
उत्तराखंड की शांत वादियों में कभी न मिटने वाला एक दर्द 20 नवंबर 2014 को जन्मा था। पिथौरागढ़ की नन्ही कशिश के साथ हुई दरिंदगी ने न केवल एक परिवार की खुशियाँ छीन लीं, बल्कि पूरे समाज की अंतरात्मा को झकझोर दिया। हल्द्वानी में एक विवाह समारोह से लापता हुई यह मासूम बच्ची छह दिन बाद गौला नदी के किनारे मृत पाई गई। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि उसके साथ दुष्कर्म हुआ और फिर उसकी हत्या कर दी गई। यह घटना उस समय के लिए ही नहीं, बल्कि आज भी हर माँ-बाप के दिल में खौफ की गहरी लकीर खींच जाती है।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
निचली अदालत और उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल ने इस मामले को गंभीर अपराध मानते हुए मुख्य अभियुक्त अख्तर अली को मृत्युदंड की सजा सुनाई। यह फैसला समाज के लिए आश्वस्ति का प्रतीक था कि दरिंदों को बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्त को बरी करने का निर्णय न्याय व्यवस्था पर गहरे प्रश्न खड़े करता है। क्या वर्षों तक चली जांच, सुनवाई और फैसले सब व्यर्थ हो गए? क्या एक मासूम की करुण पुकार अब केवल केस फाइलों और अदालती बहसों तक सीमित रह जाएगी?
राज्य सरकार ने अब इस मामले में रिव्यू पिटीशन दाखिल करने का निर्णय लिया है। यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन इसके साथ यह कटु सत्य भी है कि अगर पहले से ही संवेदनशीलता और मजबूती से पैरवी की गई होती, तो शायद आज न्याय की लड़ाई इतनी कठिन न बनती।
आज सवाल सिर्फ कानूनी तकनीकी पहलुओं का नहीं है, बल्कि समाज के विश्वास का है। हर माँ अब यह सोचकर कांप रही है कि उसकी बेटी भी कहीं इंसाफ से वंचित न रह जाए। हर पिता अपनी बच्ची को देख भयभीत है कि कहीं कोई दरिंदा उसकी मासूमियत को न कुचल दे। यह मामला केवल कशिश का नहीं, बल्कि उत्तराखंड की हर बेटी का है।
न्यायपालिका की मर्यादा और स्वतंत्रता सर्वोच्च है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि न्याय केवल किताबों और धाराओं में सीमित नहीं होना चाहिए। जब समाज यह महसूस करने लगे कि कानून अपराधियों का सहायक और पीड़ित का शत्रु बन रहा है, तो लोगों का विश्वास डगमगाना स्वाभाविक है। अदालतें केवल फैसले न सुनाएँ, बल्कि यह सुनिश्चित करें कि फैसले इंसाफ की गूंज बनें।
आज देहरादून की सड़कों पर उठते कैंडल मार्च, न्याय की मांग करती भीड़ और “बेटी हम शर्मिंदा हैं” जैसे नारे यह बता रहे हैं कि उत्तराखंड का जनमानस मौन नहीं रहेगा। यह सिर्फ एक परिवार की लड़ाई नहीं, बल्कि हर उस इंसान की लड़ाई है जो न्याय, संवेदना और इंसानियत पर विश्वास करता है।
सरकार को चाहिए कि वह इस रिव्यू पिटीशन की पैरवी केवल औपचारिकता न समझे, बल्कि इसे प्रदेश की अस्मिता और विश्वास की लड़ाई माने। समाज को भी चाहिए कि वह इस मामले को भूलने न दे, क्योंकि हर बार भूलना ही अपराधियों की सबसे बड़ी जीत होती है।
न्याय में देरी और खामियों का खामियाजा हमेशा पीड़ित और समाज को ही भुगतना पड़ता है। आज जरूरत है कि हम सब मिलकर यह संदेश दें—
“कशिश अकेली नहीं है, उत्तराखंड की हर बेटी उसके साथ है। और जब तक न्याय नहीं मिलेगा, यह आवाज दबने नहीं दी जाएगी।”

