
उत्तराखंड,यह आक्रोश है एक चिन्हित राज्य आंदोलनकारी का — वह सच्चा सिपाही, जिसने उत्तराखंड राज्य के लिए संघर्ष किया, लाठियां खाईं, जेल गया, और अब 25 साल बाद भी शासन-प्रशासन की ठोकरें खा रहा है, सिर्फ अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए।


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
पूर्व राज्य मंत्री कांग्रेस प्रदेश उपाध्यक्ष धीरेंद प्रताप
उत्तराखंड राज्य गठन को दो दशक से अधिक बीत चुके हैं। हर साल 9 नवंबर को सरकारें पुष्पांजलि चढ़ाकर राज्य आंदोलन की “औपचारिक श्रद्धांजलि” दे देती हैं, लेकिन जो सैकड़ों सच्चे आंदोलनकारी हैं, उनका जीवन आज भी पेंशन फॉर्म भरने और आधार-पत्नी की फोटो जमा करने के चक्कर में नष्ट हो रहा है।
यह पेंशन नहीं, अपमान है!
उत्तराखंड सरकार द्वारा चिन्हित आंदोलनकारियों को हर महीने ₹4500 की पेंशन दी जाती है। लेकिन यह पेंशन एक नियमित सुविधा की तरह नहीं दी जाती — बल्कि इसे पाने के लिए आंदोलनकारी को “भिखारी” की तरह दस्तावेज़ जमा करने होते हैं। चार-चार महीने तक पेंशन रोक दी जाती है। आधार कार्ड, पति-पत्नी की फोटो, और डीएम ऑफिस से बार-बार दस्तावेज़ मांगने की प्रक्रिया ने इसे अपमानजनक बना दिया है।
और अब नई सूचना के अनुसार, ट्रेजरी कार्यालयों द्वारा भी इन दस्तावेजों की मांग की जा रही है, जैसे कि आंदोलनकारियों को फिर से अपनी पात्रता सिद्ध करनी हो।
सरकारी दया नहीं, यह अधिकार है
यह पेंशन किसी राजनीतिक कृपा का फल नहीं है। यह उन लोगों का संवैधानिक और नैतिक अधिकार है, जिन्होंने राज्य निर्माण के संघर्ष में अपना खून-पसीना बहाया है। क्या सरकार को यह याद दिलाना पड़ेगा कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन कोई सामान्य आंदोलन नहीं था? इस आंदोलन में 42 से अधिक युवाओं की जानें गईं, दर्जनों महिलाएं शारीरिक उत्पीड़न की शिकार हुईं, सैकड़ों लोगों ने अपनी नौकरियाँ और शिक्षा खोई।
आज जब उन्हीं आंदोलनकारियों को जीवनयापन के लिए 4500 रुपये की सहायता दी जा रही है, तो वह भी बार-बार रोककर उन्हें यह एहसास दिलाया जा रहा है कि “तुम अब बोझ हो”।
धामी सरकार की संवेदनहीनता चरम पर
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी स्वयं एक युवा नेता हैं, जिनकी राजनीतिक यात्रा राज्य निर्माण की पृष्ठभूमि में प्रारंभ हुई। लेकिन आश्चर्य होता है कि उनकी सरकार के कार्यकाल में आंदोलनकारियों को सबसे ज्यादा अपमान झेलना पड़ रहा है।
आज भी सैकड़ों आंदोलनकारी चिन्हित नहीं हो सके हैं। और जो चिन्हित हुए हैं, उन्हें बार-बार सत्यापन की प्रक्रिया में उलझाकर अपमानित किया जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह पेंशन एक ‘राजनीतिक भार’ बन चुकी है जिसे हटाने की योजना तैयार की जा रही है?
