कॉरपोरेट अस्पताल या एटीएम मशीन? – मरीज के शरीर से मुनाफा निकालने वाली मशीनरी पर एक चिकित्सा-नैतिक विश्लेषण डॉ. एल.एम उप्रेती भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था के एक अत्यंत संवेदनशील और विचारणीय पक्ष

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रुद्रपुर कॉरपोरेट अस्पताल या एटीएम मशीन? – मरीज के शरीर से मुनाफा निकालने वाली मशीनरी पर एक चिकित्सा-नैतिक विश्लेषण

विशेष टिप्पणी: डॉ. एल.एम उप्रेती पूर्व निदेशक, स्वास्थ्य विभाग, उत्तराखंड सरकार।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट |हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स रुद्रपुर (उत्तराखंड) उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

भारत में स्वास्थ्य सेवाएं तेजी से एक ‘उद्योग’ के रूप में परिवर्तित होती जा रही हैं, और इसका सबसे वीभत्स रूप हमें कॉरपोरेट अस्पतालों में देखने को मिल रहा है। मरीज भर्ती होते ही उसे न केवल एक रोगी बल्कि एक ‘एटीएम मशीन’ की तरह देखा जाता है – यह कोई आरोप नहीं, बल्कि हाल के वर्षों में विभिन्न अदालतों की टिप्पणियों से प्रमाणित सत्य है।

मृत्यु का यथार्थ नहीं स्वीकारते अस्पताल

सामान्य सरकारी और निजी चिकित्सा संस्थानों में एक गंभीर कमी यह देखी जा रही है कि रोगी की ‘quality of life’ या मृत्यु के समीप होते जीवन की गरिमा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यह देखा गया है कि 90 वर्ष से अधिक उम्र के असाध्य रोगियों को भी ICU में कृत्रिम जीवन विस्तार तकनीकों (life support) पर रखा जाता है, बिना इस पर विचार किए कि इसका मानसिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभाव उसके परिजनों पर क्या होगा।डॉ. लोपा मेहता का उदाहरण – मृत्यु का स्वीकार्य दर्शन

K.E.M हॉस्पिटल, मुंबई की प्रोफ़ेसर डॉ. लोपा मेहता ने अपनी वसीयत में स्पष्ट कर दिया कि वे अपने अंतिम समय में शरीर में कोई नली (nasogastric tube, catheter, IV drip आदि) नहीं लगवाना चाहतीं। उन्होंने लिखा कि उन्होंने जीवन भर चिकित्सा की, लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव पर जब शरीर से संपूर्ण गरिमा छिन जाती है, तब उसे ज़बरदस्ती खींचना न केवल अवैज्ञानिक, बल्कि अनैतिक भी है।

डॉ. एल.एम. का विश्लेषण: “मेडिकल नैतिकता और समाजशास्त्र के बीच संतुलन जरूरी”

उत्तराखंड सरकार के पूर्व स्वास्थ्य निदेशक डॉ. एल.एम. इस विषय पर कहते हैं:

भारतीय एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली में अब समय आ गया है कि पैलिएटिव केयर (palliative care) और एंड-ऑफ-लाइफ काउंसलिंग को नीति का हिस्सा बनाया जाए। कोई भी चिकित्सा केवल उपचार नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु की गरिमा की रक्षा भी होनी चाहिए। आज अगर कोई मरीज ICU से जिंदा बाहर निकल भी आता है, तो उसकी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक हालत इतनी खराब हो चुकी होती है कि वह जीवन नहीं, केवल अस्तित्व ढोता है।”

वे आगे जोड़ते हैं:कॉरपोरेट अस्पतालों को लाभ देने में रहना है, यह समझ आता है, लेकिन यह लाभ मरीजों की मजबूरी, अज्ञानता और भय पर आधारित न हो। आज सबसे ज्यादा लोन या जमीन गिरवी रखने के मामले गंभीर बीमारियों के इलाज से जुड़े हुए हैं। यह संकेत है कि स्वास्थ्य नीतियों में गंभीर आत्ममंथन जरूरी है।”

न्यायपालिका और जनमानस की भूमिका

यह भी एक गंभीर विषय है कि जनता अब छोटी-छोटी बातों में भी डॉक्टरों पर मुकदमे ठोक देती है – कंज्यूमर फोरम में, मेडिकल नेग्लिजेंस के आरोपों में। ऐसे में चिकित्सा समुदाय भयभीत रहता है और कभी-कभी ज़रूरी निर्णय लेने से भी पीछे हट जाता है।

डॉ. एल.एम. कहते हैं:जनता को जागरूक करने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार या मीडिया की नहीं है, यह चिकित्सा समुदाय की भी है। यह बताना भी ज़रूरी है कि हर स्थिति का इलाज संभव नहीं, और कभी-कभी मृत्यु को स्वीकार करना भी मानव गरिमा का सम्मान होता है।”


संपादकीय: जब डॉक्टर ही बन जाएं दलाल, तो मरीज कहां जाए?भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था में आज जो सबसे गंभीर संकट उभर रहा है, वह है कॉरपोरेट अस्पतालों द्वारा चिकित्सा के नाम पर कारोबार। रोगी भर्ती होते ही उसे इंसान नहीं, बल्कि एटीएम मशीन समझा जाने लगता है – और यह अब महज़ आरोप नहीं, अदालतों की टिप्पणी बन चुकी है।एक 90 वर्षीय मरीज, जिसके जीवन के अंतिम क्षण हैं, उसे भी ICU में कृत्रिम जीवन समर्थन प्रणाली पर डाला जाता है, लाखों रुपये का बिल बनाया जाता है, और फिर अस्पताल कहता है – “हमने तो बचाने की पूरी कोशिश की।” क्या यह चिकित्सा है, या एक सुनियोजित आर्थिक शोषण?डॉक्टर अब पेशेंट को इन्फॉर्म नहीं करते कि स्थिति लाइलाज है, या आगे इलाज से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उनकी कोशिश रहती है – नली लगाओ, वेंटिलेटर लगाओ, एक और टेस्ट कराओ। हर दिन का मतलब एक नया बिल।उत्तराखंड सरकार के पूर्व स्वास्थ्य निदेशक डॉ. एल.एम.उप्रेती कहते हैं – “अब समय है जब मेडिकल नीतियों में पैलिएटिव केयर और एंड-ऑफ-लाइफ काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाए।” पर क्या इन बातों को सुनने वाला कोई है?देश को चाहिए लीविंग विल कानून की व्यापक जागरूकता, मरीज की गरिमा पूर्ण मृत्यु का अधिकार, और अस्पतालों की जवाबदेही। क्योंकि जब चिकित्सा ही व्यापार बन जाए, तो मरीज की आस्था, जेब और जान – तीनों खतरे में होती हैं।– संपादकीय विभाग, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स



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