बेवफा सनम: प्यार, धोखा और रिश्तों की रियलिटी शो! टीवी सीरियल्स की नक़ल में समाज: इमोसनल ड्रामे से क्राइम तक

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बेवफा सनम: प्यार, धोखा और रिश्तों की रियलिटी शो
एक दौर था जब प्रेमी गंगा के घाट पर मिलते थे, मंदिर में मनौती मानते थे, और कवि दिल से शायरी लिखते थे—“तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं…”। अब का ज़माना देखिए—“तेरे बिना इंस्टाग्राम स्टोरी अधूरी लगती है”। रिश्ते अब दिल से नहीं, डेटा पैक और डिजिटल नेटवर्क से चलते हैं। और अगर सिग्नल चला गया, तो मोहब्बत भी ऑफलाइन हो जाती है।

“लव यू” का मतलब अब क्या है?आजकल “लव यू” का मतलब यह नहीं कि मैं तुझे जीवन भर निभाऊँगा। अब इसका मतलब है—”अभी के लिए तुम ठीक हो, आगे देखा जाएगा।” मोहब्बत में अब वो इरादा नहीं कि सात जन्म साथ रहेंगे, अब ये देखा जाता है कि अगला महीना किसके साथ बीतेगा।

कभी मोबाइल का पासवर्ड “लव नेहा123” होता था, अब वही पासवर्ड बदल कर “यू कैन्ट ओपन दिस” हो गया है। पहले लोग एक-दूसरे के हाथ थामते थे, अब लोग एक-दूसरे का फोन चेक करते हैं। प्रेम में शक का वायरस ऐसा घुसा है कि न एंटीवायरस काम आता है, न थाने की रिपोर्ट।

पति-पत्नी और वो…अब नारी और पुरुष दोनों ही ‘बेवफाई’ के इस प्रतियोगिता में सिर उठाकर भाग ले रहे हैं। कहीं पत्नी निकलती है ‘वेलेंटाइन डे स्पेशल फ्रेंड’ के साथ गोवा ट्रिप पर, तो कहीं पति “ऑफिस टूर” के बहाने ‘रियलिटी शो’ का हिस्सा बन जाता है।

इन रिश्तों में अब प्रेम नहीं, प्रबंधन (मैनेजमेंट) आ गया है। पत्नी को शक है कि पति के मोबाइल में ‘सोनू प्लम्बर’ असल में सपना डांसर है। और पति को पूरा विश्वास है कि ‘किटी पार्टी’ असल में टीना का बर्थडे प्लान है, जिसमें केक नहीं, केक जैसा कोई मिल गया है।

क्राइम पेट्रोल वाला इश्क़आजकल प्यार का ट्रेंड ऐसा हो गया है कि “लिव-इन” से शुरू होता है, फिर झगड़ा, फिर ब्लॉक, फिर थाने, और अंत में—“प्रेमी ने प्रेमिका की हत्या कर शव जलाया।”

जब इश्क़ में भावनाएं नहीं बचतीं, तब कोर्ट, FIR, और आत्महत्या नोट ही विकल्प रह जाते हैं। सोशल मीडिया पर प्यार जताने वाले, अब रील्स में ‘बेकाबू गुस्से’ में गोली चला देते हैं।

प्यार अब वो सौगंध नहीं रहा, जो प्रेमचंद या शरतचंद्र के पात्र निभाते थे। अब ये एक रियलिटी शो है जिसमें हर एपिसोड में नया ट्विस्ट, नई बेवफाई, और कभी-कभी कोई हत्या होती है।

बेवफाई का फेमिनिज्म और मेल इक्वलिटी अक्सर ये माना जाता है कि पुरुष ही बेवफा होते हैं, लेकिन इस नए ज़माने ने सिद्ध कर दिया है कि बेवफाई में भी अब जेंडर इक्वलिटी आ चुकी है। अब “बॉयफ्रेंड चेंज करना” एक लाइफस्टाइल स्टेटमेंट है, और “गलती से शादी कर ली” एक नया ट्रेंड।

