भारतीय समाज के इतिहास के पन्नों में एक ऐसा काला अध्याय दर्ज है, जिसे पढ़ते ही आत्मा कांप उठती है—सतीप्रथा। एक ऐसी अमानवीय परंपरा, जिसमें पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा को जीवित ही चिता पर जला दिया जाता था। यह महज़ कोई रस्म नहीं थी, बल्कि स्त्री के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता, और उसके जीवन के अधिकार पर सबसे क्रूर हमला था।अवतार सिंह बिष्ट हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, मुख्य संपादक, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी रुद्रपुरउत्तराखंड


कल्पना कीजिए—पति के शव के साथ, श्मशान की ओर ले जाई जा रही एक स्त्री, जिसे पहले भांग और धतूरा पिलाकर नशे में कर दिया जाता था। वह कभी हंसती, कभी रोती, कभी रास्ते में जमीन पर लेट जाती—नशे और भय से टूटा उसका मन, आधी मौत से पहले ही मर चुका होता। श्मशान पहुंचकर, उसे चिता पर बिठाया जाता, कच्चे बांस की मचिया से दबाया जाता, ताकि वह जलते हुए भाग न सके। घी और राल डालकर इतना धुआं किया जाता कि उसके दर्द और चीख को दुनिया न देख सके। ढोल, करताल, शंख और नगाड़े इस क्रूरता की आवाज़ को दबा देते थे। यह था “सहमरण”—मानवता के माथे पर कलंक का सबसे काला टीका।
लेकिन सवाल उठता है—इसके जिम्मेदार कौन थे?
इस बर्बर प्रथा के पीछे केवल पुरुषप्रधान सोच ही नहीं, बल्कि अंधविश्वास, रूढ़िवाद, और धर्म के नाम पर गढ़ी गई झूठी मान्यताएं जिम्मेदार थीं। समाज के वे ठेकेदार, जो धर्म के असली अर्थ को भूल चुके थे, उन्होंने इस अमानवीय कृत्य को “पतिव्रता धर्म” का दर्जा दे दिया। असल में यह धर्म नहीं, बल्कि स्त्री की स्वतंत्रता का दमन और पुरुष के अहंकार की रक्षा का घिनौना तरीका था।
और अगर इतिहास में महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे युगपुरुष न हुए होते, तो शायद यह प्रथा और लंबा खिंचती, और न जाने कितनी निर्दोष स्त्रियां इस अग्नि की भेंट चढ़ जातीं। दयानंद जी ने न केवल इस प्रथा का विरोध किया, बल्कि वेदों के मूल संदेश को सामने रखते हुए बताया कि धर्म का मतलब जीवन का उत्थान है, न कि उसका अंत। उनकी आवाज़ ने उस समय के समाज को हिलाकर रख दिया।
महर्षि दयानंद जी ने नारी को ‘देवी’ कहने के खोखले ढोंग को चुनौती दी और स्त्री को शिक्षा, स्वतंत्रता और सम्मान का अधिकार देने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने दिखाया कि सच्चा धर्म किसी का जीवन लेने में नहीं, बल्कि उसे जीने का अवसर देने में है। उनकी प्रेरणा से ही समाज में सुधार की लहर उठी और सतीप्रथा पर कानून द्वारा रोक लगी।
लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर उस दौर में ऐसे सुधारवादी नेता न होते, तो क्या हम आज भी सतीप्रथा जैसी कुप्रथा को ढो रहे होते? शायद हां। क्योंकि जिस समाज में अंधविश्वास गहरे पैठ चुका हो, वहां बदलाव केवल साहस, शिक्षा और निरंतर संघर्ष से ही आता है।
आज, जब हम सतीप्रथा के अंत को एक ऐतिहासिक जीत मानते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार का चेहरा आज भी अलग-अलग रूपों में जीवित है—दहेज, भ्रूणहत्या, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर उत्पीड़न और सामाजिक भेदभाव। महर्षि दयानंद की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी 19वीं सदी में थीं।
इसलिए, यह सिर्फ अतीत का शोक नहीं, बल्कि वर्तमान का संकल्प होना चाहिए—कि हम किसी भी रूप में स्त्री पर होने वाले अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
महर्षि दयानंद जी को कोटि-कोटि नमन, जिन्होंने हमें यह सिखाया कि नारी सिर्फ किसी की पत्नी या पुत्री नहीं, बल्कि स्वयं में पूर्ण, स्वतंत्र और सम्माननीय व्यक्तित्व है—और उसे जीने का अधिकार है, चाहे समय कोई भी हो, समाज कोई भी हो।

