उत्तराखंड सरकार की शिक्षा नीति ऐसी महान है कि उसे देख खुद चाणक्य भी माथा पीट लें। अब आप ही देखिए—राज्य में अतिथि शिक्षकों की हालत ऐसी हो गई है जैसे चाय के कप में बिस्कुट डुबोया और फिर गिरा दिया—ना पूरा खा सके, ना पूरा बचा सके।


शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
शुक्रवार को रुद्रप्रयाग के जखोली ब्लॉक के एक स्कूल में ऐसा मार्मिक दृश्य देखने को मिला जिसे देखकर दिल पसीज जाए, अगर वो दिल सरकार के पास कहीं हो। राइका कैलाश बांगर स्कूल में जैसे ही एक स्थायी शिक्षक ने मण्डल ट्रांसफर के तहत कार्यभार संभाला, वैसे ही गेस्ट टीचर कमल पंवार को अलविदा कहना पड़ा। इतना ही नहीं, उनका बेटा वैभव पंवार जो उसी स्कूल में कक्षा 7 का छात्र था, वो भी पढ़ाई छोड़कर बस्ता लटकाए पापा के साथ चल दिया—‘पापा स्कूल नहीं है तो मेरा स्कूल भी नहीं!’
अब ये शिक्षा विभाग की योजना है या कोई बाप-बेटे की संयुक्त छुट्टी यात्रा योजना, ये तो विभाग ही जाने। वैसे इसमें सरकार की रचनात्मक सोच साफ नजर आती है—”जब शिक्षक जाएगा तो बच्चा भी जाएगा, ताकि स्कूल का भार कम हो!” वाह सरकार, वाह!
कमल पंवार, जो मूल रूप से चमोली के बूरा गांव से हैं, बीते 10 वर्षों से सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे थे। लेकिन अब जब “सरकारी शिक्षा सुधार” की आंधी आई, तो वह भी उड़ा दिए गए। सरकार ने न तो सेवा नियमावली दी, न कोई स्थायी समाधान। बस, जब जरूरत पड़ी तो बुला लिया, और जब नहीं रही तो छुट्टी दे दी। ये नीति है या कोई ‘वर्क फ्रॉम होम का कबाड़ संस्करण’?
सरकार बार-बार कहती है, “हम शिक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं”। लेकिन प्राथमिकता का ये मतलब है क्या कि बच्चे और शिक्षक दोनों एक साथ स्कूल से बाहर हो जाएं?
कमल पंवार के दूसरे बेटे कुणाल पंवार, जो कक्षा 10 के बोर्ड परीक्षार्थी हैं, अब सोच में हैं कि अगला पेपर देने जाएं या पापा के साथ घर वापसी करें। उधर शिक्षा विभाग की चुप्पी ऐसी है जैसे सब कुछ सामान्य हो।
सरकार के पास अतिथि शिक्षकों के लिए नीति नहीं, बस बयान हैं।
“हम विचार कर रहे हैं…”
“हम सकारात्मक हैं…”
“हम अतिथि शिक्षकों के योगदान की सराहना करते हैं…”
लेकिन इस सराहना का प्रमाणपत्र न तो कमल पंवार की नौकरी दिला पाया और न ही उनके बेटे की पढ़ाई बचा सका।
अब सवाल है—कब तक सरकार अतिथि शिक्षकों को ‘काम चलाऊ मरहम’ की तरह इस्तेमाल करती रहेगी? कब तक शिक्षा का यह मज़ाक चलता रहेगा? और क्या शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए कभी स्थायी, ठोस नीति बनेगी या सब कुछ ट्रांसफर के हवाले रहेगा?
शिक्षा विभाग का नया नारा शायद कुछ यूं हो:
“गेस्ट टीचर आए, गेस्ट टीचर जाएं,
बच्चों की पढ़ाई खुद ही सम्हाल जाए!”

