खतड़ुवा: उत्तराखंड का लोकपर्व और कुमाऊँ–गढ़वाल के संबंधों पर विमर्श

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विवाद का मूल: गढ़वाल–कुमाऊँ युद्ध की कहानी?लोकमान्यता में यह भी कहा जाता है कि खतड़ुवा त्योहार कुमाऊँ की गढ़वाल पर विजय की स्मृति है। कहानी के अनुसार कुमाऊँ के सेनापति गैड़ी सिंह ने गढ़वाल के सेनापति खतड़ू को युद्ध में हराया था और जीत का संदेश देने के लिए पहाड़ों पर मशालें जलाई गई थीं।

गढ़वाल और कुमाऊं की सांस्कृतिक परंपराएं अपने आप में बेहद समृद्ध और विविधतापूर्ण हैं। यही कारण है कि कई त्यौहार दोनों क्षेत्रों में समान उत्साह के साथ मनाए जाते हैं। गढ़वाल के समवर्ती और कुमाऊं के समवर्ती क्षेत्र में यह त्यौहार लोक आस्था, परंपरा और सामुदायिक एकता का प्रतीक बनकर सामने आता है। विशेष रूप से गढ़वाल की पिंडर घाटी में इस त्यौहार का आयोजन बड़े हर्षोल्लास के साथ किया जाता है। यहाँ ग्रामीण लोग सामूहिक रूप से देवस्थलों में पूजा-अर्चना करते हैं, पारंपरिक गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं तथा लोकसंस्कृति की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान गाँव-गाँव में मेलों का आयोजन होता है, जिसमें आसपास की बस्तियों से लोग जुड़ते हैं और सामूहिक उत्सव का वातावरण बनता है।

खतड़ुवा पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर है। इसकी जड़ें ऋतु परिवर्तन और लोकजीवन की व्यावहारिकता में हैं। किंवदंतियाँ चाहे इसे गढ़वाल–कुमाऊँ युद्ध से जोड़ें, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य इस धारणा को समर्थन नहीं देते।इसलिए आवश्यक है कि हम इस पर्व को विभाजन की रेखा के बजाय एकता की डोर मानें। खतड़ुवा की मशालें जलें, तो उनमें केवल गढ़वाल और कुमाऊँ की नहीं, बल्कि पूरे उत्तराखंड की संस्कृति का उजियाला फैले। यही इस पर्व का असली संदेश है।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

उत्तराखंड की लोक-संस्कृति में पर्व-त्योहार सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे समाज की आत्मा, लोकजीवन का उत्सव और पीढ़ियों की स्मृति का जीवंत रूप हैं। होली, दीवाली, हरेला, घीया संक्रांति, फूलदेई और खतड़ुवा—ये सभी पर्व पर्वतीय जनमानस की भावनाओं से गहरे जुड़े हुए हैं। इनमें खतड़ुवा का विशेष महत्व है, क्योंकि यह न केवल ऋतु परिवर्तन का पर्व है, बल्कि इसके साथ जुड़ी ऐतिहासिक-राजनीतिक कहानियाँ इसे और भी रोचक बनाती हैं।

आज जब उत्तराखंड के सामाजिक ताने-बाने में कुमाऊँ और गढ़वाल की सांस्कृतिक पहचान बराबर चर्चा में रहती है, तब खतड़ुवा त्योहार के संदर्भ में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या यह वास्तव में गढ़वाल–कुमाऊँ युद्ध की स्मृति है, या फिर केवल ऋतु-परिवर्तन और लोकजीवन की परंपरा का उत्सव?


खतड़ुवा पर्व: स्वरूप और परंपरा?कुमाऊँ के गांवों में आश्विन संक्रांति (17 सितंबर के आसपास) को खतड़ुवा मनाया जाता है। इस दिन लोग खेतों से मक्के के डंठल, भांग के पौधे या सूखी घास से एक पुतला बनाते हैं, जिसे खतड़ुवा कहा जाता है। गाँव के मैदान या बाखली में चीड़ की पत्तियों और घास का ढेर सजाया जाता है, जिस पर ये पुतले रख दिए जाते हैं। शाम होते ही मशालों की रोशनी के बीच इन पुतलों को जलाया जाता है।

इसके साथ गीत गाए जाते हैं—
“भलो छि भलो, भलो खतड़ुवा,
गैड़ी की जीत खतड़ुवे को हार।”

इस मौके पर खीरे काटकर प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं, राख घर ले जाई जाती है और यह विश्वास किया जाता है कि इससे रोग-व्याधियाँ दूर होती हैं। यह परंपरा नेपाल के कुछ इलाकों में भी पाई जाती है, जिससे यह स्पष्ट है कि यह त्योहार केवल कुमाऊँ तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक हिमालयी संस्कृति का हिस्सा है।


इसी से यह धारणा बनी कि खतड़ुवा असल में “गढ़वाल की हार और कुमाऊँ की जीत” का प्रतीक है। टिहरी राज्य में कभी इस पर्व को मनाने पर रोक भी लगाई गई थी, जिससे इस किंवदंती को और बल मिला।

