हिमालयी राज्य उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम विश्व की आस्था और आध्यात्मिक चेतना का पर्याय है, जहां लोगों को देवत्व की प्राप्ति के साथ ही देवभूमि के कण-कण में भगवान शंकर की उपस्थिति का अहसास होता है।

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Uttarakhand यह स्थान अपने धार्मिक महत्व के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक आभा के लिए वैश्विक पटल पर भारत की आध्यात्मिक समृद्धि और सुंदरता को अंकित करता है। भगवान भोलेनाथ का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग केदारनाथ इसी सुरम्य वातावरण में स्थित है। 12 प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान शिव अपने रुद्र रूप में 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ धाम में स्वयंभू शिव के रूप में विराजमान हैं।

आदि शंकराचार्य ने कराया था जीर्णोद्धार
इस मंदिर का जीर्णोद्धार सबसे पहले आदि शंकराचार्य ने कराया था। इसी रुद्र रूप की अवधारणा के कारण इस पूरे क्षेत्र को रुद्रप्रयाग कहा गया है। बर्फ से ढके केदारनाथ धाम के कपाट अप्रैल-मई माह में ओंकारेश्वर मंदिर उखीमठ द्वारा विधि-विधान से घोषित तिथि के बाद खुलते हैं और दिवाली के बाद बंद कर दिए जाते हैं। शीतकाल में छह माह तक भगवान केदारनाथ की चल विग्रह, डोली और दंडी को पूजा-अर्चना के लिए उखीमठ में स्थापित किया जाता है। शीतकाल में इस धाम का तापमान शून्य से काफी नीचे चला जाता है।

तीन ओर से पहाड़ों से घिरा मंदिर
यह मंदिर तीन ओर से ऊंची हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं से सुशोभित है। एक ओर करीब 22 हजार फीट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी ओर 21 हजार 600 फीट ऊंचा ऊंट खर्च कुंड और तीसरी ओर 22 हजार 700 फीट ऊंचा भरतकुंड इस धाम को आच्छादित करते हैं। इस अलौकिक सुरक्षा के साथ ही इसे मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीर गंगा, सरस्वती और स्वर्ण गौरी जैसी पवित्र धाराओं का भी साथ प्राप्त है। वास्तव में ये नदियां एक दयालु मां की तरह दिन-रात इस मंदिर की सेवा में समर्पित हैं। इसका निर्माण पांडव वंश के जन्मेजय ने कत्यूरी शैली में करवाया है। गौरीकुंड और वासुकी ताल भी पास में ही हैं।

मंदिर से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं
स्कंद पुराण में वर्णित पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नर-नारायण ने हिमालय के केदारशृंग (पर्वत) पर मिट्टी का लिंग बनाकर कई वर्षों तक तपस्या की थी। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हीं नर-नारायण की विशेष प्रार्थना पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में वहीं विराजमान हो गए।

केदारनाथ पांडवों की कथा केदार की कथा
इसी क्रम में पुराणों में वर्णित पंच केदार की कथा के वर्णन से भी इस धाम का महत्व समझा जा सकता है। महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पांडव अपने सगे-संबंधियों की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे और ऋषि व्यास की सलाह पर भगवान शिव की शरण ही उन्हें पाप से मुक्ति दिला सकती थी। इसी कामना के साथ पांडव बद्रीनाथ धाम के लिए रवाना हुए। पांडवों की परीक्षा लेने के लिए भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गए और केदार में जाकर बस गए। जब पांडवों को इस बात का पता चला तो वे भी उनके पीछे-पीछे केदार पर्वत पर पहुंच गए। पांडवों को आता देख भगवान शिव ने भैंसे का रूप धारण कर लिया और पशुओं के झुंड में शामिल हो गए। तब पांडवों ने भगवान के दर्शन पाने की योजना बनाई और भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर केदार पर्वत के दोनों ओर अपने पैर फैला दिए।

कहा जाता है कि अन्य सभी पशु भीम के पैरों के नीचे से निकल गए, लेकिन शंकर जी के रूप में भैंसा उनके पैरों के नीचे से गुजरने को तैयार नहीं था। जब भीम ने उस भैंसे को बलपूर्वक पकड़ने की कोशिश की तो भोलेनाथ ने विशाल रूप धारण कर लिया और धरती में धंसने लगे। उसी क्षण भीम ने बलपूर्वक भैंसे की पीठ को पकड़ लिया। पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प को देखकर भगवान शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने तुरंत दर्शन देकर पांडवों को उनके पापों से मुक्त कर दिया। उस समय से ही भगवान शंकर भैंसे की पीठ के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। केदार शब्द का अर्थ दलदल भी माना जाता है, अर्थात वह स्थान जो मनुष्य को सांसारिक दलदल से मुक्ति दिलाए।

शिव को पशुपतिनाथ क्यों कहते हैं पशुपतिनाथ से संबंध
पड़ोसी देश नेपाल में स्थित पशुपतिनाथ का सीधा संबंध केदारनाथ से है। शास्त्रों के अनुसार यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ का ही एक अंश है, अर्थात धड़ से नीचे का भाग भारत में ‘केदार शिव’ और ऊपर का भाग नेपाल में ‘पशुपतिनाथ’ के रूप में पूजित है। यहां की घाटियों की अलौकिक शांति पूरे देश को ही नहीं बल्कि दुनिया के ऋषि-मुनियों को भी आध्यात्म की खोज के लिए आमंत्रित करती है। यहां स्थित उड्यारों (गुफा) में ध्यान लगाकर अनेक विचारकों ने शारीरिक और मानसिक शांति प्राप्त की है। कैसे पहुंचें: यात्री अपनी क्षमता के अनुसार हवाई या सड़क मार्ग से बहुत आसानी से केदारनाथ धाम पहुंच सकते हैं।

✧ धार्मिक और अध्यात्मिक

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