रुद्रपुर, उत्तराखंड यह मुद्दा केवल एक पुल की दरार का नहीं, बल्कि व्यवस्था में घुसे उस दीमक का है जो जनता के टैक्स से बने ढांचे को चाट जाता है। 5 साल पहले बना किच्छा रोड का यह पुल अब टूटने की कगार पर है, जबकि इसके ठीक बगल में खड़ा 40–50 साल पुराना पुल आज भी मजबूती से वाहनों का भार उठा रहा है। यह सीधी-सीधी गवाही है कि यहां निर्माण गुणवत्ता के साथ समझौता और भ्रष्टाचार का खेल हुआ है।✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर



पूर्व विधायक राजकुमार ठुकराल मौके पर पहुंचे, दरारें अपनी आंखों से देखीं और कड़े शब्दों में नाराज़गी जताई। उन्होंने आरोप लगाया कि जनता के पैसों को लूटने का यह खुला उदाहरण है। वहीं, रुद्रपुर उद्योग व्यापार मंडल के अध्यक्ष संजय जुनेजा सहित कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने भी इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सोशल मीडिया पर विरोध दर्ज कराया।
लेकिन सवाल है — क्या यह आवाज़ केवल सोशल मीडिया तक सीमित रह जाएगी, या सरकार के कानों तक पहुंचेगी?
रुद्रपुर से उठ रही यह आक्रोश की लहर अब उधम सिंह नगर और फिर पूरे उत्तराखंड में फैल सकती है। जनता का गुस्सा कोई मामूली नहीं है, क्योंकि यह पुल सिर्फ़ सीमेंट-गिट्टी का नहीं था, बल्कि इसमें जनता का विश्वास भी जुड़ा था — और वह टूट रहा है।
यदि सरकार और संबंधित विभाग इस मामले में कड़ी कार्रवाई नहीं करते, और दोषी इंजीनियरों, ठेकेदारों व अधिकारियों की पहचान कर उनकी संपत्ति से भरपाई नहीं करवाते, तो यह चिंगारी बड़ा आंदोलन बन सकती है। भ्रष्टाचारियों को बचाने की कोशिश किसी भी सत्ता के लिए आत्मघाती होगी।
यह मामला अब एक टेस्ट केस है —
- क्या जनता की गाढ़ी कमाई के साथ खिलवाड़ करने वालों को जेल भेजा जाएगा?
- क्या दोषियों की संपत्ति ज़ब्त कर जनता को न्याय मिलेगा?
- या फिर यह भी कई और मामलों की तरह सरकारी फाइलों में धूल फांकता रहेगा?
रुद्रपुर की जनता अब मूक दर्शक नहीं है। व्यापारी वर्ग से लेकर आम लोग तक यह मान चुके हैं कि यह पुल “भ्रष्टाचार का पुल” है, और अगर अब भी कार्रवाई नहीं हुई तो यह मुद्दा केवल निर्माण गुणवत्ता का नहीं, सरकार की नीयत का मुद्दा बन जाएगा।
यह सिर्फ़ पुल की दरार की खबर नहीं, बल्कि जनता के सब्र की दरार की कहानी है।
रुद्रपुर में किच्छा रोड पर श्मशान घाट से पहले बना यह 5 साल पुराना पुल दोपहर से ही खतरे की घंटी बजा रहा था। पुलिया में पड़ी दरार ने लोगों को झकझोर दिया। जैसे ही खबर सोशल मीडिया पर वायरल हुई, रुद्रपुर का आम जनमानस खुद मोर्चा संभालने मैदान में उतर आया।
स्थानीय लोगों ने बिना समय गंवाए, सड़क पर पत्थर रखकर वाहनों को दूसरी ओर मोड़ना शुरू कर दिया, ताकि कोई हादसा न हो। यह नज़ारा किसी प्रशासनिक “मॉनिटरिंग” का नहीं, बल्कि जनता की अपनी सजगता और जिम्मेदारी का था।
विडंबना देखिए — घंटों गुजर गए, सोशल मीडिया में खबर जंगल की आग की तरह फैल गई, लेकिन जिम्मेदार अधिकारी मौके पर पहुंचने की ज़हमत तक नहीं उठा पाए।
यह वही पुल है जो महज़ 5 साल पहले लाखों के बजट में बना था, और आज अपनी नाजुक हालत में निर्माण गुणवत्ता, ठेकेदारी और विभागीय निगरानी की पोल खोल रहा है। इसके बगल में खड़ा 40–50 साल पुराना पुल अब भी मजबूती से खड़ा है, जो साबित करता है कि आज के ठेकेदार और इंजीनियर पुराने समय के ईमान और तकनीक के सामने कहीं नहीं टिकते।
यह घटना एक गंभीर सवाल छोड़ती है —
क्या जनता को हर बार अपनी सुरक्षा खुद सुनिश्चित करनी पड़ेगी?
क्या अधिकारी और विभाग केवल फाइलों में काम करेंगे, मैदान में नहीं उतरेंगे?
क्या जनता का टैक्स हर 5 साल में ढहने वाले ढांचों पर ही खर्च होता रहेगा?
रुद्रपुर का व्यापारी वर्ग, सामाजिक संगठन और आम लोग अब खुलकर कह रहे हैं — इस पुल की मरम्मत का खर्च जनता नहीं, बल्कि दोषियों की जेब से निकले।
अगर यह मांग नहीं मानी गई, तो यह पुल सिर्फ़ सीमेंट का नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का प्रतीक बन सकता है।

