बादल फटने की त्रासदी और उत्तराखंड का जलवायु संकट?अरब सागर से उठती आफत की लहरें?जलवायु परिवर्तन और पहाड़ की संवेदनशीलताजलवायु परिवर्तन और पहाड़ की संवेदनशीलता

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उत्तराखंड एक बार फिर वैज्ञानिकों के शोधपत्रों में “जलवायु परिवर्तन के हॉटस्पॉट” के रूप में चिन्हित हुआ है। दून विवि, वाडिया इंस्टिट्यूट, दिल्ली विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ जियोमैग्नेटिज्म, और मौसम विभाग के विशेषज्ञों ने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, वे केवल अकादमिक चेतावनी भर नहीं हैं, बल्कि हमारी नियति के बदलते स्वरूप का आईना हैं।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)

1982 से 2020 तक के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में वर्षा और तापमान का पैटर्न अब रैखिक नहीं रहा। कभी पूर्वी जिलों में बारिश बढ़ती है, तो कभी पश्चिमी जिलों में। 2010 के बाद से तो चरम मौसमीय घटनाओं में अचानक वृद्धि दर्ज हुई है। खासतौर पर मेन सेंट्रल थ्रस्ट क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं। यह संयोग नहीं, बल्कि पर्यावरणीय असंतुलन का प्रत्यक्ष परिणाम है।

अरब सागर से उठती आफत की लहरें

वैज्ञानिक स्पष्ट कर चुके हैं कि अरब सागर से उठने वाली दक्षिण-पश्चिमी नमी जब पश्चिमी हिमालय से टकराती है, तो इसका सबसे खतरनाक रूप “क्लाउड बर्स्ट” यानी बादल फटने के रूप में दिखता है। उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां की घाटियां और पहाड़ इस आपदा को और घातक बना देते हैं। रात्रि का तापमान ओसांक तक पहुंचने से तड़के सुबह बादल बनने और फटने की संभावना ज्यादा रहती है। यह पैटर्न अब स्थापित हो चुका है।

वर्षा के आंकड़े और असंतुलन

मानसून सीजन में जहां सामान्य वर्षा 1162.7 मिमी होती है, वहीं इस बार अगस्त तक ही 1031 मिमी दर्ज हो चुकी है—यानी औसत से 14% अधिक। जिलावार आंकड़े और भी चौंकाने वाले हैं। बागेश्वर में जहां सामान्य 618 मिमी की तुलना में 2047 मिमी से अधिक बारिश हो चुकी है, वहीं चंपावत और पौड़ी जैसे जिलों में औसत से कम बरसात हुई। यह असंतुलन न केवल कृषि और जल प्रबंधन के लिए चुनौती है, बल्कि पहाड़ की नाजुक भौगोलिक बनावट के लिए भी खतरनाक है।

जलवायु परिवर्तन और पहाड़ की संवेदनशीलता xxx

उत्तराखंड का भूगोल—हिमालयी ग्लेशियर, नदियां, जंगल और ढलानदार भूभाग—वैज्ञानिकों की भाषा में “हाईली सेंसिटिव इकोसिस्टम” है। यहां सतही तापमान में मामूली बढ़ोतरी भी हिमनदों के पिघलने की गति को दोगुना कर देती है। बाढ़, भूस्खलन और बादल फटना इसी क्रम की कड़ियां हैं।

सरकार और समाज की भूमिका

प्रश्न यह है कि क्या हमारी आपदा प्रबंधन नीतियां इस वैज्ञानिक चेतावनी को गंभीरता से ले रही हैं? आपदा आने के बाद राहत शिविर खोलना और मुआवजा बांटना पर्याप्त नहीं है। जरूरत है दीर्घकालिक रणनीति की—

  • जलवायु संवेदनशील जिलों की पहचान और वहां विशेष आपदा पूर्व चेतावनी प्रणाली।
  • निर्माण गतिविधियों पर नियंत्रण—विशेषकर संवेदनशील घाटियों और जलसंग्रहण क्षेत्रों में।
  • जल संचयन व नमी प्रबंधन ताकि अनियमित बारिश का प्रभाव कम किया जा सके।
  • जनजागरूकता अभियान जिससे स्थानीय लोग मौसमीय बदलावों की पहचान कर सकें और सतर्क रहें।

निष्कर्ष

उत्तराखंड आज “देवभूमि” से अधिक “आपदा भूमि” के रूप में चर्चित हो रहा है। यह विडंबना है कि जहां पहाड़ों को आध्यात्मिक शरणस्थली माना जाता था, वहीं अब हर मानसून सीजन में यह भय और त्रासदी का प्रतीक बन गया है। वैज्ञानिकों ने खतरे की घंटी बजा दी है। यदि सरकार और समाज ने मिलकर ठोस कदम नहीं उठाए, तो उत्तराखंड का भविष्य केवल शोधपत्रों में “हॉटस्पॉट” शब्द से नहीं, बल्कि बर्बाद होती जिंदगियों और उजड़ते गांवों से परिभाषित होगा।



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