अंकित भंडारी हत्याकांड: संघर्ष की मशाल और जनआंदोलन की चेतना !अनिल जोशी का सहयोग: संघर्ष की रीढ़ लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, अध्यक्ष – उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद

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रुद्रपुर,उत्तराखंड की पवित्र भूमि पर जब भी अन्याय, अत्याचार या शोषण का अंधकार छाया है, तब-तब यहां की जनता ने अपनी आवाज बुलंद की है। ऐसा ही एक काला अध्याय था अंकिता भंडारी हत्याकांड, जिसने देवभूमि की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया। यह मामला केवल एक निर्मम हत्या का नहीं था, बल्कि सत्ता, संरचना और साजिश की उस वीवीआईपी चुप्पी का भी उदाहरण था जो न्याय को दबाने में लगी रही।

इस भयावह हत्याकांड के विरुद्ध जो आवाज़ उठी और लगातार बुलंद होती रही, वह थी उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद की, जिसकी कमान मैंने, अवतार सिंह बिष्ट, संभाली और जिसे आंदोलन के हर पड़ाव पर जनसमर्थन मिला। विशेष रूप से देवभूमि पलायन एवं बेरोजगारी उन्मूलन समिति के केंद्रीय अध्यक्ष, मेरे संघर्ष के साथी अनिल जोशी ने इस जनआंदोलन को गहराई दी और देहरादून से लेकर रुद्रपुर तक संघर्ष की लौ को कभी मंद नहीं होने दिया।


गांधी पार्क बना जनआक्रोश का प्रतीक स्थल?रुद्रपुर के गांधी पार्क में गांधी प्रतिमा के समक्ष हमारा प्रत्येक विरोध प्रदर्शन एक प्रतीक था — अन्याय के विरुद्ध सत्याग्रह का, सत्ता के खिलाफ जनशक्ति का और अंकित भंडारी को न्याय दिलाने के लिए समर्पित आंदोलन का। यहां विभिन्न राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, विद्यार्थियों और आम नागरिकों का समर्थन हमें मिला। हम एक ही मांग पर अडिग रहे — हत्या के असली मास्टरमाइंड और वीवीआईपी गुनहगारों के नाम सामने लाए जाएं।

यह प्रदर्शन न केवल न्याय की मांग थी, बल्कि सत्ता की उन परतों को भी उघाड़ने की पहल थी जिनमें वीआईपी नामों को संरक्षण मिला हुआ था। हमने सड़कों पर, मंचों पर, सोशल मीडिया पर और देहरादून की राजधानी में भी हर जगह जनमत जागृत किया।


अंकिता की हत्या: एक वीआईपी ढांचे की पोल?अंकित भंडारी की हत्या मात्र एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, यह उस व्यवस्था की हत्या थी जो पत्रकारिता को चौथा स्तंभ मानती है। अंकिता, जो कि उसकी हत्या ने इस बात को उजागर कर दिया कि जब सच्चाई ताकतवर लोगों के खिलाफ होती है, तो वह असुरक्षित हो जाती है। हत्या का तरीका, साक्ष्यों का मिटाया जाना, प्रारंभिक जांच में कोताही — सब कुछ एक पूर्व-नियोजित साजिश का हिस्सा प्रतीत हुआ।…से गायब थे, जब सरकारी तंत्र सिर्फ सीमित अभियुक्तों तक सिमट गया था, तब हमारी आवाज़ गूंजी — “मुख्य साज़िशकर्ताओं को बचाने की यह कोशिश नहीं चलेगी!” उत्तराखंड की जनता ने भलीभांति समझ लिया था कि अंकिता भंडारी की हत्या की पटकथा किसी छोटे-मोटे झगड़े की उपज नहीं थी, बल्कि सत्ता और प्रभाव के गहरे गठजोड़ की उपज थी।