कोई स्त्री तीन बॉयफ्रेंड्स को “बेस्ट फ्रेंड”, “राखी भाई”, और “इमोशनल सपोर्ट” कहती है। वहीं लड़के हर चैट को “ऑफिशियल” कहकर खुद को निर्दोष घोषित करते हैं। रिश्ते अब भावनाओं के नहीं, लॉजिक और लोकेशन शेयरिंग के हो गए हैं।

युवा पीढ़ी का प्यार: इंस्टाग्राम वाला अफेयर आज के युवाओं का प्यार अब ब्लूटूथ से तेज और 5G नेटवर्क से अनस्टेबल है। रिश्तों में अब “फीलिंग्स” नहीं, “रीलिंग्स” है। प्रेम का पहला कदम—फॉलो करना, दूसरा—डीएम करना, तीसरा—ब्लॉक करना। और अगर फिर से बात शुरू करनी हो तो नया अकाउंट बनाना।

सच्चा प्यार अब वीडियो कॉल पर ‘म्यूट’ रहता है और दिल की बातें ‘स्टेटस’ में मिलती हैं—“उसने भी धोखा दिया, जिसे खुदा माना था।”

और समाज…?समाज अब भी ये मानता है कि प्यार पवित्र है। लेकिन क्या सच में…? अब मोहब्बत की परिभाषा बदल चुकी है। रिश्ते टिकते हैं जब तक नेटफ्लिक्स पासवर्ड एक हो, और टूटते हैं जब OTP अलग-अलग आ जाएं।

लोग शादी करते हैं, फिर कोर्ट जाते हैं, फिर सोशल मीडिया पर “स्ट्रॉन्ग वुमन” या “सिंघम डैड” बन जाते हैं। बच्चों के हाथों में मोबाइल और मन में भ्रम रह जाता है—माँ सही थी या पापा?

अवतार सिंह बिष्ट;मोहब्बत चाहिए या मज़ाक?इस लेख का मकसद किसी जेंडर को दोष देना नहीं है, बल्कि उस ‘प्यार’ की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश करना है, जो अब भावना नहीं, ट्रेंड बन चुका है। मोहब्बत में अगर सच्चाई, संवाद और सम्मान न हो, तो वो महज एक ‘इवेंट’ है—जो कभी ‘वैलेंटाइन डे’ पर मनाया जाता है, और कभी पुलिस स्टेशन में दर्ज होता है।

अगर बेवफाई ही आदत बन जाए, तो मोहब्बत पर व्यंग्य लिखना ही पत्रकार का धर्म बन जाता है।

टीवी सीरियल्स की नक़ल में समाज: इमोसनल ड्रामे से क्राइम तक

कभी टीवी को “परिवार का सदस्य” कहा जाता था, लेकिन अब यह सदस्य हर घर में षड्यंत्र, बेवफाई और भावनात्मक ब्लैकमेल का प्रशिक्षण केंद्र बन चुका है। पहले घरों में बहू टीवी सीरियल देखती थी, अब वही बहू ‘सीरियल बहू’ बनकर घर के ही किसी सदस्य के खिलाफ साजिश रचती दिख रही है। और समाज…? वह धीरे-धीरे धारावाहिक की स्क्रिप्ट पर जीने लगा है।

जब समाज ने टीवी सीरियल का स्क्रीनप्ले पकड़ लिया

टीवी सीरियल की कहानी अब महज टीवी तक सीमित नहीं रही। अब कहीं पत्नी प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या करती है, कहीं सास बहू की जासूसी कर रही है, तो कहीं दुल्हन शादी से पहले ही होने वाले दामाद के साथ फरार हो रही है।

ये घटनाएँ अब अख़बार की सुर्खियाँ बन चुकी हैं—“शादी से पहले भागी लड़की, साथ ले गई होने वाला दामाद”, “प्रेमी संग मिलकर पति की हत्या, शव जलाया” या “सास ने बहू को ज़हर देकर मार डाला, खुद को बताया निर्दोष”। क्या ये सीरियल की स्क्रिप्ट है? नहीं, ये हमारे समाज की नई हकीकत है।

