अपर महाधिवक्ता की कुर्सी या सत्ता की कृपा? उत्तराखंड में न्यायिक नियुक्तियों पर परिवारवाद और राजनीतिक हस्तक्षेप के गंभीर संकेत ✍️ अवतार सिंह बिष्ट विशेष संवाददाता, रुद्रपुर

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भूमिका: सवाल एक नियुक्ति का नहीं, लोकतंत्र की संरचना का है
उत्तराखंड में हाल ही में श्रीमती पुष्पा भट्ट को अपर महाधिवक्ता (Additional Advocate General) के पद पर नियुक्त किया गया है। यह पद न केवल सरकार की विधिक रक्षा का अहम केंद्र होता है, बल्कि इसके ज़रिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की संवेदनशील रेखा भी रेखांकित होती है। परंतु इस नियुक्ति ने राज्य की राजनीतिक-न्यायिक व्यवस्था की पारदर्शिता, योग्यता आधारित चयन प्रक्रिया, और हितों के टकराव (Conflict of Interest) जैसे बुनियादी प्रश्नों को फिर से सतह पर ला दिया है।


श्रीमती पुष्पा भट्ट कौन हैं और विवाद की जड़ क्या है?श्रीमती पुष्पा भट्ट उत्तराखंड के कद्दावर भाजपा नेता और वर्तमान में केंद्रीय रक्षा एवं पर्यटन राज्य मंत्री श्री अजय भट्ट की पत्नी हैं। अजय भट्ट लंबे समय तक उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष और कैबिनेट मंत्री रहे हैं। ऐसे में जब उनकी पत्नी को एक संवैधानिक और विधिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया, तो यह स्वाभाविक रूप से राजनीतिक संरक्षित नियुक्ति का उदाहरण बन गया।

यही नहीं, तिवारी सरकार के कार्यकाल में भी, जब श्री अजय भट्ट विपक्ष के नेता थे, तब भी श्रीमती भट्ट को नियुक्ति दी गई थी। यह घटनाक्रम उस मौन सहमति और आपसी लाभ की ओर संकेत करता है, जो सत्ता और विपक्ष के बीच अक्सर लोकतांत्रिक व्यवस्था को पंगु बना देती है।


‘विरोध में सहमति’ की संस्कृति: विपक्ष की भी भूमिका संदेह के घेरे में,राज्य आंदोलन के मूल में न्याय, पारदर्शिता और समान अवसर की भावना थी। परंतु आज विपक्ष भी सत्ता की नीतियों पर वैचारिक विरोध तो करता है, लेकिन नियुक्तियों और लाभ के मामलों में कोई ठोस प्रतिरोध नहीं दिखाता। जब नेता प्रतिपक्ष की पत्नी को सरकार पद देती है और विपक्ष चुप रहता है, तब यह संदेश जाता है कि—

राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता केवल भाषणों में है, जबकि लाभ की साझेदारी सबको स्वीकार है।


हितों के टकराव (Conflict of Interest): क्या यह स्वीकार्य है?

‘अपर महाधिवक्ता’ का कार्य सरकारी पक्ष की न्यायिक रक्षा करना है। जब सरकार से जुड़े मंत्री की पत्नी इस पद पर नियुक्त होती है, तो न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर स्वाभाविक रूप से प्रश्नचिन्ह लगता है। यह स्थिति न केवल हितों के टकराव का सीधा उदाहरण है, बल्कि इस बात का प्रमाण भी है कि—

  • राज्य में न्यायिक पद भी अब सत्ता के कृपाचार्य तंत्र का हिस्सा बनते जा रहे हैं
  • यह लोकतंत्र की उस नींव को झकझोरता है, जहां पद और कर्म में स्पष्ट सीमा होनी चाहिए।

योग्यता या सत्ता-संबंध – युवा अधिवक्ताओं के लिए क्या संदेश?