‘भीख मंगिया पेंशन नहीं चाहिए’ — यह चेतावनी है
जब आंदोलनकारी कहते हैं कि “भीख मंगिया पेंशन नहीं चाहिए”, तो यह सिर्फ गुस्से की अभिव्यक्ति नहीं है — यह सरकार को दी गई चेतावनी है। राज्य आंदोलन की अग्नि अब भी शांत नहीं हुई है। अगर जरूरत पड़ी, तो यही लोग फिर से सड़क पर उतर सकते हैं, और इस बार लड़ाई राज्य के लिए नहीं, सम्मान और अधिकार की रक्षा के लिए होगी।
एक नया जन आंदोलन जन्म ले रहा है
उत्तराखंड की धरती पर जन आंदोलनों की परंपरा रही है। चिपको आंदोलन से लेकर राज्य आंदोलन तक — यह धरती आवाज़ उठाना जानती है। अब जब आंदोलनकारी खुलकर कह रहे हैं कि यह पेंशन नहीं, यह अपमान है — तब यह साफ है कि सरकार के खिलाफ एक नया असंतोष जन्म ले चुका है।
आंदोलनकारी संगठनों द्वारा कानूनी लड़ाई, धरना, प्रदर्शन और जन जागरण की रणनीति पर चर्चा शुरू हो चुकी है। यह आंदोलन अब सिर्फ पेंशन की राशि तक सीमित नहीं रहेगा, यह आंदोलन राज्य निर्माण के सिद्धांत और आदर्शों की रक्षा के लिए होगा।
चिन्हिकरण की प्रक्रिया में भी घपले
अब तक हजारों आंदोलनकारियों की फाइलें सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रही हैं। कुछ के नाम राजनीतिक सिफारिश पर जोड़े गए, जबकि सैकड़ों सच्चे आंदोलनकारी अब भी प्रमाणपत्रों और शपथपत्रों के चक्कर में फंसे हुए हैं। कई जिलों में डीएम कार्यालय की लापरवाही के कारण चिन्हिकरण की प्रक्रिया भ्रष्टाचार और पक्षपात का शिकार बन चुकी है।
राजनीतिक चुप्पी — क्यों खामोश हैं जनप्रतिनिधि?
राज्य के अनेक जनप्रतिनिधि स्वयं को राज्य आंदोलन का ‘उत्साही समर्थक’ बताते हैं। लेकिन जब बात आंदोलनकारियों के अपमान की होती है, तो यही नेता चुप हो जाते हैं। कोई सवाल नहीं उठाता, कोई विधानसभा में चर्चा नहीं करता। यह चुप्पी उनकी राजनीतिक अवसरवादिता को उजागर करती है।
मुख्यमंत्री जी, अब भी वक्त है — सुधर जाइए
मुख्यमंत्री धामी से आंदोलनकारी केवल पेंशन नहीं मांगते — वे चाहते हैं कि उनका सम्मान बना रहे। उन्हें “भिखारी” समझकर मत देखिए। वे इस राज्य के निर्माता हैं। आज वे वृद्ध हो चुके हैं, लेकिन उनका आत्मसम्मान जिंदा है। अगर आप वाकई ‘राज्य निर्माण की भावना’ को सम्मान देना चाहते हैं, तो निम्नलिखित कार्यवाही तुरंत करें:
- पेंशन भुगतान को हर महीने की निश्चित तिथि पर अनिवार्य बनाएं।
- बार-बार दस्तावेज़ों की मांग बंद हो। एक बार सत्यापन के बाद 3 साल तक कोई दोबारा कागज न मांगे।
- ट्रेजरी और डीएम कार्यालय की मनमानी पर सख्त रोक लगे।
- जो आंदोलनकारी अब तक चिन्हित नहीं हुए, उनके लिए विशेष अभियान चलाया जाए।
- राज्य आंदोलन के इतिहास को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ी यह जान सके कि उनका राज्य कैसे बना।
हमें पेंशन नहीं, सम्मान चाहिए”
उत्तराखंड का निर्माण केवल कागजों से नहीं हुआ था, यह बना था आंसुओं, लहू, संघर्ष और बलिदान से। आज अगर वही लोग अपमानित हो रहे हैं, तो यह राज्य की आत्मा का अपमान है।
पेंशन एक छोटी-सी राशि हो सकती है, लेकिन यह उस संघर्ष की पहचान है जिसने उत्तराखंड को जन्म दिया। अगर सरकारें इसे भी भीख समझकर देंगी, तो यकीन मानिए — वही आंदोलनकारी एक बार फिर “जन-ज्वालामुखी” बनकर फूटेंगे।
“सम्मान के बिना मिला हर रुपया अपमान है।
और अपमान की कीमत सत्ता को चुकानी पड़ती है।”
प्रकाश नाथ, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी अवतार सिंह बिष्ट वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो वर्षों से उत्तराखंड के जन आंदोलनों, सामाजिक न्याय और राज्य निर्माण से जुड़े विषयों पर सक्रिय लेखन कर रहे हैं।