न्याय की राह में साज़िशों की दीवार

हमारे आंदोलनों के दौरान कई बार प्रशासनिक अवरोध, राजनीतिक उपेक्षा और मीडिया की मौन संलिप्तता देखने को मिली। कई बड़े चैनलों ने जानबूझकर इस मुद्दे को सीमित जगह दी या फिर वीआईपी नामों को बचाकर खबर चलाई। लेकिन हमारी परिषद और साथी संगठनों ने सोशल मीडिया, जमीनी प्रदर्शन और हस्ताक्षर अभियानों के जरिए इस साज़िश को जनता के सामने लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

हर बार जब हम गांधी प्रतिमा के सामने बैठते, हम यह संकल्प लेते कि अंकित के हत्यारों को बेनकाब कराना ही उत्तराखंड के युवाओं, पत्रकारों और आंदोलनकारियों के लिए न्याय की लड़ाई का प्रतीक बन चुका है।

जनप्रतिरोध से लेकर न्यायालय की चौखट तक?हमने केवल सड़कों पर नारे नहीं लगाए, बल्कि लगातार विधिक स्तर पर भी दबाव बनाया। उत्तराखंड उच्च न्यायालय में याचिकाएं, जनहित याचिकाएं और मानवाधिकार आयोग में शिकायतें — इन सभी माध्यमों से हमने साबित किया कि हमारा संघर्ष भावुकता नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों पर आधारित था।

राज्य सरकार पर भी हमारा दबाव बना रहा कि वह इस हत्याकांड को केवल एक “प्लेसमेंट एजेंसी विवाद” न माने, बल्कि इसे एक गहरी साजिश के रूप में जांच करे। इस जनदबाव का ही नतीजा था कि जांच को सीबीआई जैसी स्वतंत्र एजेंसी को सौंपे जाने की मांग ने जनसमर्थन प्राप्त किया।

अनिल जोशी का सहयोग: संघर्ष की रीढ़?मैं विशेष रूप से अपने साथी अनिल जोशी का उल्लेख करना चाहता हूं, जो न केवल उत्तराखंड के पलायन और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर सक्रिय रहे, बल्कि अंकिता भंडारी को न्याय दिलाने की इस लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर चले। उनके नेतृत्व में हमने देहरादून से लेकर रुद्रपुर, खटीमा, किच्छा, हल्द्वानी, हरिद्वार तक संवाद यात्राएं कीं, ग्रामीणों को जोड़ा और युवाओं को न्याय की लड़ाई के लिए संगठित किया।

आज का फैसला: आधा न्याय, अधूरी सजा?आज जबकि इस हत्याकांड में कुछ गुनहगारों को सजा सुना दी गई है, हमें यह समझने की ज़रूरत है कि यह केवल एक आंशिक विजय है। जिन वीआईपी नामों की चर्चा जनता करती रही — वे अभी भी अंधकार में हैं। यह अदालती फैसला भले ही हमारी संघर्षगाथा की पुष्टि करता है, लेकिन यह उस अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुंचा है जहां जनता को लगे कि पूरा सच सामने आ चुका है।

संघर्ष की मशाल अभी बुझी नहीं है?उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद यह स्पष्ट करती है कि जब तक अंकिता भंडारी के असली कातिलों को सजा नहीं मिलती, जब तक सत्ता में बैठे साजिशकर्ता बेनकाब नहीं होते, जब तक पत्रकारिता को सुरक्षित और स्वतंत्र नहीं बनाया जाता — तब तक हमारी लड़ाई जारी रहेगी।

हमारा संघर्ष केवल अंकिता भंडारी के लिए नहीं है, बल्कि हर उस युवा, हर उस ईमानदार आवाज़ के लिए है जिसे इस देश और प्रदेश में दबाया जा रहा है। हम गांधी की धरती से यही संदेश देना चाहते हैं — “सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं!”

लेखक परिचय:अवतार सिंह बिष्ट, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद के अध्यक्ष हैं और लंबे समय से राज्य में जनसंवेदना से जुड़े मुद्दों पर संघर्ष कर रहे हैं। वे पत्रकारिता, युवाओं के अधिकार, और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के लिए प्रतिबद्ध स्वर हैं।



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