संपादकीय ,टीआरपी की होड़ में बेमर्याद पत्रकारिता: उत्तराखंड की मूल अवधारणा से विश्वासघात” ✍️ अवतार सिंह बिष्ट (राज्य आंदोलनकारी एवं वरिष्ठ पत्रकार)

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रुद्रपुर,उत्तराखंड राज्य का निर्माण एक लंबी, भावनात्मक और बलिदानभरी लड़ाई का परिणाम था। यह राज्य उन मूल्यों पर आधारित है जिसमें लोकसंवेदनशीलता, पारदर्शिता, जनआकांक्षाओं का सम्मान और मर्यादित संवाद की परंपरा शामिल है। लेकिन आज जब हम राज्य के भीतर पत्रकारिता की गिरती साख और उसकी दिशा पर नज़र डालते हैं, तो एक गंभीर संकट उभरकर सामने आता है — टीआरपी और सनसनी की अंधी दौड़।

रुद्रपुर विधायक शिव अरोड़ा प्रकरण इसी पतनशील पत्रकारिता की एक ताजा मिसाल है।

जिस प्रकार से कुछ यथाकथित पत्रकारों ने रुद्रपुर विधायक शिव अरोड़ा के खिलाफ उकसावेभरी भाषा में वीडियो तैयार कर सोशल मीडिया पर वायरल किया, वह न केवल पत्रकारिता की गरिमा का अपमान है, बल्कि उत्तराखंड की मूल संवैधानिक और सांस्कृतिक परिकल्पना के विरुद्ध भी है।

लोकतंत्र में आलोचना का स्थान है, लेकिन संयम और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के भीतर।

रुद्रपुर विधायक शिव अरोड़ा भारतीय जनता पार्टी के ही नहीं, बल्कि पूरे रुद्रपुर क्षेत्र के लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं। उनकी छवि को धूमिल करने का यह कुत्सित प्रयास एक सोची-समझी साजिश का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसमें तथाकथित पत्रकार पहले उकसाने का काम करते हैं और फिर वायरल करके खुद को “सत्यवादी” सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। यह एक प्रायोजित पत्रकारिता मॉडल है, जो पत्रकारिता नहीं बल्कि ब्लैकमेलिंग का नया संस्करण बन चुका है।

उत्तराखंड की पत्रकारिता: मिशन से कमीशन तक का सफर

1994 के आंदोलनकारी दौर की पत्रकारिता और आज की बाजारू पत्रकारिता में जमीन-आसमान का अंतर है। उस दौर में कलम संघर्ष का औजार हुआ करती थी, आज वह सस्ते सब्सक्राइबर्स, फॉलोवर्स और रील व्यूज़ का गुलाम बन चुकी है। उत्तराखंड के रुद्रपुर, किच्छा, हल्द्वानी, देहरादून जैसे इलाकों में पत्रकारिता अब “पे-पर-पब्लिश, पे-पर-वायरल” के व्यापार में तब्दील हो गई है।

अक्सर यह देखने में आता है कि राज्य आंदोलन के बाद यहां बसे कुछ बाहरी तत्व पत्रकारिता की आड़ में न केवल सरकारी योजनाओं को डांवाडोल करते हैं, बल्कि क्षेत्रीय सौहार्द को भी क्षति पहुंचा रहे हैं। क्या ये पत्रकार वही हैं जो कभी उत्तराखंड में संघर्ष के समय मौजूद भी नहीं थे? क्या इन्हें राज्य की भावना, संस्कृति और आंदोलन की पीड़ा का तनिक भी ज्ञान है?

एक न्यायिक जांच की दरकार

उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि इस पूरे मामले की न्यायिक जांच कराए। यह स्पष्ट हो कि क्या यह प्रकरण केवल एक संयोग था या इसके पीछे एक संगठित गिरोह काम कर रहा है जो सत्ता के समीकरण बिगाड़ने के लिए पत्रकारिता का मुखौटा पहन चुका है। ऐसे पत्रकार जो राज्य के मूल उद्देश्य से हटकर टीआरपी की दुकान चला रहे हैं, उन पर कानूनी कार्रवाई आवश्यक है।

पत्रकारिता हो उत्तराखंडीयता की संवाहक, भटकाव नहीं

पत्रकारिता का कार्य समाज को आईना दिखाना है, लेकिन यदि आईना ही टूटा हो, झूठ से पटा हो, तो वह समाज को क्या दिशा देगा? उत्तराखंड को जरूरत है उस पत्रकारिता की, जो लोकहित, पारदर्शिता और जनसरोकारों को प्राथमिकता दे न कि टीआरपी और वॉट्सऐप वायरल मैसेजों को।

रुद्रपुर की जनता को भी जागरूक होना होगा — जो पत्रकार सिर्फ कैमरा लेकर आता है, वह ज़रूरी नहीं पत्रकार ही हो। हो सकता है वह सत्ता या विरोध की ठेकेदारी कर रहा हो। राज्य की अवधारणा पर हमला केवल राजनेता नहीं, ऐसे ढोंगी पत्रकार भी करते हैं जो पत्रकारिता के नाम पर अपना निजी एजेंडा साधते हैं।

यह समय उत्तराखंड में पत्रकारिता की पुनःसंरचना का है। हमें छद्म मीडिया और सच्चे संवाद के बीच फर्क करना होगा। रुद्रपुर विधायक प्रकरण जैसे उदाहरण हमें आगाह करते हैं कि अब पत्रकारिता की मर्यादा की रक्षा के लिए समाज, सरकार और स्वयं सच्चे पत्रकारों को एकजुट होना होगा। अन्यथा उत्तराखंड की यह देवभूमि “वायरल और व्यावसायिक पाखंडियों” की शरणस्थली बन जाएगी — जो राज्य के लिए एक त्रासदी होगी।



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