✍️ संपादकीय :“सुशीला तिवारी अस्पताल में संविदा कर्मचारियों का सच – उत्तराखंड सरकार अब मौन क्यों?”उत्तराखंड की मूल अवधारणा के खिलाफ खेल?कर्मचारियों की “शोषण गाथा” या “भ्रष्टाचार की कथा”?कर्मचारियों की “शोषण गाथा” या “भ्रष्टाचार की कथा”?

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हल्द्वानी स्थित डॉ. सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज व अस्पताल, जिसे पूरे कुमाऊं ही नहीं बल्कि राज्य का सबसे बड़ा और अत्याधुनिक अस्पताल माना जाता है, इन दिनों गंभीर विवादों में है। कारण स्पष्ट है – यहां उपनल और संविदा कर्मचारियों की नियुक्तियों में व्याप्त अनियमितता, बाहरी राज्यों का वर्चस्व और भ्रष्टाचार की बू।

पिछले कुछ महीनों से यह मामला लगातार सुर्खियों में है कि यहां कार्यरत कर्मचारियों को पांच महीने से वेतन नहीं मिला है। मीडिया रिपोर्टों और कर्मचारियों की गवाही से यह सामने आया कि गार्ड, सफाईकर्मी, तकनीशियन और फार्मासिस्ट तक वेतन के लिए भटक रहे हैं। मगर सवाल केवल वेतन का नहीं है। असली मुद्दा इससे कहीं बड़ा है –

यहां नियुक्त 90% से ज्यादा संविदा कर्मचारी उत्तराखंड मूल के नहीं हैं।
इनकी नियुक्ति “योग्यता और पारदर्शिता” से नहीं, बल्कि सिफारिश, भ्रष्टाचार और रिश्तेदारी के आधार पर हुई है।
सूत्रों का दावा है कि यदि इन कर्मचारियों के डिग्री और प्रमाणपत्रों की जांच कराई जाए तो अधिकांश फर्जी या संदिग्ध पाए जाएंगे।



उत्तराखंड की मूल अवधारणा के खिलाफ खेल?सन 2000 में जब उत्तराखंड राज्य बना था, तब राज्य आंदोलनकारियों ने एक सपना देखा था – पर्वतीय युवाओं के लिए रोजगार और स्थानीय संसाधनों पर उनका अधिकार। लेकिन सुशीला तिवारी अस्पताल का यह उदाहरण उस सपने की खुली हत्या है।

20 वर्षों से यहां उत्तराखंड के स्थानीय युवाओं की उपेक्षा करते हुए बाहरी राज्यों से आए लोगों को संविदा पर रखा गया। यह न केवल राज्य निर्माण की भावना का अपमान है, बल्कि हजारों योग्य उत्तराखंडी युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ भी है।


कर्मचारियों की “शोषण गाथा” या “भ्रष्टाचार की कथा”?कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें 12 से 18 हजार रुपये मासिक वेतन पर काम कराया जाता है और अब पांच महीने से वह भी नहीं दिया गया।
लेकिन असली सवाल यह है कि –

  • किस आधार पर इनकी नियुक्ति हुई?
  • स्थानीय बेरोजगार युवाओं को क्यों दरकिनार किया गया?
  • क्या अस्पताल प्रशासन ने कभी इनके प्रमाणपत्रों की जांच की?

सूत्रों का कहना है कि भर्ती प्रक्रिया पूरी तरह से संबंध और सिफारिश आधारित थी। कई कर्मचारी ऐसे हैं जिनके पास मान्यता प्राप्त संस्थानों की डिग्री तक नहीं है, मगर वे तकनीशियन और फार्मासिस्ट के पदों पर कार्यरत हैं। यह सीधे-सीधे जनता की जान के साथ खिलवाड़ है।


राजनीतिक दलों का रवैया?सत्तापक्ष कह रहा है कि “समाधान निकाला जा रहा है”, विपक्ष विधानसभा में मुद्दा उठाने की बात कर रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों ही पक्ष इन कर्मचारियों को ढाल बनाकर राजनीति खेल रहे हैं।
कोरोना काल में यही कर्मचारी “फ्रंटलाइन वर्कर” कहलाए, सरकार ने इनके नाम पर वाहवाही लूटी, लेकिन अब जब स्थायी समाधान की बारी आई तो यह कहकर किनारा किया जा रहा है कि “पद सृजित ही नहीं हैं।”


