
रुद्रपुर का दरिया नगर इन दिनों फिर एक बार सुर्खियों में है। यह वही इलाका है जहाँ लगभग 40 साल पहले सैकड़ों परिवारों ने रोडवेज की भूमि पर अपने आशियाने बसाए थे—कुछ मजबूरी में, कुछ अनजाने में, तो कुछ प्रशासन की मौन सहमति से। अब उसी भूमि पर ‘एसआईबीटी मॉल’ (जिसे झूठे नाम से प्रचारित किया जा रहा है) के निर्माण के नाम पर बुलडोज़र चलाया जा रहा है। यह न केवल मानवता के खिलाफ़ एक निर्मम कार्रवाई है बल्कि राज्य सरकार और नौकरशाही के दोगले चरित्र की पोल भी खोलता है।


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
अतिक्रमण: अपराध या प्रशासनिक लाचारी का नतीजा?अतिक्रमण पर कानूनन कोई दो राय नहीं हो सकती। सरकारी ज़मीन किसी की निजी संपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन जब वही सरकार दशकों तक चुप्पी साधे रखती है, लोगों को पानी, बिजली, राशन कार्ड, वोटर आईडी, आधार, यहां तक कि हाउस टैक्स के दस्तावेज़ तक दे देती है—तो क्या वह अतिक्रमण नहीं, बल्कि वैधता का संकेत नहीं बन जाती? दरिया नगर की गलियों में जन्मे बच्चे आज बालिग़ हो चुके हैं और उसी मिट्टी में उनकी जड़ें हैं। क्या बुलडोज़र चलाकर इन जड़ों को काट देना ही एकमात्र उपाय है?
विकास बनाम विनाश की कहानी: SIBT मॉल का मामला,रुद्रपुर रोडवेज विस्तार के नाम पर एक तथाकथित “ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट” सामने लाया गया, जिसमें दरअसल एक मल्टीप्लेक्स मॉल का निर्माण हो रहा है। ‘SIBT’ नाम की आड़ में, निजी कंपनियों और ब्यूरोक्रेसी की मिलीभगत से एक ऐसा मॉल आकार ले रहा है, जिसमें जनता के हित नहीं, पूंजीपतियों का लाभ छिपा है। सवाल यह है कि क्या जनता के आशियानों को उजाड़कर मॉल बनाना ही “विकास” है?
गरीबों पर बुलडोज़र, अमीरों पर चुप्पी: दोहरी नीति की पोल
उत्तराखंड में विशेषकर रुद्रपुर में बुलडोज़र नीति का चेहरा स्पष्ट दिखाई देता है। एक ओर दरिया नगर जैसे इलाकों में मजदूर, रेहड़ी-पटरी वाले, छोटे व्यापारी वर्षों से रह रहे हैं, दूसरी ओर सरकारी नजरुल भूमि पर मॉल, होटल, रिजॉर्ट, आलीशान कोठियां बना ली गईं और किसी पर एक नोटिस तक जारी नहीं हुआ। यह कैसा न्याय है जहाँ छोटी मछलियों को निगला जा रहा है और बड़ी मगरमच्छों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है?
बुलडोजर और मज़ार: सांप्रदायिक रंग भी है?रुद्रपुर में हाल ही में 100 साल पुरानी एक मज़ार पर बुलडोज़र की कार्रवाई हुई। भले ही यह कानूनी आधार पर हो, लेकिन समाज में यह संदेश गया कि विशेष समुदाय को टारगेट किया जा रहा है। जब अवैध मंदिरों, गुरुद्वारों या अन्य धार्मिक निर्माणों पर प्रशासन की चुप्पी बनी रहती है, और केवल मज़ारों पर कार्रवाई होती है, तो प्रशासन की निष्पक्षता सवालों के घेरे में आती है।
किसका अतिक्रमण ज्यादा घातक?
असली सवाल यह नहीं कि अतिक्रमण गलत है या सही—बल्कि यह है कि सबसे घातक अतिक्रमण कौन कर रहा है?
