उत्तराखंड,भारतीय संस्कृति की कालगणना में दो प्रमुख पद्धतियाँ प्राचीन काल से प्रचलित हैं—चंद्र पंचांग और सौर पंचांग। जहाँ चंद्र पंचांग चंद्रमा की कलाओं पर आधारित है, वहीं सौर पंचांग सूर्य की गति और संक्रांति पर आधारित होता है। ऋग्वैदिक परंपरा से लेकर आज तक, विशेष रूप से उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्र—उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और नेपाल—में सौर पंचांग का आधिक्य रहा है।यह पंचांग ऋतुचक्र, सूर्य संक्रांति और ध्रुव समय-संवेदना के साथ वैदिक जीवन के सबसे प्रामाणिक और वैज्ञानिक आधारों में से एक है। विशेषकर उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहाँ लोक आस्था और वैदिक जीवनशैली का गहरा संयोग है, वहाँ सौर पंचांग के आधार पर मनाए जाने वाले पर्व, व्रत और अनुष्ठान सनातन संस्कृति की जड़ों से जुड़े हुए हैं।✍️अवतार सिंह बिष्ट,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारीयह पंचांग ऋतुचक्र, सूर्य संक्रांति और ध्रुव समय-संवेदना के साथ वैदिक जीवन के सबसे प्रामाणिक और वैज्ञानिक आधारों में से एक है। विशेषकर उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहाँ लोक आस्था और वैदिक जीवनशैली का गहरा संयोग है, वहाँ सौर पंचांग के आधार पर मनाए जाने वाले पर्व, व्रत और अनुष्ठान सनातन संस्कृति की जड़ों से जुड़े हुए हैं।
इस वर्ष (2025) कर्क संक्रांति 16 जुलाई को हो रही है, अतः सौर पंचांग के अनुसार सावन का महीना 16 जुलाई से 15 अगस्त तक रहेगा। यह समयावधि सौर पंचांग में तय है और ऋतुओं के अनुरूप चलती है, जबकि चंद्र पंचांग में यह तिथि हर वर्ष बदलती रहती है।


उत्तराखंड के ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में इसी सौर पंचांग के अनुसार पर्वों का आयोजन होता है। खासकर शिव पूजा, हरियाली उत्सव, नागपंचमी, हरियाली तीज और रक्षा बंधन जैसी परंपराएँ सावन के इसी कालखंड में आती हैं।
सावन और शिव: वैदिक परंपरा में विशेष महत्व?सावन का महीना भगवान शंकर को समर्पित होता है। इसे शिव का प्रिय मास माना जाता है। वनों में हरियाली, आकाश में वर्षा और जनमानस में भक्ति का संगम सावन को अध्यात्म और प्रकृति के अद्भुत संयोग का समय बना देता है।
वैदिक ग्रंथों के अनुसार, यह वही कालखंड है जब समुद्र मंथन के दौरान निकला कालकूट विष भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था। इस अद्भुत त्याग के कारण शिव को “नीलकंठ” कहा गया। तभी से सावन में शिव की विशेष आराधना का विधान प्रचलित हुआ।
उत्तराखंड में सौर पंचांग की परंपरा: आस्था, अभ्यास और आदान-प्रदान!उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता है, यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा में सौर पंचांग की भूमिका अति महत्वपूर्ण रही है।
कुमाऊँ क्षेत्र, जैसे कि अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर, आदि में और गढ़वाल क्षेत्र, जैसे कि चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, आदि में भी सौर पंचांग ही प्रमुखता से उपयोग में लाया जाता है।
यहाँ के जागरों, लोकगीतों, बग्वाल जैसे पर्वों और कुमाऊँनी पंचांगों में सौर पंचांग की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यहाँ मास का आरंभ संक्रांति से होता है, और सोमवार जैसे वार विशेष रूप से सौर-मासिक गणना के आधार पर रखे जाते हैं।
