
राम मंदिर को लेकर देश भर में आस्था की लहरें उमड़ रही हैं। लेकिन अयोध्या के नवनिर्मित श्रीराम मंदिर में दूसरी बार आयोजित की गई प्राण प्रतिष्ठा ने गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं – और ये सवाल केवल धार्मिक नहीं, अपितु वैदिक परंपरा, प्रशासनिक हस्तक्षेप और धार्मिक संस्थानों की स्वायत्तता से जुड़े हुए हैं। इन्हीं सवालों को उठाया है जगद्गुरु शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने – तीखे शब्दों में, और सटीक शास्त्रीय तर्कों के साथ।


❖ पहली प्राण प्रतिष्ठा क्या अधूरी या शास्त्रविरुद्ध थी?जनवरी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में रामलला की मूर्ति का भव्य प्राण प्रतिष्ठा समारोह पूरी दुनिया ने देखा। लेकिन अब जब दूसरी बार प्राण प्रतिष्ठा हो रही है – और वह भी उसी स्थल पर – तो यह स्वाभाविक है कि यह सवाल उठे:
क्या पहली बार किया गया अनुष्ठान अधूरा या शास्त्रविरुद्ध था?शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद का यही आरोप है कि जब मंदिर का शिखर ही नहीं था, वास्तु पूर्ण नहीं था, तब जो प्रतिष्ठा की गई, वह वैदिक परंपरा के विपरीत थी। अब जब शिखर और देवालय पूर्ण हो चुके हैं, तब फिर से प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है – जो यह स्वीकार करती है कि पहले कुछ गलत था।
❖ शंकराचार्य की उपेक्षा: धर्मगुरुओं को दरकिनार करने की प्रवृत्ति?
यह कोई पहली बार नहीं है कि शंकराचार्यों को राष्ट्रीय धार्मिक आयोजनों से दूर रखा गया हो। राम मंदिर की पहली प्रतिष्ठा में भी चारों पीठों के शंकराचार्य अनुपस्थित रहे। अब जब एक बार फिर कार्यक्रम हो रहा है, तो भी उनके निमंत्रण या मार्गदर्शन को स्थान नहीं दिया गया।
शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद का यह प्रश्न कि “हमें बताइए हम किस लिए शंकराचार्य बने हैं?” केवल भावनात्मक नहीं है, बल्कि यह धार्मिक संस्थानों की प्रासंगिकता, सम्मान और भूमिका पर एक निर्णायक बहस की ओर इशारा करता है। यदि सनातन परंपरा में सबसे ऊपर धर्माचार्य को माना गया है, तो फिर राजनीतिक सत्ता द्वारा संचालित ट्रस्ट और सरकारी व्यवस्थाओं को धर्म संचालन का केंद्र क्यों बनाया जा रहा है?
❖ ‘कॉरिडोर’ और ‘प्रोजेक्ट’ शब्दों में क्यों बंधे मंदिर?अविमुक्तेश्वरानंद की यह आपत्ति कि हिंदू धार्मिक स्थलों को “कॉरिडोर” और “प्रोजेक्ट” जैसे पाश्चात्य प्रशासनिक शब्दों में बदला जा रहा है, केवल भाषाई शिकायत नहीं है – यह एक धार्मिक सांस्कृतिक चेतावनी है।
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर हो या महाकाल लोक, ये नाम उस धार्मिक दिव्यता को प्रशासनिक ढांचे में सीमित कर देते हैं। क्या सरकारें अब मंदिरों को पर्यटन स्थल की तरह प्रबंधित करेंगी? यही चिंता है, और यह चिंता केवल शंकराचार्य की नहीं, लाखों संतों और साधकों की भी है।
❖ ट्रस्ट बनाम धर्माचार्य: कौन करेगा धर्म का संचालन?शंकराचार्य का यह बयान – “बांके बिहारी मंदिर में सरकार ट्रस्ट न बनाए, यह हम नहीं चाहते” – सीधे तौर पर मथुरा-वृंदावन सहित देश के तमाम धार्मिक स्थलों पर सरकारों की बढ़ती दखलंदाजी पर सवाल उठाता है।
क्या सरकारों को यह अधिकार है कि वे मंदिरों की व्यवस्था, पूजा-पद्धति, और धार्मिक निर्णयों में हस्तक्षेप करें?या फिर यह केवल शंकराचार्य, पीठाधीश, और आचार्यों का कार्यक्षेत्र है?यहां यह बात गौर करने योग्य है कि जिन-जिन मंदिरों को सरकारों ने ट्रस्ट बनाकर अपने नियंत्रण में लिया – जैसे तिरुपति, पुरी जगन्नाथ, और काशी विश्वनाथ – वहां परंपराओं में बदलाव, व्यावसायीकरण और आस्था के साथ टकराव की खबरें लगातार आती रही हैं।
आस्था, परंपरा और सत्ता – एक नई लकीर खींचने का समय?
राम मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि यह हिंदू आस्था, आंदोलन और राष्ट्र चेतना का प्रतीक है। लेकिन इस मंदिर में हो रही दोहरी प्राण प्रतिष्ठा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि
- धार्मिक निर्णयों में केवल प्रशासनिक शक्तियों से काम नहीं चल सकता।
- शास्त्र, परंपरा और धर्माचार्यों की भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद की चेतावनी केवल किसी एक आयोजन की आलोचना नहीं है, बल्कि यह एक धार्मिक पुनर्जागरण की पुकार है – कि
“धर्म के संचालन का अधिकार उन्हीं के पास रहे जो धर्म के ज्ञाता हैं, न कि वे जो सत्ता के माध्यम से उसे नियंत्रित करना चाहते हैं।”
हिंदू समाज को अब यह तय करना होगा –
क्या वह अपनी परंपराओं की रक्षा स्वयं करेगा या सरकारी ‘प्रोजेक्ट’ में अपने धर्म का विलय होने देगा?
✍️ लेखक उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार एवं उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी हैं।
