नेपाल में खून और आग का तांडव : लोकतंत्र के भविष्य पर उठते सवाल

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नेपाल इस समय जिस दौर से गुजर रहा है, वह न सिर्फ उसकी राजनीति बल्कि उसके समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी गहरी चिंता का विषय है। बीते दिनों राजधानी काठमांडू से लेकर अन्य जिलों तक फैले हिंसक प्रदर्शनों और झड़पों ने पूरे राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया है। मुख्य सचिव एक नारायण अर्याल की रिपोर्ट बताती है कि अब तक 72 लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें 59 प्रदर्शनकारी, 10 जेल से भागे कैदी और 3 पुलिसकर्मी शामिल हैं। वहीं अस्पतालों में 191 लोग अब भी इलाज करा रहे हैं। सबसे भयावह तस्वीर तब सामने आई जब काठमांडू के भाटभटेनी सुपरमार्केट के पास से 6 जले हुए शव बरामद हुए। इनमें 4 पुरुष और 2 महिलाएं थीं। यह सिर्फ मौतों की गिनती नहीं है, बल्कि नेपाल की सड़कों पर लोकतंत्र के चरमराते विश्वास का प्रतीक है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

घटनाओं का सिलसिला और बढ़ता आक्रोश

8 सितंबर से शुरू हुए जेन-ज़ी आंदोलन ने शुरू में एक शांतिपूर्ण विरोध का रूप लिया था। युवाओं की मांगें सीधी और स्पष्ट थीं—रोजगार, शिक्षा और पारदर्शिता। लेकिन धीरे-धीरे यह विरोध हिंसक झड़पों में बदल गया। पुलिस की कठोरता, गोलीबारी और लाठीचार्ज ने आग में घी डालने का काम किया। प्रदर्शनकारियों ने भी आगजनी, तोड़फोड़ और पथराव का रास्ता अपनाया। नतीजा यह हुआ कि सड़कों पर अराजकता और खूनखराबे का माहौल बन गया।

मुख्य सचिव की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में नहीं है। यह भी बताया गया कि 1000 से अधिक लोग इलाज के बाद अस्पताल से डिस्चार्ज हो चुके हैं। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों?

असली जड़ें : राजनीति का संकट और युवाओं की बेचैनी

नेपाल लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। राजतंत्र से गणतंत्र बनने के बाद जनता ने उम्मीद की थी कि लोकतंत्र उन्हें न्याय, समान अवसर और स्थिर शासन देगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा—लगातार सरकारें गिरती-बनती रहीं, राजनीतिक दल सत्ता समीकरण में उलझे रहे और जनता की बुनियादी समस्याएं जस की तस रहीं।

युवाओं की स्थिति सबसे खराब है। बेरोजगारी, शिक्षा की गुणवत्ता की कमी और अवसरों का अभाव उन्हें हताश कर रहा है। यही कारण है कि जेन-ज़ी आंदोलन तेजी से फैला। सोशल मीडिया ने इसमें ईंधन का काम किया। लेकिन जब उनकी आवाज़ दबाई गई तो विरोध हिंसक हो गया।

लोकतंत्र का काला चेहरा

लोकतंत्र की असली परीक्षा संकट के समय होती है। नेपाल में जो हुआ, उसने यह दिखा दिया कि अभी भी लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हैं। जब प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलीं और पुलिसकर्मी भी मारे गए, तो यह साफ हो गया कि दोनों पक्षों ने संयम खो दिया था।

लोकतंत्र की असली ताकत संवाद, सहमति और धैर्य में है, न कि लाठी और गोलियों में। अगर राज्य अपनी जनता से डरने लगे और जनता राज्य पर भरोसा खो दे, तो यह लोकतंत्र की हार है।

सुशीला कार्की की चुनौती

अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की के लिए यह एक अग्निपरीक्षा है। नेपाल की पहली महिला अंतरिम प्रधानमंत्री और पूर्व मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उनकी छवि ईमानदार और सख्त रही है। लेकिन राजनीति की जटिलता न्यायपालिका से कहीं ज्यादा कठिन है।

उनके सामने तीन बड़ी चुनौतियां हैं—

  1. जनता का विश्वास फिर से बहाल करना।
  2. हिंसा पर रोक लगाना और कानून-व्यवस्था को सामान्य करना।
  3. सभी दलों को साथ लेकर स्थिर राजनीतिक समाधान खोजना।

अगर वे इस मोर्चे पर सफल होती हैं तो इतिहास उन्हें नेपाल की लोकतांत्रिक यात्रा की महत्वपूर्ण नेता के रूप में याद रखेगा।

अतीत से सबक

नेपाल के इतिहास में जनता ने दो बड़े जनआंदोलन किए—1990 और 2006। दोनों आंदोलनों में जनता ने शांतिपूर्ण विरोध के जरिए राजतंत्र और अधिनायकवाद को चुनौती दी थी। लेकिन मौजूदा आंदोलन का स्वरूप अलग है। यहां युवाओं की नाराजगी और डिजिटल युग का आक्रोश है। यह बताता है कि अब नेपाली समाज पारंपरिक राजनीति की सीमाओं को नहीं मानता।

अंतरराष्ट्रीय असर

नेपाल की अस्थिरता सिर्फ उसकी अपनी समस्या नहीं है। भारत और चीन जैसे पड़ोसी देशों के लिए भी यह चिंता का विषय है। भारत के लिए नेपाल एक रणनीतिक साझेदार है, जिसकी सीमाएं और सांस्कृतिक रिश्ते गहरे हैं। वहीं चीन नेपाल में लगातार प्रभाव बढ़ा रहा है। अगर हिंसा बढ़ती रही तो नेपाल विदेशी शक्तियों के लिए संघर्ष का मैदान बन सकता है।

आगे का रास्ता

नेपाल के सामने अब विकल्प साफ है—

  • हिंसा और टकराव छोड़कर संवाद और सहमति की राह चुनना।
  • युवाओं को अवसर देना और बेरोजगारी खत्म करना।
  • पुलिस और प्रशासन में सुधार लाना ताकि जनता का भरोसा लौटे।
  • सभी राजनीतिक दलों को मिलकर स्थायी समाधान निकालना।

72 शव और हजारों घायल केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र की चेतावनी हैं। यह दिखाते हैं कि अगर राज्य और जनता के बीच विश्वास का पुल टूट जाए, तो नतीजा कितना भयानक हो सकता है। नेपाल आज जिस मोड़ पर खड़ा है, वहां से या तो वह एक मजबूत लोकतंत्र की ओर बढ़ सकता है या फिर अराजकता के दलदल में फंस सकता है।

सुशीला कार्की और नेपाली समाज दोनों को यह तय करना होगा कि वे इतिहास में कौन सा रास्ता चुनना चाहते हैं। अगर हिंसा और आग ही राजनीति की भाषा रही, तो आने वाली पीढ़ियां इसे नेपाल का काला अध्याय कहकर याद करेंगी। लेकिन अगर संवाद, न्याय और सहिष्णुता को चुना गया, तो यही संकट नेपाल को और मजबूत बनाने की नींव रखेगा।


✍️ संपादकीय टीम
शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स



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