उत्तराखंड के विभिन्न ज़िलों में हजारों युवा वकील मेहनत कर रहे हैं। वे सालों से अदालतों में जिरह कर रहे हैं, विधिक ज्ञान अर्जित कर रहे हैं, परंतु उन्हें कोई पारदर्शी मंच नहीं मिलता। जब कोई अधिवक्ता सिर्फ इस वजह से शीर्ष पद पाता है क्योंकि वह किसी मंत्री का करीबी है, तो यह व्यवस्था के प्रति हताशा पैदा करता है। इससे—

  • प्रतिभा की अवमानना होती है।
  • मेहनत की जगह सत्ता-प्राप्ति का शॉर्टकट स्थापित होता है।

विधि विभाग – अब नया राजनीतिक अखाड़ा?सवाल यह है कि उत्तराखंड सरकार ने अपर महाधिवक्ता पद के लिए क्या चयन प्रक्रिया अपनाई?

  • क्या किसी सार्वजनिक विज्ञप्ति या योग्यता मूल्यांकन के आधार पर यह नियुक्ति हुई?
  • क्या अन्य योग्य उम्मीदवारों को अवसर दिया गया?

यदि नहीं, तो यह स्पष्ट है कि विधि विभाग अब राजनीतिक उपकार चुकाने का माध्यम बन गया है। यह व्यवस्था को भीतर से खोखला कर रही है।


रघुवीर बिष्ट की टिप्पणी: सत्ता-पक्ष और विपक्ष में कोई फर्क नहीं

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रघुवीर बिष्ट का यह कथन महत्वपूर्ण है कि—

“उत्तराखंड में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कोई ठोस वैचारिक अंतर नहीं बचा है। दोनों अवसरवादी हैं, और नियुक्तियों में एक-दूसरे की मदद करते हैं।”

यह बात कई उदाहरणों से साबित होती है, जहां परिवारवाद, कृपावाद और पदलाभ की सांझी संस्कृति सत्ता-विपक्ष के बीच बनी रही है।


लोकतंत्र के लिए खतरा: न्यायपालिका की स्वतंत्रता सवालों के घेरे में,यदि सरकार की विधिक रक्षा का पद भी राजनीतिक दबावों और पारिवारिक समीकरणों के तहत बांटा जाएगा, तो यह केवल विधिक संस्था ही नहीं, बल्कि जनता के न्याय के अधिकार को भी क्षति पहुंचाएगा। ऐसे में:

  • न्यायपालिका की निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है।
  • जनविश्वास में गिरावट आती है।
  • विधिक संस्थानों की गरिमा क्षतिग्रस्त होती है।

राज्य आंदोलन के आदर्शों से विश्वासघात,उत्तराखंड आंदोलन सिर्फ राज्य की मांग नहीं था, बल्कि पारदर्शी शासन, स्थानीय प्रतिभा को अवसर, और सामाजिक न्याय की मांग थी। परंतु इस तरह की नियुक्तियाँ इन सभी मूल्यों का मज़ाक उड़ाती हैं।

  • राज्य आंदोलनकारी युवाओं को यह देखकर पीड़ा होती है कि उनके संघर्ष का फल राजनीतिक परिवारों को मिलता है।
  • न्यायिक पदों की विश्वसनीयता कम होती है।

क्या समाधान है? – एक स्वायत्त विधिक सेवा आयोग की आवश्यकता,इस समस्या का समाधान केवल आलोचना नहीं, बल्कि एक संस्थागत सुधार है:

  • स्वायत्त विधिक सेवा चयन आयोग का गठन होना चाहिए, जो उच्च पदों पर नियुक्तियों की पारदर्शी और प्रतियोगी प्रक्रिया सुनिश्चित करे।
  • ऐसी नियुक्तियों पर जन सूचना अधिकार अधिनियम (RTI) के अंतर्गत पूरी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए।
  • हितों के टकराव की स्थिति में नियुक्ति स्वतः अमान्य मानी जाए।

अंतिम विचार: क्या जनता चुप रहेगी?pउत्तराखंड की जनता, अधिवक्ता समाज, और विशेष रूप से युवा वर्ग को इस विषय पर अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए। यह मुद्दा केवल एक व्यक्ति या एक परिवार का नहीं, बल्कि राज्य की लोकतांत्रिक आत्मा से जुड़ा है।

यदि हम आज चुप रहे, तो कल न्यायपालिका भी राजनीतिक पंचायत बनकर रह जाएगी।



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