✍️ संपादकीय: जिला पंचायत अध्यक्ष पद का आरक्षण — सवालों के घेरे में शासन की मंशा?

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उत्तराखंड की पंचायत राजनीति में इन दिनों एक बार फिर आरक्षण की वैधता और निष्पक्षता को लेकर घमासान मचा हुआ है। हरिद्वार को छोड़कर बाकी सभी जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए घोषित अनंतिम आरक्षण सूची पर कुल 42 आपत्तियां शासन तक पहुंच चुकी हैं। इनमें अकेले देहरादून जिले से 16 आपत्तियां शासन की आरक्षण नीति की पारदर्शिता पर सवाल उठा रही हैं।

पौड़ी से 9, ऊधमसिंह नगर से 3, रुद्रप्रयाग, चमोली व उत्तरकाशी जैसे जिलों से भी विरोध के स्वर उठे हैं। सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि एक व्यक्ति ने हरिद्वार को छोड़ बाकी सभी जिलों के आरक्षण पर आपत्ति दर्ज कराई है, जो इस प्रक्रिया के प्रति अविश्वास का प्रतीक है।

इन आपत्तियों का मुख्य स्वर यह है कि शासन ने कई जिलों में “मनमाफिक आरक्षण” तय किया है। शिकायतकर्ताओं का आरोप है कि जहां पद अनारक्षित होना चाहिए था, वहां महिला के लिए आरक्षित कर दिया गया, और जहां महिला के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए था, वहां इसे अनारक्षित घोषित कर दिया गया। यह स्थिति केवल तकनीकी चूक नहीं, बल्कि सुनियोजित राजनीतिक हेरफेर का संदेह उत्पन्न करती है।

शासन द्वारा गठित समिति आज इन आपत्तियों का निस्तारण करेगी और 6 अगस्त को आरक्षण की अंतिम सूची प्रकाशित की जाएगी। इस समिति में अपर सचिव, संयुक्त निदेशक और पंचायतीराज विभाग के अधिकारी शामिल हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या महज एक नियमित प्रक्रिया से इस असंतोष का समाधान संभव है?

लोकतंत्र में आरक्षण एक संवेदनशील विषय है,ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक, आरक्षण समाज के कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का संवैधानिक उपाय है। लेकिन जब यही आरक्षण राजनीतिक सत्ता और जातीय समीकरणों का खिलौना बन जाए, तो यह लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे पर कुठाराघात है। उत्तराखंड में लगातार यह आरोप लगता रहा है कि जिला पंचायत अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर पार्टी हित और जातीय समीकरणों को साधने के लिए आरक्षण का मनचाहा उपयोग किया जाता है।

क्या यह मात्र संयोग है कि जिन जिलों में सत्तारूढ़ दल को अनुकूल समीकरण दिखते हैं, वहां आरक्षण की श्रेणी “ऐसे ढली” कि सत्ता समीकरण सुरक्षित रहें?

दो दिन का समय, सैकड़ों सवाल,शासन ने आपत्ति दर्ज करने के लिए केवल दो दिन का समय दिया, जबकि यह आरक्षण सूची ग्राम स्तर तक सामाजिक प्रभाव डालती है। इतने कम समय में आम नागरिक, जनप्रतिनिधि और सामाजिक संगठन कैसे तथ्यात्मक आपत्तियां दर्ज कर सकते हैं?

यह भी देखा गया है कि पिछली पंचवर्षीय अवधि में कई जिलों में आरक्षण की अदला-बदली को लेकर कई मुकदमे न्यायालयों में पहुंचे। इस बार भी यदि आपत्तियों का न्यायोचित समाधान नहीं हुआ तो मामला फिर अदालतों की चौखट पर होगा, जिससे स्थानीय शासन की प्रक्रिया ही बाधित होगी।

क्या समिति स्वतंत्र निर्णय ले पाएगी?समिति के सभी सदस्य सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं। जनभावनाओं की नब्ज पकड़ने और निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए क्या समिति में किसी न्यायिक अधिकारी या स्वतंत्र विशेषज्ञ की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए थी?

यदि समिति केवल ‘कागजी आपत्तियों’ को निरस्त कर शासन की मूल सूची को वैध ठहराने का औपचारिक मंच बन गई, तो यह प्रदेश में पंचायत लोकतंत्र की आत्मा को कुचलने जैसा होगा।


आरक्षण व्यवस्था से विश्वास न उठे?आरक्षण समाज में संतुलन और समान अवसर देने का औजार है, लेकिन यदि यह राजनीतिक औजार बन गया तो सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा मिलेगा। उत्तराखंड जैसे संवेदनशील राज्य में, जहां पहाड़ और मैदान दोनों के राजनीतिक समीकरण अलग हैं, वहां आरक्षण तय करते समय विशेष पारदर्शिता, सामाजिक संवाद और न्यायिक दृष्टिकोण जरूरी है।

शासन को चाहिए कि 6 अगस्त से पहले इन 42 आपत्तियों की निष्पक्ष, सार्वजनिक और तार्किक समीक्षा करे। अगर लोकतंत्र में विश्वास बनाए रखना है, तो आरक्षण सूची की अंतिम घोषणा मात्र औपचारिकता नहीं, जवाबदेही का दस्तावेज होनी चाहिए।


अवतार सिंह बिष्ट, सम्पादक
हिन्दुस्तान ग्लोबल टाइम्स |
(रुद्रपुर, उत्तराखंड)


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