‘सास-बहू’ से ‘क्राइम-थ्रिलर’ तक आजकल सीरियल एक्शन-थ्रिलर कम, और अपराध के लिए इंस्पिरेशन ज़्यादा बनते जा रहे हैं। कोई लड़की “नागिन” की तरह हर जन्म का बदला लेने निकल पड़ी है, तो कोई लड़का “अनुपमा” का ‘वनराज’ बनने की कोशिश में दो-दो ज़िंदगियाँ जी रहा है। समाज में अब हर तीसरा व्यक्ति या तो टीवी देख-देखकर डायलॉगबाज़ बन चुका है या रियल लाइफ में विलेन।

कभी टीवी सीरियल में दिखने वाले ‘तीखे कटाक्ष’ और ‘संभावनाओं से भरे एक्सप्रेशन्स’ अब असल जीवन की बहसों और झगड़ों का हिस्सा बन चुके हैं। लोग असलियत में भी उसी नाटकीयता से बोलते हैं, मानो बैकग्राउंड म्यूजिक बजने वाला हो।

सीरियल्स में ‘कांड’ और समाज में ‘ट्रेंड’

सीरियल में बहू रोज़ साजिश रचती है, असली माँ और नकली माँ की लड़ाई होती है, पति दो घरों में बँट जाता है। अब ये सब समाज में भी कॉपी-पेस्ट होने लगा है। लोग अब रिश्तों में ईमानदारी नहीं, ट्विस्ट चाहते हैं।

बहू अब सास की जासूसी करती है, बेटा अपने ही पिता के खिलाफ खड़ा हो जाता है, और किशोरियाँ सोचती हैं कि अगर उन्हें प्यार में धोखा मिला है, तो एक ‘बदला लेने वाली’ कहानी शुरू होनी चाहिए।

और अब तो लड़कियाँ अपने ही मंगेतर के साथ भाग जाने लगी हैं—मानो कोई नई वेब सीरीज़ लॉंच हो रही हो—“ससुराल से पहले ससुराल”

भावनात्मक मनोरंजन या नैतिक पतन?

धारावाहिकों की कहानी में इतने फ्लैशबैक, टाइमलूप और पुनर्जन्म हैं कि दर्शक खुद को कहीं न कहीं पात्रों से जोड़ लेते हैं। लेकिन जब ये जुड़ाव इतना गहरा हो जाता है कि लोग उन्हीं की तरह सोचने, बोलने और करने लगते हैं—तब समस्या जन्म लेती है।

आज के धारावाहिकों में न प्रेम की गहराई है, न रिश्तों की गरिमा। हर पात्र या तो बदला ले रहा है, या धोखा दे रहा है। और समाज इसे एंटरटेनमेंट नहीं, एजुकेशन मान बैठा है।

टीवी में नायक चाहिए, समाज में नीति समाज अगर धारावाहिकों की तरह चलने लगे तो हर घर अदालत और हर मोहल्ला ‘क्राइम सीन’ बन जाएगा। टीवी को सिर्फ मनोरंजन रहने दीजिए। हर पलटने वाला कंगन, हर संदेह करने वाली सास, और हर भूतपूर्व प्रेमी को असल जीवन में उतारना बंद कीजिए।

समाज को ‘अनुपमा’ की आत्मनिर्भरता चाहिए, लेकिन ‘वनराज’ की चालाकी नहीं। हमें ‘महाभारत’ का धर्म चाहिए, लेकिन ‘कुंडली भाग्य’ का षड्यंत्र नहीं।

टीवी पर ‘क्लाइमैक्स’ अच्छा लगता है, लेकिन असल ज़िंदगी में ‘सद्भाव’ ज़रूरी है।


(लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, संपादकीय स्तंभकार)


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