चम्पावत की सीमांत ग्राम पंचायत तरकुली में ऐसा दृश्य सामने आया, जो सामान्यतः भारतीय चुनावी परिपाटी में देखने को नहीं मिलता। प्रत्याशी काजल बिष्ट, जिन्हें ग्राम प्रधान के रूप में विजयी घोषित कर दिया गया था, खुद रिटर्निंग ऑफिसर के समक्ष पहुंचीं और कहा — “मैं चुनाव नहीं जीती, मेरा प्रमाण पत्र वापस लीजिए।”
यह घटना प्रशासनिक मशीनरी में हुई गंभीर चूक को दर्शाती है, लेकिन उससे भी बड़ा पहलू यह है कि एक प्रत्याशी ने सत्य को स्वीकार करते हुए जीत का लोभ नहीं किया। काजल का दावा है कि मतगणना में वह अपने प्रतिद्वंद्वी सुमित कुमार से तीन वोटों से हार गई थीं, मगर गलती से उन्हें विजेता घोषित कर दिया गया।


सुमित कुमार ने भी इस बात की पुष्टि की कि काजल बिष्ट ने उन्हें बधाई दी थी। ऐसे में निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि इस मामले में पारदर्शिता के साथ फॉरेंसिक ऑडिट या री-काउंटिंग कराई जाए। वरना भविष्य में ऐसे ‘गंभीर किंतु मानवीय भूलें’ लोकतंत्र में विश्वास की नींव हिला देंगी।
एक और चेहरा: चुनावी हार और आत्महत्या पिथौरागढ़ जिले के विन ब्लॉक स्थित लेलू क्षेत्र में बीडीसी प्रत्याशी लक्ष्मण गिरी की आत्महत्या की खबर दुखद और विचारणीय है। हार के बाद 54 वर्षीय लक्ष्मण गिरी ने जहरीला पदार्थ खा लिया और इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई।
यह घटना चुनावी प्रक्रिया के मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर गंभीर सवाल उठाती है। लोकतंत्र केवल मतगणना और पदों तक सीमित नहीं है — यह जनसेवा का माध्यम है, जहां हार और जीत दोनों का स्थान है। लेकिन अगर राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी प्रबल हो जाए कि हार को जीवन का अंत मान लिया जाए, तो समाज के भीतर कहीं न कहीं मूल्यों का क्षरण हो रहा है।
समस्या की जड़: चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और जनचेतना की कमी
प्रशासनिक लापरवाही:
चम्पावत की घटना से साफ है कि मतगणना के दौरान डाटा एंट्री, क्रॉस-वेरिफिकेशन और अंतिम घोषणा में मानव-त्रुटि या लापरवाही हुई है। यदि प्रत्याशी ईमानदारी से सामने न आतीं, तो यह गलती आगे मुकदमों और अव्यवस्थाओं को जन्म देती।मानसिक स्वास्थ्य और परामर्श का अभाव:
लक्ष्मण गिरी की आत्महत्या यह दर्शाती है कि ग्रामीण चुनावों में भी अब मनोवैज्ञानिक दबाव उतना ही अधिक हो गया है जितना बड़े स्तर पर होता है। प्रत्याशियों के लिए चुनाव पूर्व और पश्चात काउंसलिंग या जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है।
क्या होना चाहिए आगे?निर्वाचन आयोग को तुरंत चम्पावत के मामले में पुनर्मूल्यांकन कर दोनों प्रत्याशियों को विश्वास में लेकर निष्पक्ष निर्णय लेना चाहिए।चुनाव परिणाम घोषित करने से पहले फाइनल वेरिफिकेशन की प्रक्रिया को अनिवार्य बनाना होगा।ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक सहभागिता की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ट्रेनिंग शुरू करनी चाहिए।पंचायत चुनावों में भी डिजिटल मतगणना या CCTV रिकॉर्डिंग जैसे उपाय लागू करने होंगे।
एक तरफ काजल बिष्ट जैसी ईमानदार प्रत्याशी हैं जो लोकतंत्र के प्रति समर्पण दिखा रही हैं, दूसरी ओर लक्ष्मण गिरी जैसे हारे हुए उम्मीदवार हैं जो हार नहीं पचा पाए। दोनों घटनाएं लोकतंत्र की परछाइयों को उजागर करती हैं — एक उजली, एक धुंधली।यह समय है जब पंचायत चुनावों को सिर्फ स्थानीय राजनीति की लड़ाई मानने की बजाय लोकतांत्रिक चेतना का प्रशिक्षण-स्थल बनाया जाए।
संपादकीय: लोकतंत्र की जीत या चेतना की हार?Avtar Singh Bisht | हिन्दुस्तान ग्लोबल टाइम्स,उत्तराखंड पंचायत चुनाव के दो दृश्य — एक चम्पावत की सीमांत ग्राम पंचायत तरकुली में काजल बिष्ट का “मैं चुनाव नहीं जीती, प्रमाण पत्र ले लीजिए” कहना, और दूसरा पिथौरागढ़ के लेलू क्षेत्र में लक्ष्मण गिरी की आत्महत्या — भारतीय लोकतंत्र की दो परस्पर विरोधी परतों को उजागर करते हैं।जहां काजल बिष्ट ने प्रशासन की गलती को सामने लाकर ईमानदारी और लोकतंत्र में आस्था की मिसाल पेश की, वहीं लक्ष्मण गिरी की दुखद मृत्यु ने ग्रामीण राजनीति में मानसिक दबाव और सामाजिक संवेदनहीनता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।प्रश्न यह नहीं है कि चूक कहां हुई — मतगणना में या मन की गणना में?
प्रश्न यह है कि क्या हम ऐसे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, जहां एक जीत भी बोझ बन जाए और एक हार भी जीवन हर ले?चम्पावत की घटना में यदि काजल ईमानदारी से सामने न आतीं, तो यह त्रुटि एक लंबी कानूनी लड़ाई बन सकती थी। प्रशासन को इस मामले से सीख लेते हुए मतगणना प्रक्रिया में फाइनल वेरिफिकेशन और पारदर्शिता के तकनीकी उपाय अपनाने चाहिए।दूसरी ओर, लक्ष्मण गिरी की आत्महत्या यह दिखाती है कि पंचायत स्तर पर भी चुनाव अब मनोवैज्ञानिक युद्ध बन चुके हैं। क्या किसी बीडीसी प्रत्याशी के लिए हार इतना बड़ा आघात हो सकता है? यह केवल व्यक्ति की विफलता नहीं, समाज की असंवेदनशीलता का भी प्रमाण है।समाधान केवल चुनावी सुधार नहीं, सामाजिक और भावनात्मक प्रशिक्षण है।
चुनाव आयोग को चाहिए कि पंचायत उम्मीदवारों के लिए मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाए जाएं।काजल की ईमानदारी प्रेरणा है, और लक्ष्मण की मृत्यु एक चेतावनी।
दोनों घटनाएं मिलकर हमें यह सिखा रही हैं कि लोकतंत्र केवल प्रणाली नहीं, मन की परिपक्वता का नाम है।
यह समय है जब जनसेवा को पद से ऊपर, और चुनाव को जीवन से कम समझने की भूल हमें रोकनी होगी।

