जिला पंचायत चुनाव: जीत का जश्न, लोकतंत्र का अपमान ।✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

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उत्तराखंड के जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारी राजनीति में जीत सब कुछ है — तरीका चाहे कुछ भी हो। भाजपा ने 12 में से 10 सीटों पर कब्ज़ा जमाकर सत्ता का झंडा फहरा दिया, कांग्रेस के हिस्से सिर्फ देहरादून की सीट आई। सतही तौर पर इसे भाजपा की बड़ी जीत कहा जा सकता है, लेकिन अगर आप नैनीताल की घटनाओं पर नज़र डालें तो यह जीत लोकतांत्रिक मूल्यों की कब्र पर खड़े होकर मनाया गया जश्न लगती है।

नैनीताल: लोकतंत्र का अपहरण

नैनीताल का दृश्य किसी चुनाव का नहीं, बल्कि किसी अपराध कथा का था। आरोप है कि हथियारबंद लोग कांग्रेस के पांच सदस्यों को उठा ले गए, विरोध करने पर नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य, उपनेता प्रतिपक्ष भुवन कापड़ी और विधायक सुमित हृदयेश से मारपीट हुई।
यह सिर्फ कांग्रेस बनाम भाजपा की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह संदेश था कि “जिसके पास ताकत है, वही नियम लिखेगा।” और ताकत केवल वोट की नहीं, बल्कि बाहुबल और रसूख की भी।

निर्विरोध जीत — लोकतांत्रिक सहमति या राजनीतिक सफाई?

भाजपा ने पांच सीटें पहले ही निर्विरोध जीत ली थीं — उत्तरकाशी, टिहरी, उधम सिंह नगर, चंपावत, पिथौरागढ़। लेकिन सवाल यह है कि ये निर्विरोध जीतें कैसे मिलीं? क्या विपक्ष ने हार मान ली, या विपक्ष को मैदान से हटने पर मजबूर किया गया? लोकतंत्र में निर्विरोध जीत सम्मान की बात है, लेकिन जब यह दबाव, डर या तिकड़म से हासिल हो, तो यह लोकतंत्र की मौत का प्रमाण बन जाता है।

चुनाव आयोग और प्रशासन — मूक दर्शक

नैनीताल में देर रात तक नतीजे न आना, अपहृत सदस्यों का पुलिस को न मिलना, और अंततः कोर्ट की अनुमति से दोबारा मतदान का फैसला — यह सब दिखाता है कि प्रशासन और चुनाव आयोग न तो स्वतंत्र हैं, न ही निर्णायक। वे केवल सत्ता की छाया में खड़े “मूक दर्शक” हैं, जो कानून की किताब में लोकतंत्र ढूंढते रहते हैं, जबकि मैदान में लोकतंत्र को पीटा जा रहा होता है।

कांग्रेस भी निर्दोष नहीं

देहरादून की सीट कांग्रेस ने छीनकर जरूर मनोबल बढ़ाया, लेकिन यह मत भूलिए कि जहां उन्हें सत्ता का मौका मिलता है, वहां वे भी वही खेल खेलते हैं। नैतिकता और ईमानदारी किसी दल की स्थायी विचारधारा नहीं, बल्कि विपक्ष में रहने तक की मजबूरी है।

जनता के लिए कड़वा सच

अगर पंचायत स्तर पर भी अपहरण, मारपीट और अदालती दखल की जरूरत पड़ने लगे, तो मान लीजिए कि आपकी “ग्राम सभा” अब गांव वालों की नहीं रही, बल्कि यह भी वही राजनीतिक माफिया संस्कृति का हिस्सा बन गई है, जो दिल्ली और देहरादून में देखी जाती है।
अब यह जनता के लिए तय करने का समय है कि वह केवल झंडे और नारों में उलझी रहेगी, या फिर इस गंदे खेल में बदलाव लाने की जिम्मेदारी खुद लेगी।

भाजपा की यह जीत चुनावी रणनीति की मिसाल हो सकती है, लेकिन नैनीताल जैसी घटनाएं लोकतंत्र के चेहरे पर तमाचा हैं। सत्ता और विपक्ष दोनों को याद रखना चाहिए — कुर्सियां बदल सकती हैं, लेकिन एक बार अगर जनता का विश्वास टूट गया, तो उसका मलबा उठाने की ताकत किसी के पास नहीं होगी।




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