अंतिम सोमवार का महत्व: शिवार्चन का चरम क्षण?सावन के प्रत्येक सोमवार को “श्रावण सोमवारी व्रत” रखा जाता है, लेकिन “अंतिम सोमवार” का महत्व सबसे अधिक होता है। यह दिन शिव-भक्तों के लिए चरम भक्ति और समर्पण का प्रतीक बन जाता है।
उत्तराखंड में हरिद्वार, गंगोत्री, केदारनाथ, और कालीगंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में हजारों श्रद्धालु सावन के अंतिम सोमवार को जलाभिषेक करते हैं।?अल्मोड़ा के जागेश्वर धाम, रुद्रप्रयाग के त्रियुगीनारायण, चम्पावत के मनकोटेश्वर महादेव, और रुद्रपुर के टांडा महादेव जैसे प्रमुख शिवालयों में इस दिन भक्तों की अपार भीड़ उमड़ती है।
यह दिन प्रतीक है —
- साधना के चरम का
- त्याग और व्रत की पूर्णता का
- अंतर्मन में शिवत्व के जागरण का
वैदिक परंपरा में अंतिम सोमवारी का वैज्ञानिक व आध्यात्मिक विश्लेषण 1. पंचमहाभूतों के संतुलन का काल सावन में वातावरण में अपार जलवाष्प, हरियाली, और ओजोन स्तर की वृद्धि से पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में सामंजस्य उत्पन्न होता है। यह समय उपवास, ध्यान और तपस्या के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है।
2. देवाधिदेव शिव की अनुकूलता,शास्त्रों में उल्लेख है कि “सावन का अंतिम सोमवार” वह समय है जब भगवान शिव स्वयं ब्रह्मांड में भटकते हुए अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए अवतरित होते हैं। यह तिथि वैदिक ज्योतिष में अत्यंत शुभ मानी जाती है।
3. आरोग्यता व मानसिक शांति का अवसर आयुर्वेद में भी यह कहा गया है कि सावन में उपवास और जल सेवन करने से पाचनतंत्र सशक्त होता है, और ध्यान के अभ्यास से मानसिक शांति प्राप्त होती है। अंतिम सोमवारी इस साधना का पूर्णविराम है।
सौर पंचांग और लोक परंपराओं का संगम: उत्तराखंड की अनूठी संस्कृति?उत्तराखंड की लोक-परंपराएं और सौर पंचांग आपस में गहराई से जुड़ी हुई हैं। जैसे:
हरेला पर्व” — कर्क संक्रांति को आरंभ होता है। यह पूर्णत: सौर पंचांग आधारित पर्व है।बग्वाल” — टनकपुर व चंपावत क्षेत्र में रक्षाबंधन पर आयोजित युद्ध शैली का त्योहार है, सौर गणना से तय होता है।नन्दा देवी मेला” — भाद्रपद मास में आता है, जो सौर पंचांग से जुड़ा होता है।इन पर्वों के तिथिगत निर्धारण में चंद्र पंचांग की भ्रामकता से बचने के लिए सौर पंचांग ही उपयोगी सिद्ध हुआ है।
उत्तराखंड की जागर परंपरा में सावन और शिव?उत्तराखंड की जागर गायन परंपरा, जो कि देवी-देवताओं को आमंत्रित करने की विशेष शैली है, उसमें सावन मास और शिव की आराधना का विशेष उल्लेख मिलता है।
हे भोले बाबा बर्फीले नाथ, तेरु नाम लूं सावन के सोम…जैसे जागर गीतों में भक्त की शिव के प्रति पुकार अंतिम सोमवारी पर विशेष जागरूकता का प्रमाण है।
आधुनिक समाज के लिए संदेश: पंचांग से जुड़िए, प्रकृति से जुड़िए?आज का समाज, विशेषकर शहरी उत्तराखंड, चंद्र पंचांग और अंग्रेजी कैलेंडर की उलझनों में सौर पंचांग की वैदिक उपयोगिता को भूल रहा है।हमें अपने बच्चों को सौर पंचांग सिखाना होगा, स्थानीय महीनों के नाम याद दिलाने होंगे और मौसम के साथ जीवन जीने की कला पुनः सिखानी होगी।
अंतिम सोमवारी — साधना की पूर्णता, शिवत्व की प्राप्ति,सावन का अंतिम सोमवार न केवल भक्ति की पूर्णता का अवसर है, बल्कि शिव से एकाकार होने का आध्यात्मिक संकल्प भी है।
उत्तराखंड में सौर पंचांग, लोक परंपराएँ, और वैदिक जीवनशैली मिलकर जो चित्र बनाते हैं, उसमें अंतिम सोमवारी एक अलौकिक रेखा है — जहां आस्था, प्रकृति और आत्मा एकसाथ शिव में लीन हो जाती हैं।

