उत्तराखंड की बेटियाँ निशाने पर: सांस्कृतिक आतंकवाद की चुप चाल!लव जिहाद: प्रेम नहीं, पंथीय आतंक – अब समय है इसे आतंकवादी घोषित करने का”

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देवभूमि उत्तराखंड लंबे समय से अपनी शांत संस्कृति, धार्मिक आस्था और सरल जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में एक नया और बेहद खतरनाक संकट राज्य के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने की कोशिश कर रहा है। यह संकट बाहरी रूप से अपराध दिखता है, लेकिन गहराई से देखें तो यह वैचारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आक्रामकता की सुनियोजित साजिश प्रतीत होता है।

कुछ वायरल वीडियो, पीड़ित परिवारों की गवाही और स्थानीय संगठनों की शिकायतें संकेत देती हैं कि अल्पसंख्यक समुदायों के कट्टरपंथी तत्व, पहाड़ी इलाकों की कन्याओं और महिलाओं को झूठे प्रेम, रोजगार और शादी के नाम पर फँसाकर उनका मानसिक, यौन और धार्मिक शोषण कर रहे हैं। क्या यह एक संगठित सांस्कृतिक आतंकवाद नहीं है?

वीडियो और घटनाओं की पड़ताल: लव-फ्रॉड से लेकर धर्मांतरण तक

रुद्रप्रयाग, पौड़ी, नैनीताल, पिथौरागढ़ से लेकर हल्द्वानी और रुद्रपुर तक, अनेक लड़कियाँ कथित रूप से ऐसे नेटवर्क में फँसी पाई गई हैं जो प्यार के नाम पर शुरू होता है और धर्मांतरण, शोषण और कभी-कभी मानव तस्करी तक पहुँच जाता है।

कुछ घटनाओं में युवकों ने हिन्दू नामों से लड़कियों से संपर्क साधा, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे माध्यमों का प्रयोग कर विश्वास अर्जित किया और फिर बाद में असली पहचान छिपाकर संबंध बनाए। जब लड़कियाँ विरोध करती हैं, तो वीडियो वायरल करने की धमकी दी जाती है या उन्हें ‘शादी’ के नाम पर दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है। यह सब स्थानीय पुलिस प्रशासन की जानकारी में होते हुए भी नजरअंदाज किया गया।. क्या यह “लव जिहाद” है या कुछ और बड़ा?

‘लव जिहाद’ शब्द भले ही विवादित रहा हो, लेकिन जब किसी खास मजहबी पहचान वाले युवक द्वारा सुनियोजित तरीके से पहचान छुपाकर किसी लड़की को प्रेमजाल में फँसाया जाता है और उसका धार्मिक और शारीरिक शोषण किया जाता है, तो इसे सिर्फ ‘प्रेम प्रसंग’ कहना एक भारी भूल होगी। यह सांस्कृतिक-वैचारिक आक्रमण का हथियार बन चुका है।

ऐसे मामलों में न केवल लड़की को मानसिक आघात पहुँचता है, बल्कि उसके परिवार, समाज और संस्कृति पर भी चोट होती है। यह धार्मिक असहिष्णुता का एक अत्यंत खतरनाक रूप है – जो धीरे-धीरे उत्तराखंड की जड़ों को खोखला कर रहा है।

पहाड़ की भोली-बाली संस्कृति पर हमला: बाहरी तत्वों की भूमिका

उत्तराखंड का समाज लंबे समय से आत्मनिर्भर, सीमित और पारिवारिक मूल्यों पर आधारित रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में बाहरी राज्यों से आए मजहबी कट्टरपंथियों, अनाधिकृत व्यापारियों और अपराधियों ने जिस तरह यहां स्थायी निवास बनाना शुरू किया है, वह केवल जनसंख्या संतुलन का प्रश्न नहीं, सुरक्षा और संस्कृति पर भी खतरा है।

सरकारी योजनाओं में घुसपैठ, वन भूमि पर कब्जा, धार्मिक स्थल निर्माण की आड़ में प्रसार और सबसे खतरनाक – स्थानीय युवतियों को निशाना बनाना, यह सब किसी बड़ी वैचारिक योजना का हिस्सा प्रतीत होता है।

इन घटनाओं को ‘आतंकवाद’ की परिभाषा में क्यों रखना चाहिए?

भारतीय विधि में आतंकवाद की परिभाषा में ‘जनता में भय फैलाने वाले किसी भी कार्य’ को शामिल किया गया है। अगर किसी एक समुदाय की युवतियों में यह भय बैठ जाए कि उन्हें प्रेमजाल में फँसाकर शोषण किया जाएगा, तो यह सामाजिक आतंक नहीं तो और क्या है?

इन अपराधों की योजना, नेटवर्क, कवर-अप तकनीक, और उद्देश्य – सभी एक वैचारिक युद्ध की ओर इशारा करते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे मामलों को केवल ‘फ्रॉड’ या ‘रेप’ की श्रेणी में न रखा जाए, बल्कि इन्हें संगठित ‘वैचारिक आतंकवाद’ माना जाए।सरकार और प्रशासन की भूमिका: चुप्पी या मिलीभगत?

राज्य सरकारें इस पर एक स्पष्ट नीति बनाने से बच रही हैं। लोकल पुलिस एफआईआर दर्ज करने में टालमटोल करती है। कई बार जब सामाजिक संगठन ऐसे मामलों को सामने लाते हैं, तो उन्हें ‘सांप्रदायिक’ करार दे दिया जाता है।

कई राजनेता वोटबैंक की राजनीति में उलझे होने के कारण इस पर बोलने से बचते हैं। यह लोकतंत्र के लिए एक खतरे की घंटी है।न्याय और सुरक्षा की माँग: विशेष कानून की आवश्यकता

राज्य में एक ‘उत्तराखंड महिला सुरक्षा अधिनियम’ या ‘धार्मिक छल से संबंध अपराध अधिनियम’ जैसे सख्त कानून की आवश्यकता है, जिसमें –झूठी पहचान से संबंध बनाने वालों पर विशेष कार्रवाईधार्मिक शोषण व बलात धर्मांतरण पर सज़संगठित नेटवर्क के लिए UAPA जैसे कानून लागू हों
जनजागरण ही पहला बचाव है: समाज को तैयार करना होगा

इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान केवल कानून से नहीं, समाज की जागरूकता से होगा।स्कूल और कॉलेजों में युवतियों को आत्मरक्षा, साइबर सुरक्षा और सांस्कृतिक चेतना दी जाएपंचायत स्तर पर महिला जागरूकता समितियाँ बनाई जाएँसोशल मीडिया निगरानी और अफवाहों से बचने की प्रशिक्षण व्यवस्था यह केवल बेटियों का प्रश्न नहीं, उत्तराखंड की आत्मा का प्रश्न है,जिस धरती ने कालीदास से लेकर चंद्रशेखर तक को जन्म दिया, जो कुमाऊँ-गढ़वाल की गरिमा से परिपूर्ण है, वहां की बेटियों का सुनियोजित अपमान – एक पूरी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास है।यह वैचारिक, सांस्कृतिक और मानसिक ‘आतंक’ है – जो बिना बंदूक, बिना बम, लेकिन बहुत सटीक और विनाशकारी है। अब समय है कि सरकार, समाज और मीडिया – इस खतरे को पहचाने और खुलकर बोले।



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