सांस्कृतिक पहलू: विरासत की उपेक्षा और उत्सवों की राजनीति भूमिका!संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

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उत्तराखंड की सांस्कृतिक आत्मा उसके पर्वतीय समाज की जीवंत परंपराओं, बोलियों, और लोक कलाओं में बसती है। गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, भोटिया जैसी संस्कृतियाँ केवल सांस्कृतिक पहचान नहीं, बल्कि जनजीवन के अभिन्न आयाम हैं। राज्य आंदोलन के दौरान यह स्पष्ट था कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए पृथक राज्य की माँग उठ रही है। लेकिन आज, राज्य निर्माण के 25 वर्षों बाद, यही सांस्कृतिक विरासत उपेक्षा और राजनीतिक स्वार्थ का शिकार बन चुकी है।

उत्तराखंड की सांस्कृतिक विविधता का संक्षिप्त परिचय

उत्तराखंड की सांस्कृतिक विविधता भारत के अन्य राज्यों से अलग और विशिष्ट है। यहां की बोली-बानी में गहराई, लोकगीतों में संवेदना, और मेलों में जीवन की संपूर्णता दिखाई देती है। नंदा देवी राजजात, बग्वाल (चंपावत), हिलजात्रा (पिथौरागढ़), जौलजीबी मेला, रामलीला (अल्मोड़ा की पारंपरिक शैली) और जागर जैसे आयोजन यहां की सांस्कृतिक पहचान हैं। प्रत्येक क्षेत्र में देवी-देवताओं की पूजा, मौसमी त्योहार और समाजिक आयोजन लोक-संस्कृति को जीवंत बनाए रखते हैं।

राज्य गठन के बाद प्रारंभिक प्रयास

2000 में राज्य गठन के बाद आरंभिक वर्षों में सांस्कृतिक संरक्षण की दिशा में कई प्रयास हुए। देहरादून और नैनीताल में राज्य स्तरीय लोक महोत्सव आरंभ हुए। उत्तरायणी, फूलदेई, घुघुतिया जैसे त्योहारों को शहरी क्षेत्रों में मनाने की परंपरा शुरू की गई। उत्तराखंड लोक संस्कृति परिषद और क्षेत्रीय कला एवं संस्कृति संस्थान बनाए गए। कई स्थानों पर आकाशवाणी व दूरदर्शन केंद्रों ने गढ़वाली-कुमाऊंनी कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया। उस समय लगा कि राज्य अपनी सांस्कृतिक आत्मा के संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

उत्सवों का राजनीतिकरण और संस्कृति का बाजारीकरण

लेकिन धीरे-धीरे ये उत्सव राजनीतिक शोपीस बनते गए। सांस्कृतिक आयोजनों में स्थानीय लोक कलाकारों की जगह फिल्मी चेहरों को आमंत्रित किया जाने लगा। कलाकारों की चयन प्रक्रिया राजनीतिक सिफारिशों पर आधारित हो गई। कई आयोजनों में लोककलाओं की बजाय बॉलीवुड गीतों और डीजे कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी गई। उत्तरायणी महोत्सव, गढ़ महोत्सव, कौथीग जैसे पारंपरिक उत्सव भी राजनीतिक प्रचार मंच बनकर रह गए।

इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों को लाखों रुपये के ठेके देकर आयोजनों का स्वरूप बदला गया। पारंपरिक वेशभूषा, नृत्य, गायन और भाट परंपरा जैसी विधाएं हाशिए पर चली गईं। स्थानीय हस्तशिल्प व शिल्पकारों को मंच मिलना बंद हो गया।

सांस्कृतिक संस्थानों का क्षरण

राज्य में स्थापित किए गए कई सांस्कृतिक संस्थान आज बंद या निष्क्रिय हो चुके हैं। अल्मोड़ा में स्थापित नाट्य अकादमी की स्थिति खराब है। आकाशवाणी केंद्रों में स्थानीय कलाकारों की भागीदारी सीमित हो गई है। सांस्कृतिक केंद्रों में नियमित कार्यक्रमों का आयोजन नहीं होता।

रंगमंच की हालत दयनीय है। पौड़ी, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग जैसे जनपदों में एक समय सशक्त नाट्य परंपरा रही, लेकिन आज न युवा जुड़ रहे हैं न संस्थागत समर्थन है। बजट की कमी, भ्रष्टाचार और इच्छाशक्ति के अभाव ने इन संस्थानों को लगभग मृतप्राय बना दिया है।

