दारू की दीपावली : रुद्रपुर से उठता उत्तराखंड की संस्कृति पर खतरे का सिग्नल। ब्लेंडर ब्लू आबकारी विभाग

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रुद्रपुर, 17 अक्टूबर —
त्योहारों के मौसम में जब दीपों की रोशनी और मिठास का आदान-प्रदान होना चाहिए, तब रुद्रपुर की दुकानों पर इन दिनों एक अलग ही “त्योहार” चल रहा है — शराब का। हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स की टीम ने आज शहर की तीन प्रमुख अंग्रेजी शराब भट्टियों का दौरा किया। जो नज़ारा सामने आया, वह न सिर्फ उपभोक्ता के अधिकारों की धज्जियां उड़ाता है, बल्कि यह भी बताता है कि उत्तराखंड में “नशामुक्त राज्य” का सपना कितनी गहराई से सरकारी तंत्र की मिलीभगत में उलझ चुका है।

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स – विशेष संपादकीय
लेखक: अव्तर सिंह बिष्ट, संपादक, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

विशेष गाबा चौक स्थित अंग्रेजी शराब की दुकान में ब्लेंडर प्राइड 11500 प्रति पेटी

शराब दुकानों में कीमतों का घालमेल?टीम ने सबसे पहले रोडवेज के सामने स्थित अंग्रेजी शराब की दुकान से संपर्क किया, जहां ब्लेंडर ब्लू की एक पेटी का मूल्य ₹9,800 से ₹10,000 बताया गया। यही ब्रांड जब हम शेड्यूल चौक के पास एक अन्य दुकान पर पूछते हैं, तो वही पेटी ₹9,300 में बताई गई — लेकिन “स्टॉक नहीं है” कहकर टाल दिया गया। आगे बढ़े तो ओमेक्स के पीछे स्थित शराब भट्ठी पर भी यही स्थिति मिली — ₹9,300 का रेट, पर माल उपलब्ध नहीं। अंतिम पड़ाव काशीपुर रोड स्थित मंडी के पास वाली दुकान थी, जहां कीमत सुनकर उपभोक्ता हक्का-बक्का रह जाए — ₹11,000 प्रति पेटी।

महज दो से तीन किलोमीटर के दायरे में एक ही ब्रांड की कीमतों में ₹1,700 तक का अंतर किसी बाजार अर्थव्यवस्था का नहीं, बल्कि आबकारी विभाग और दुकानदारों के गठजोड़ का परिणाम है। यह स्थिति इस बात का प्रमाण है कि रुद्रपुर नगर निगम क्षेत्र में शराब बिक्री पर कोई पारदर्शी मूल्य नियंत्रण व्यवस्था नहीं है। सवाल उठता है — जब उत्तराखंड सरकार ने हर साल आबकारी राजस्व के नाम पर अरबों रुपये वसूले हैं, तो फिर उपभोक्ता को लूटने की यह छूट किसके संरक्षण में मिल रही है?

सिडकुल और शराब संस्कृति का फैलाव?उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जब रुद्रपुर में सिडकुल की स्थापना हुई, तो रोजगार और औद्योगिक विकास की नई उम्मीदें जगीं। परंतु इसके साथ एक नई सामाजिक संस्कृति भी आई — शराब की। दक्षिण भारतीय, राजस्थान, दिल्ली, बिहार जैसे राज्यों से आए औद्योगिक कर्मचारियों और अधिकारियों ने अपने साथ “कॉर्पोरेट शराब संस्कृति” को भी रुद्रपुर की मिट्टी में बो दिया।

जहाँ पहले दीपावली के दिन लोग मिठाइयों और शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते थे, वहीं अब गिफ्ट पैक में शराब की बोतल देना ‘नया रिवाज़’ बन गया है। बड़े ठेकेदारों से लेकर छोटी सप्लाई एजेंसियों तक, सभी अपने उच्चाधिकारियों को खुश करने के लिए शराब गिफ्ट करते हैं। यह परंपरा अब धीरे-धीरे मैदानों से पहाड़ों की ओर भी फैल रही है — और यही सबसे खतरनाक संकेत है।

जब पर्व व्यापार और नशे की परंपरा बन जाए?उत्तराखंड की पारंपरिक संस्कृति हमेशा संयम, श्रद्धा और सादगी की रही है। यहाँ पर्व उत्सव आत्मिक शुद्धि और पारिवारिक सौहार्द के प्रतीक हैं। मगर अब दीपावली “दारू के गिफ्ट पैक” की होड़ में बदल रही है। मिठाई के डिब्बों की जगह बोतलों ने ले ली है। त्योहारों का अर्थ “उपहार” नहीं, “प्रभाव” बन गया है।