गढ़वाल और कुमाऊं की सांस्कृतिक परंपराएं अपने आप में बेहद समृद्ध और विविधतापूर्ण हैं। यही कारण है कि कई त्यौहार दोनों क्षेत्रों में समान उत्साह के साथ मनाए जाते हैं। गढ़वाल के समवर्ती और कुमाऊं के समवर्ती क्षेत्र में यह त्यौहार लोक आस्था, परंपरा और सामुदायिक एकता का प्रतीक बनकर सामने आता है। विशेष रूप से गढ़वाल की पिंडर घाटी में इस त्यौहार का आयोजन बड़े हर्षोल्लास के साथ किया जाता है। यहाँ ग्रामीण लोग सामूहिक रूप से देवस्थलों में पूजा-अर्चना करते हैं, पारंपरिक गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं तथा लोकसंस्कृति की झलक देखने को मिलती है। इस दौरान गाँव-गाँव में मेलों का आयोजन होता है, जिसमें आसपास की बस्तियों से लोग जुड़ते हैं और सामूहिक उत्सव का वातावरण बनता है।

लेकिन जब इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने इसे परखा, तो पाया कि—

  • न तो कुमाऊँ की वंशावलियों में गैड़ी नामक कोई सेनापति मिलता है,
  • और न ही गढ़वाल की परंपराओं में खतड़ू या खतड़वा नामक कोई राजा या योद्धा दर्ज है।

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स बुद्धिजीवी शिक्षाविद इतिहासकार जैसे विद्वानों ने इसे एक लोककल्पना बताया। उनका मत है कि “गैड़ी” का अर्थ गाय है और कत्यूरी राजाओं का राजचिह्न भी गाय था। इसलिए यह पर्व गढ़वाल–कुमाऊँ युद्ध का नहीं, बल्कि गौ-पूजा और ऋतु-परिवर्तन का प्रतीक है।


ऋतु-परिवर्तन और खतड़ुवा?सावन-भादो की वर्षा के बाद जब आश्विन का महीना आता है, तो मौसम में बदलाव शुरू होता है। घास और हरी चारा उपलब्ध होता है, गाय-बछड़े गौशालाओं में लौट आते हैं और घर-आंगन में समृद्धि का माहौल होता है। इस समय खेतों से खीरे, ककड़ी और नए अन्न भी मिलते हैं।

इसलिए खतड़ुवा असल में बरसात के अंत और शरद ऋतु के स्वागत का पर्व है। पुतलों में लगाई जाने वाली कांस की सफेद फूलधारी शाखाएँ वर्षा ऋतु के बूढ़े होने का प्रतीक हैं। तुलसीदास ने भी लिखा है—

“फूले कांस सकल महि छाई,
मनु वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई।”

अर्थात् कांस के फूलों से धरती ढक जाती है और मानो वर्षा ऋतु बूढ़ी हो गई हो।

इस दृष्टि से खतड़ुवा सिर्फ़ एक मौसमी त्योहार है, जिसका युद्ध या द्वेष से कोई सीधा संबंध नहीं है।


कुमाऊँ–गढ़वाल: भाईचारे की जरूरत?गढ़वाल और कुमाऊँ, दोनों ही उत्तराखंड के अविभाज्य अंग हैं। लोककथाओं और पर्वों में भले ही कभी-कभार प्रतिस्पर्धा या विरोधाभास झलकता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज और संघर्ष एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं।

  • कत्यूरी राजाओं की पहली राजधानी जोशीमठ (गढ़वाल) थी, बाद में वे कुमाऊँ आए।
  • लोकदेवताओं जैसे गोरिल, नारसिंह, भोलानाथ दोनों ही क्षेत्रों में पूजे जाते हैं।
  • लोकगीतों और नृत्यों में एक जैसी धुनें और भावनाएँ मिलती हैं।

ऐसे में खतड़ुवा जैसे त्योहार को “विजय–पराजय” के प्रतीक के बजाय “लोकसांस्कृतिक एकता” के उत्सव के रूप में देखना ज्यादा सार्थक है।


अंतरराष्ट्रीय और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य?खतड़ुवा जैसा त्योहार केवल उत्तराखंड तक सीमित नहीं है।

  • यूरोप में भी शरद ऋतु के स्वागत में पुतले जलाने और मशालें जलाने की परंपरा रही है।
  • रोम और पश्चिम एशिया के कई क्षेत्रों में भी फसल कटाई और ऋतु परिवर्तन के अवसर पर इसी प्रकार के अग्नि-उत्सव मनाए जाते थे।

इससे स्पष्ट है कि खतड़ुवा एक सार्वभौमिक मानवीय प्रवृत्ति का हिस्सा है—प्रकृति के चक्र के साथ तालमेल बैठाने की परंपरा


संपादकीय दृष्टिकोण?आज के संदर्भ में खतड़ुवा को गढ़वाल–कुमाऊँ के झगड़े का प्रतीक मानना सिर्फ़ भ्रांति है। इतिहास की अधूरी कहानियों पर आधारित यह धारणा समाज में अनावश्यक विभाजन और द्वेष को बढ़ावा देती है।उत्तराखंड को एकता और भाईचारे की जरूरत है, क्योंकि—पलायन, बेरोजगारी और स्वास्थ्य जैसी समस्याएँ दोनों ही क्षेत्रों की साझा पीड़ा हैं।संस्कृति और परंपरा दोनों ही क्षेत्रों को जोड़ने वाली डोर हैं।इसलिए खतड़ुवा को “गाय का पर्व, ऋतु का पर्व और लोक-जीवन का उत्सव” मानना ही उचित है। यही दृष्टिकोण कुमाऊँ और गढ़वाल को एक-दूसरे के और निकट लाएगा।


इसलिए आवश्यक है कि हम इस पर्व को विभाजन की रेखा के बजाय एकता की डोर मानें। खतड़ुवा की मशालें जलें, तो उनमें केवल गढ़वाल और कुमाऊँ की नहीं, बल्कि पूरे उत्तराखंड की संस्कृति का उजियाला फैले। यही इस पर्व का असली संदेश है।



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