट में ये क्लास होती थी. वहां कई स्टूडेंट पूछते थे कि क्या आप हिंदी में सिखाएंगी तो वहां मैं हिंदी में सिखाती थी. युवाओं के अंदर लिखने की चाहत है, लेकिन उन्हें प्लेटफॉर्म मिलना चाहिए.
शिखा वार्ष्णेय ने कहा कि जब प्लेटफॉर्म मिलता है तो लिखने वाले के लिए काफी सहूलियत होती है. मैंने अपनी रचनाएं इस डर से कभी नहीं भेजीं कि रचनाएं वापस आ जाएंगी. मैंने जो भी लिखा, वो ब्लॉग पर लिखा. उसी की बदौलत मैंने लेखन को आगे बढ़ाया. मेरे लिखे ब्लॉग कहां-कहां पहुंच जाते थे, मुझे खुद भी हैरानी होती थी. मेरी लिखी किताबें, जिन्होंने हमेशा अंग्रेजी में पढ़ा, वो भी पढ़ते हैं.
दिव्या विजय ने कहा कि मेरे लेखन की शुरुआत डायरी में दर्ज शिकायतों से हुई थी. कब डांट पड़ी, कब पिटाई हुई, कब खेलने से मना किया गया. धरती के गर्भ में हलचल हमेशा रहती है, लेकिन पता तब चलता है, जब कोई ज्वालामुखी फूटता है. बचपन की मेरी आज भी कुछ डायरी हैं. जब मैंने विधिवत लिखना शुरू किया तो कहानी से ये सब हुआ. घर में किताबों की कमी नहीं रही, मैं बहुत सारी किताबें पढ़ती थी.