यह परिवर्तन केवल सामाजिक नहीं, नैतिक पतन का संकेत है। उद्योगिक इलाकों में काम करने वाले हजारों युवा आज उसी माहौल में पल रहे हैं, जहाँ शराब ‘गिफ्ट’ और ‘स्टेटस’ दोनों है। यह आने वाले समाज की चेतावनी है — जहाँ नशा अब अपराध नहीं, संस्कृति बनती जा रही है।

आबकारी विभाग की भूमिका: मौन मिलीभगत
?सबसे बड़ा सवाल प्रशासन और आबकारी विभाग से है। जब एक ही शहर में एक ही ब्रांड की कीमतें तीन अलग-अलग दरों पर बिक रही हैं, तो इसका अर्थ साफ है — नियंत्रण प्रणाली असफल है या जानबूझकर निष्क्रिय की गई है। शराब की दुकानों से मिलने वाले भारी कमीशन और प्रोत्साहन राशि ने विभाग के कई कर्मियों को मौन बना दिया है।

यह भी सर्वविदित है कि कई दुकानों पर शराब का स्टॉक ‘ब्लैक’ में बेचा जाता है, विशेषकर त्योहारों के दिनों में। ब्लेंडर ब्लू जैसे ब्रांडों की कमी दिखाकर खुदरा बिक्री में दाम बढ़ा देना अब सामान्य प्रथा है। यह न केवल उपभोक्ता के साथ धोखा है, बल्कि राज्य की आर्थिक नीतियों की पारदर्शिता पर भी प्रश्नचिह्न है।

नशामुक्त उत्तराखंड: बस नारा बनकर रह गया?उत्तराखंड सरकार समय-समय पर नशामुक्त अभियान चलाने की घोषणा करती है। मुख्यमंत्री से लेकर ग्राम स्तर तक ‘नशा मुक्त समाज’ का प्रचार किया जाता है, लेकिन व्यवहार में इसका उल्टा दृश्य है। सरकार का सबसे बड़ा राजस्व स्रोत शराब बिक्री है। जितनी अधिक बिक्री, उतना अधिक राजस्व — यही गणित राज्य की नीति निर्धारण में छिपा हुआ है।

यह दोहरी नीति समाज को धीरे-धीरे खोखला कर रही है। एक ओर सरकार युवा पीढ़ी को नशे से दूर रहने की सलाह देती है, दूसरी ओर उसी नशे से राजकोष भरती है। यह विरोधाभास केवल नीति की विफलता नहीं, बल्कि नैतिक पतन का प्रतीक है।

परिवार और समाज पर असर
?आज रुद्रपुर, काशीपुर और हल्द्वानी जैसे शहरी क्षेत्रों में शराब का उपयोग अब केवल मनोरंजन नहीं, मजबूरी बन चुका है। मजदूर वर्ग से लेकर अधिकारी वर्ग तक, शराब को “संबंधों की भाषा” बना दिया गया है। यह प्रवृत्ति घरेलू हिंसा, आर्थिक तनाव और युवा अपराधों को जन्म दे रही है।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि नशे की उपलब्धता और सामाजिक स्वीकृति, दोनों मिलकर एक खतरनाक वातावरण तैयार कर रही हैं। और जब यह संस्कृति पर्व-त्योहारों में घुस जाए, तब समाज की जड़ें हिलने लगती हैं।

समाधान की दिशा?

  1. एकीकृत मूल्य नियंत्रण: प्रत्येक शराब दुकान पर मूल्य सूची सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित हो।
  2. निरीक्षण तंत्र की जवाबदेही: आबकारी विभाग के हर अधिकारी को अपने क्षेत्र की मूल्य रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए।
  3. गिफ्ट कल्चर पर रोक: कॉर्पोरेट सेक्टर में शराब गिफ्टिंग पर स्पष्ट दिशा-निर्देश और लाइसेंसिंग लागू की जाए।
  4. जन-जागरूकता: स्कूल-कॉलेजों में नशा विरोधी अभियान को अनिवार्य बनाया जाए।
  5. सामाजिक निगरानी समितियाँ: स्थानीय स्तर पर नगर निगम और महिला समूहों को शराब दुकानों की शिकायतों की निगरानी का अधिकार दिया जाए।

अंतिम चेतावनी: दीपक या दारू?दीपावली की रात जिस घर में रोशनी के दीप जलने चाहिए, वहाँ अब बोतलों की झंकार सुनाई देती है। यह केवल रुद्रपुर की तस्वीर नहीं, पूरे उत्तराखंड का उभरता हुआ संकट है। अगर आज समाज और प्रशासन ने चेतना नहीं दिखाई, तो आने वाले वर्षों में “दारू संस्कृति” हमारे त्योहारों, परिवारों और भविष्य — तीनों को निगल जाएगी।

उत्तराखंड की आत्मा संयम, सादगी और संस्कृति में बसती है। इसे बचाना केवल सरकार नहीं, हम सबकी जिम्मेदारी है। दीपावली का अर्थ फिर से उजाला बनाना है — नशे का नहीं, चेतना का।

अवतार सिंह बिष्ट
संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी



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