जहां आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के अनुसार प्रसाद के लड्डुओं में प्रयुक्त घी में तीन जानवरों की चर्बी पाई गई। शक पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की सरकार पर है, जिसने देवस्थानम बोर्ड का प्रमुख अपने ईसाई चाचा को नियुक्त किया था। यह घटना न केवल श्रद्धालुओं की आस्था को ठेस पहुंचाती है, बल्कि सनातन पर सुनियोजित प्रहार की बड़ी कड़ी है। इसी बीच कांग्रेस, डीएमके जैसे दलों के नेताओं द्वारा सनातन धर्म को ‘कुष्ठ रोग’, ‘एचआईवी’, ‘मलेरिया’ कहकर अपमानित करना गहरी साजिश को उजागर करता है। उत्तराखंड जैसे देवभूमि प्रदेश के लिए यह चेतावनी है कि सनातन संस्कृति पर ऐसे हमले केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं। यहां भी मंदिरों, परंपराओं और संस्कृति पर अघोषित हमले होते रहे हैं। उत्तराखंड को अपनी धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए सतर्क रहना होगा, ताकि कोई भी शक्ति आस्था के स्तंभों को डगमगाने का दुस्साहस न कर सके। सनातन केवल मजहब नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है, जिसकी रक्षा हम सबका कर्तव्य है।

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उत्तराखंड अपनी धरोहर,तिरुपति मंदिर प्रकरण और सनातन पर साजिशों के निहितार्थ

भारत में सनातन संस्कृति केवल एक आस्था नहीं, बल्कि जीवनपद्धति और सभ्यता का वह आधार है, जो इस उपमहाद्वीप को हजारों वर्षों से जोड़ता चला आ रहा है। दुर्भाग्यवश, आज यह संस्कृति एक ओर राजनीतिक कुटिलताओं और दूसरी ओर मजहबी कट्टरताओं के बीच घिरती प्रतीत हो रही है।
शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /पार्थसारथि थपलियाल का आलेख इस संकट को दो पहलुओं में उजागर करता है—पहला, राजनीतिक नेताओं और उनके सहयोगियों द्वारा बार-बार सनातन धर्म को बीमारी, सामाजिक कलंक और समाप्त करने योग्य व्यवस्था बताकर उसे बदनाम करना; और दूसरा, तिरुपति जैसे प्रतिष्ठित मंदिर में घी में कथित रूप से जानवरों की चर्बी मिलाने का गंभीर आरोप, जिससे करोड़ों श्रद्धालुओं की धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं।

यह केवल संयोग नहीं कि सनातन विरोधी वक्तव्य देने वालों की सूची में कांग्रेस और डीएमके जैसे दलों के बड़े नेता शामिल हैं। तमिलनाडु के मंत्री दयानिधि स्टालिन का बयान कि “सनातन धर्म डेंगू और मलेरिया है”, या ए. राजा का कहना कि “सनातन धर्म कुष्ठ और एचआईवी जैसी बीमारी है,”—ये केवल शब्द नहीं, बल्कि एक सुनियोजित नैरेटिव का हिस्सा हैं, जिसका उद्देश्य सनातन की अवधारणात्मक छवि को मिटाना और समाज को धर्म के नाम पर विभाजित करना है।ताजा तिरुपति मंदिर का मामला और भी भयावह है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू द्वारा उठाया गया यह मुद्दा अगर सत्य सिद्ध होता है कि मंदिर के प्रसिद्ध ‘लड्डू प्रसाद’ में प्रयुक्त घी में तीन जानवरों की चर्बी मिली थी, तो यह केवल खाद्य अपवित्रता का मामला नहीं, बल्कि गहन सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वास पर आघात है। खासकर तब, जब यह आरोप पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के शासनकाल के घोटालों से जुड़ा नजर आता है, जिन्होंने तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट जैसे अत्यंत पवित्र धार्मिक संस्थान का नेतृत्व भी अपने रिश्तेदारों को सौंपा था।

यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि चर्च में किसी हिंदू को प्रबंधन की अनुमति नहीं, तो फिर मंदिरों में ईसाई या अन्य धर्मों के कट्टर कार्यकर्ताओं की नियुक्ति क्यों? यह दोहरा मापदंड ही भारत की धार्मिक राजनीति की सबसे बड़ी समस्या है।

साथ ही, घी के मामले में यह तथ्य भी चौंकाता है कि भारत विश्व का सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश होते हुए भी हमारे बाजार में 600-700 रुपये किलो बिकने वाला घी अक्सर नकली निकलता है। असली घी 3000 रुपये किलो तक बिक रहा है। यह केवल आर्थिक घोटाला नहीं, बल्कि धार्मिक संस्थानों के साथ खिलवाड़ है।

पार्थसारथि थपलियाल ने रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पंक्तियाँ उद्धृत की हैं—

> छीनता हो सत्व कोई, और तू

त्यागता से काम ले, यह पाप है।

पुण्य है विच्छिन्न करना उसे

बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।

यह समय त्याग या मौन का नहीं। सनातन संस्कृति पर जिस प्रकार सुनियोजित वैचारिक और सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं, उनका प्रतिकार करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है। तिरुपति प्रकरण की निष्पक्ष जांच कर दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई भी पवित्र संस्थानों और आस्था के साथ खिलवाड़ करने की हिम्मत न कर सके।

भारत की एकता और अखंडता की नींव सनातन संस्कृति में ही निहित है। उसे कुष्ठ या मलेरिया कहना न केवल धार्मिक, बल्कि राष्ट्रीय अपमान है। ऐसे वक्तव्यों और षड्यंत्रों के विरुद्ध समाज को एकजुट होकर खड़ा होना होगा।संपूर्ण भारतीय समाज को यह स्मरण रखना चाहिए कि सनातन का कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं। उसे मिटाने के हर प्रयास इतिहास में असफल ही साबित हुए हैं—और आगे भी होते रहेंगे।

उत्तराखंड, जो देवभूमि कहलाता है, को विशेष रूप से सतर्क और सजग रहने की आवश्यकता है। यहां की संस्कृति, मंदिर परंपराएं और आध्यात्मिक धरोहर देश को मार्गदर्शन देती रही हैं। “अपनी धरोहर” जैसी पहल से जुड़कर हमें न केवल सनातन मूल्यों की रक्षा करनी है, बल्कि अपने धर्म, आस्था और संस्कृत चेतना को भी पुनः जागृत करना है। यही समय है जब उत्तराखंड अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोते हुए सनातन के लिए एक प्रेरणास्रोत बने।


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