- क्या वो मजदूर जो 40 साल पहले एक खाली सरकारी ज़मीन पर एक कमरा बनाकर बच्चों को पाल रहा है?
- या वो नौकरशाह, जिसने नियमों को तोड़कर टाउनशिप, फार्महाउस और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खड़ा कर लिया है?
राज्य बनने के बाद लाखों हेक्टेयर भूमि पूंजीपतियों और राजनैतिक संरक्षकों के हवाले हुई। उस पर कोई कार्रवाई नहीं—बल्कि वहां न केवल कब्ज़ा मान्य हुआ, बल्कि रजिस्ट्री भी कर दी गई।
जब सरकार ही विरोधाभास बन जाए,मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार एक ओर अतिक्रमण मुक्त उत्तराखंड का नारा देती है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक संरक्षण में बड़े-बड़े अतिक्रमणों को वैध करने का खेल चलता रहता है। उत्तराखंड बनने के बाद कई राजनीतिक परिवारों ने भू-माफिया की भूमिका निभाई। क्या वे आज भी सरकारी मंचों पर जननायक बनकर नहीं घूम रहे?
स्मार्ट सिटी” की आड़ में “स्मार्ट अतिक्रमण”x
रुद्रपुर को स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर जिन क्षेत्रों को चुना गया, उनमें बारीकी से देखा जाए तो व्यावसायिक मुनाफे की संभावनाएं सबसे अधिक थीं। दरिया नगर, ट्रांजिट कैंप, शिवनगर, आजाद नगर जैसे बस्तियों पर बुलडोज़र चलाना आसान है क्योंकि ये लोग गरीब हैं, असंगठित हैं, और न्यायालयों में महंगे वकील नहीं रख सकते। लेकिन उन फार्म हाउसों, रेजिडेंशियल स्कीमों, और रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स पर एक सवाल भी नहीं उठता।
क्या ‘विकास’ का मतलब विस्थापन ही है?हर बार विकास का मतलब क्यों बनता है—“ग़रीबों को हटाओ, अमीरों को बसाओ”? दरिया नगर को उजाड़कर बनाया गया मॉल क्या वही रोज़गार देगा जो वहां के लोगों को छिन गया? क्या उन परिवारों को मुआवजा मिला, पुनर्वास योजना दी गई, वैकल्पिक आवास मिला?
मीडिया की भूमिका और चुप्पी
स्थानीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग सिर्फ सरकारी प्रेस रिलीज छापने तक सीमित हो चुका है। बुलडोज़र चलने की खबरें तो छपती हैं, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि, विरोधाभास, और असल लाभार्थी कौन है—यह कोई नहीं बताता। न ही इस बात की पड़ताल होती है कि दरिया नगर जैसे मोहल्ले में कितने लोगों ने सरकारी टैक्स चुकाए, मतदाता सूची में नाम हैं, कितने बार सरकार को ज्ञापन दिए गए।
न्याय की उम्मीद और जनता की लड़ाई,अब समय आ गया है कि जनता एकजुट होकर यह सवाल उठाए—बुलडोजर सिर्फ कमजोरों पर क्यों? अगर अतिक्रमण हटाना ही है, तो सबसे ऊपर से शुरुआत हो। न्याय तभी सच्चा है जब वह सबके लिए समान हो—न कि सिर्फ गरीबों के लिए कठोर और अमीरों के लिए मौन।
बुलडोजर को न्याय का प्रतीक नहीं बनने दिया जा सकता
रुद्रपुर ही नहीं, पूरे उत्तराखंड में अतिक्रमण के नाम पर एक नयी राजनीति चल रही है। यह राजनीति गरीबों को कुचलने, और पूंजीपतियों को बसाने की है। हमें यह तय करना होगा कि हम किस तरह के “विकास” की तरफ जा रहे हैं। अगर हमारी संवेदनाएं मॉल बनाने की आड़ में उजड़े हुए घरों के लिए नहीं जागतीं, तो आने वाला कल और भी डरावना होगा।