मेले और धार्मिक आस्थाएँ – राजनीति की प्रयोगशाला

उत्तराखंड के मेले सिर्फ सांस्कृतिक आयोजन नहीं, धार्मिक आस्था और सामाजिक समरसता का प्रतीक रहे हैं। लेकिन अब इन मेलों का भी राजनीतिकरण हो गया है।

मंदिरों के जीर्णोद्धार से लेकर देवी-देवताओं की झांकियों तक में राजनीतिक दलों की भागीदारी प्रमुख हो गई है। यह भागीदारी श्रद्धा से अधिक वोटबैंक साधने की रणनीति लगती है। कई मेलों में सरकारी सहायता का आवंटन इस बात पर निर्भर करता है कि आयोजन समिति किस पार्टी के प्रभाव में है।

राजनीतिक नेताओं के बैनर, मंच पर उनके भाषण और सांस्कृतिक प्रस्तुति के बजाय घोषणाओं की होड़ मेलों का स्वरूप बदल रही है। धार्मिक आस्था के इन आयोजनों का उपयोग जातीय ध्रुवीकरण और जनमत निर्माण के लिए किया जा रहा है।

संस्कृति और पलायन – क्या कोई रिश्ता है?

उत्तराखंड की सबसे गंभीर समस्या पलायन है, और इसका गहरा संबंध सांस्कृतिक क्षरण से भी है। जब गाँवों में सांस्कृतिक गतिविधियाँ नहीं होतीं, जब लोक कलाकारों को मंच और सम्मान नहीं मिलता, तो युवा अपनी जड़ों से कटने लगते हैं।

त्योहारों में सहभागिता घटती जा रही है। लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं, जहाँ सांस्कृतिक आयोजनों में केवल औपचारिकता बची है। घरों में अब बच्चों को गढ़वाली या कुमाऊंनी सिखाने वाले नहीं बचे।

यह सांस्कृतिक विरक्ति सिर्फ भाषाई नहीं, बल्कि पहचान के संकट को जन्म दे रही है।

समाधान और भविष्य की राह

  1. स्थानीय कलाकारों को आर्थिक सहायता: राज्य सरकार को लोक कलाकारों के लिए पेंशन, बीमा और स्थायी रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने चाहिए।
  2. शिक्षा में लोक-संस्कृति का समावेश: स्कूलों में गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा को वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाए।
  3. स्थानीय महोत्सवों को संरक्षण: पारंपरिक मेलों और त्योहारों में स्थानीय सांस्कृतिक विधाओं को प्राथमिकता दी जाए।
  4. सांस्कृतिक केंद्रों का पुनरुद्धार: बंद पड़े रंगमंचों, कला केंद्रों और अकादमियों को पुनर्जीवित किया जाए।
  5. राजनीति और संस्कृति का अलगाव: सांस्कृतिक आयोजनों को राजनीतिक मंच से अलग रखा जाए, ताकि संस्कृति को मूल स्वरूप में संरक्षित किया जा सके।
  6. डिजिटल प्लेटफार्म पर संस्कृति: राज्य सरकार एक डिजिटल संग्रहालय बनाए, जिसमें लोकगीत, नृत्य, कहानियाँ और लोककला संरक्षित की जा सके।

उत्तराखंड की सांस्कृतिक चेतना एक बार फिर जागृत होने की प्रतीक्षा में है। इसके लिए जरूरी है कि संस्कृति को चुनावी मंच नहीं, समाज के आत्मिक आधार के रूप में देखा जाए। जब तक पर्वतों की सुरभि, नदियों की कलकल, और लोकगीतों की गूंज जीवित रहेगी, तब तक उत्तराखंड न केवल एक भौगोलिक राज्य रहेगा, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक धरोहर भी बना रहेगा।

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स का प्रस्तावित लेख

उत्तराखंड की आर्थिक संरचना भले ही अभी विकासशील अवस्था में हो, लेकिन इसमें विविधता, प्राकृतिक संसाधनों की संपन्नता और संभावनाओं की कोई कमी नहीं है। आवश्यकता है एक संतुलित, पर्यावरण-संवेदनशील और क्षेत्रीय संतुलन को ध्यान में रखते हुए योजनाबद्ध विकास की। पहाड़ों के लोगों को पहाड़ में ही आजीविका मिले-यह लक्ष्य उत्तराखंड की स्थायी आर्थिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगा।


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