असलियत – उत्तराखंड के युवाओं के साथ धोखा

  • राज्य के मेडिकल कॉलेजों से हर साल सैकड़ों डॉक्टर, नर्स और तकनीशियन पास आउट होते हैं, लेकिन सुशीला तिवारी अस्पताल में नियुक्ति पाते हैं बाहरी राज्य के लोग।
  • यहां तक कि सफाईकर्मी और गार्ड के पदों पर भी स्थानीय लोगों को प्राथमिकता नहीं दी गई।
  • उत्तराखंडी युवाओं को बेरोजगारी की कतार में छोड़कर, सिफारिशी और फर्जी सर्टिफिकेट वाले लोग संविदा पर काबिज हैं।

सरकार की जिम्मेदारी उत्तराखंड सरकार का दायित्व है कि वह –

  1. सभी संविदा कर्मचारियों की डिग्री, सर्टिफिकेट और नियुक्ति प्रक्रिया की जांच कराए।
  2. यदि अनियमितता पाई जाती है तो तुरंत बाहर का रास्ता दिखाए।
  3. उत्तराखंड मूल निवासियों को प्राथमिकता देते हुए सभी पद पुनः भरे जाएं।
  4. भविष्य की भर्ती प्रक्रिया को पारदर्शी और मेरिट आधारित बनाया जाए।

वेतन विवाद और स्थायित्व का समाधान?यह भी सच है कि 18-20 साल से काम कर रहे कर्मचारियों को एक झटके में बाहर करना मानवीय दृष्टि से कठिन निर्णय है। लेकिन जब यह साफ हो कि अधिकांश नियुक्तियां भ्रष्टाचार और सिफारिश से हुईं, तो राज्य सरकार के पास विकल्प बचता है –

जो वास्तव में योग्य और सत्यापित दस्तावेजों वाले हैं, उन्हें नियमों के तहत समायोजित किया जाए।
बाकी को बाहर का रास्ता दिखाकर स्थानीय बेरोजगार युवाओं के लिए अवसर खोले जाएं।


जनता की आवाज़ और संभावित खतरे?आज ये कर्मचारी सड़कों पर उतरने की चेतावनी दे रहे हैं। लेकिन यदि सरकार ने केवल दबाव में आकर “ज्यों का त्यों” स्थिति बहाल कर दी तो यह उत्तराखंड के युवाओं के साथ सबसे बड़ा अन्याय होगा।

जनता की उम्मीद यही है कि सरकार राजनीतिक दबाव में न झुके, बल्कि राज्यहित में साहसिक निर्णय ले।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी) सरकार अब मौन न रहे?उत्तराखंड की जनता यह सवाल पूछ रही है –

  • क्या सुशीला तिवारी अस्पताल उत्तराखंड के युवाओं का है या बाहरी राज्यों का रोज़गार केंद्र?
  • क्या 20 साल से चली आ रही सिफारिश और भ्रष्टाचार की राजनीति का अंत होगा?
  • क्या स्थानीय युवाओं को न्याय मिलेगा?

यह संपादकीय स्पष्ट कहता है – उत्तराखंड सरकार को अब कड़ा और निर्णायक कदम उठाना ही होगा।

सभी संदिग्ध संविदा कर्मचारियों की जांच कर बाहर का रास्ता दिखाना होगा।
और उत्तराखंड की मूल अवधारणा – “स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय युवाओं का हक” – को लागू करना होगा।

अन्यथा आने वाले समय में सुशीला तिवारी अस्पताल का यह विवाद केवल एक अस्पताल तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह पूरे उत्तराखंड में युवाओं के असंतोष का ज्वालामुखी बन सकता है।ज़उत्तराखंड सरकार, अब मौन तोड़िए – और राज्य के युवाओं को उनका अधिकार दीजिए।




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