
हल्द्वानी स्थित डा. सुशीला तिवारी राजकीय मेडिकल कॉलेज व चिकित्सालय लंबे समय से उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं का ध्वजवाहक संस्थान माना जाता है। लेकिन आज इसकी तस्वीर बेहद चिंताजनक और सवालों से घिरी हुई है। हाल ही में उपनल संविदा कर्मचारियों ने विगत पांच माह से लंबित वेतन और पदों के सृजन की मांग को लेकर प्राचार्य कार्यालय में बैठकर सामूहिक हनुमान चालीसा पाठ किया। यह दृश्य केवल धार्मिक आस्था का प्रदर्शन नहीं, बल्कि व्यवस्था से हताश और मजबूर कर्मचारियों की आवाज़ है।


ट्रस्ट काल और फर्जी नियुक्तियों का इतिहास
2010 तक यह संस्थान एक ट्रस्ट के अधीन संचालित होता था। ट्रस्ट का सचिव भारतीय वन सेवा का अधिकारी और चेयरमैन उत्तराखंड सरकार का मुख्य सचिव होता था। यानी प्रबंधन पूरी तरह राज्य सरकार के अधीन था। इसी दौरान बड़े पैमाने पर बाहरी राज्यों के लोगों की नियुक्तियां हुईं, जिनमें से अधिकांश ने कथित रूप से फर्जी डिग्रियां और दस्तावेज़ प्रस्तुत कर नौकरी हासिल की। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यहां देश में शायद पहला उदाहरण मिलता है जहां प्रबंधक, उप प्रबंधक, फ्रंट डेस्क एक्जीक्यूटिव, ए.पी.आर.ओ. जैसे पद बिना विधिवत सृजन के संचालित हैं।
उत्तराखंड मूल के कर्मियों से सौतेला व्यवहार
आज जब संस्थान को असली आवश्यकता नर्सिंग स्टाफ, तकनीशियन, वार्ड बॉय, फार्मासिस्ट और पैरामेडिकल कर्मियों की है—तब उन्हीं पदों को नियमित नहीं किया जा रहा है। इसके उलट गैर-जरूरी पदों पर कार्यरत कर्मचारी पदोन्नति और मोटे वेतनमान का लाभ ले रहे हैं। संविदा पर कार्यरत उत्तराखंड मूल के अधिकांश कर्मचारी ही अस्पताल के महत्वपूर्ण विभागों में दिन-रात सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन उनके वेतन पांच माह से लंबित हैं और उन्हें नौकरी से बाहर करने की साजिशें तक हो रही हैं। यह न केवल अन्याय है बल्कि उत्तराखंड की मूल अवधारणा के भी खिलाफ है।
एक उच्च स्तरीय जांच की आवश्यकता
सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज की स्थिति यह प्रश्न खड़ा करती है कि—
किस आधार पर बाहरी राज्यों के लोग समूह ग और घ के पदों पर नियमित हुए? किन दस्तावेज़ों के आधार पर नियुक्तियां हुईं और क्या उनकी जांच कभी हुई?
- क्यों संविदा कर्मचारियों के पदों का सृजन टाल दिया गया, जबकि वही संस्थान की रीढ़ हैं?
इस पूरे मामले में फर्जी डिग्रियों और नियुक्तियों का रैकेट होने की आशंका गहरी है। यदि यह सच साबित हुआ तो यह राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली पर सबसे बड़ा कलंक होगा।
सरकार से अपेक्षा?मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी इस समय गैरसैंण में विधानसभा के शीतकालीन सत्र में हैं। यह अपेक्षा की जाती है कि सरकार इस मुद्दे को तुरंत संज्ञान में ले और एक उच्च स्तरीय जांच समिति गठित करे। साथ ही संविदा कर्मियों का बकाया वेतन अविलंब जारी हो तथा लंबे समय से कार्यरत कर्मियों के पदों को विधिवत सृजित किया जाए।
✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)
सुशीला तिवारी अस्पताल की वर्तमान स्थिति उत्तराखंड की उस पीड़ा को उजागर करती है, जहां बाहरी राज्यों से आए फर्जी दस्तावेजधारी लोग सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं और राज्य के मेहनती संविदा कर्मचारी हनुमान चालीसा पढ़ने को मजबूर हैं। यह केवल अस्पताल का संकट नहीं, बल्कि उत्तराखंड की अस्मिता का प्रश्न है। सरकार यदि इस पर ठोस कदम नहीं उठाती तो यह समस्या आने वाले समय में और विकराल रूप ले सकती है।
सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज—उत्तराखंड स्वास्थ्य व्यवस्था की तस्वीर और प्रश्न चिन्ह
हल्द्वानी का सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज (अब Government Medical College, Haldwani) अक्सर ऊँची उम्मीदों की एक पहचान रहा है, लेकिन वास्तविकता में इसकी गहन खामियाँ उजागर होती रही हैं। सूत्र ,जून 2025 में अस्पताल को एचआईवी जांच किट मिलने में 25 दिनों की देरी हुई, जिससे लगभग 1225 मरीज जांच न कर पाने से लौट गए । यह स्पष्ट संकेत है कि हड़ताली व्यवस्थागत संक्रामक रोगों की समुचित जांच और रोकथाम पर भारी असर डाल रही है।
इसी क्रम में, अगस्त 2025 में यहाँ कार्यरत 659 संविदा उपनलकर्मी पिछले पांच महीने से वेतन न मिलने के कारण हड़ताल पर थे। उनकी हड़ताल लगातार जारी रहने से अस्पताल में ओपीडी पर मरीजों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा । यह स्थिति न केवल वित्तीय असुरक्षा का प्रतीक है, बल्कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में संविदा कर्मचारियों के प्रति उपेक्षा को भी उजागर करती है।
इन सबके बीच, संस्थान की ऐतिहासिक पहचान—जिसे वन सेवा ट्रस्ट और राज्य शासन द्वारा संचालित किया जाता था—अब भी संदिग्ध नियुक्तियों, फर्जी दस्तावेजों और पद सृजन में अनियमितताओं के आरोपों के घेरे में है। ये आरोप न केवल प्रणालीगत दोष का संकेत हैं, बल्कि उत्तराखंड के मूल कार्यबल की उपेक्षा और असमानता का प्रतीक भी हैं।
सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज संकटों की दस्तावेज है—यह समय की मांग है कि सरकार व्यापक जांच करे, संविदा कर्मचारियों का वेतन तुरंत जारी हो, और स्वास्थ्य संस्थान में नियुक्तियों और संसाधनों की चयन प्रक्रिया पारदर्शी हो। उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था की गरिमा की रक्षा तभी संभव है जब यह संस्थान—जो राज्य की चिकित्सा शिक्षा का अभिन्न अंग है—सुधार की राह पर अग्रसर हो।
बाहरी प्रदेशों के संविदा कर्मचारियों की नियुक्तियों पर सवाल
हल्द्वानी स्थित डा. सुशीला तिवारी राजकीय मेडिकल कॉलेज एवं चिकित्सालय एक बार फिर विवादों में है। यहां लंबे समय से कार्यरत उपनल संविदा कर्मचारियों की नियुक्तियों पर गंभीर प्रश्न खड़े हो रहे हैं। कर्मचारियों का आरोप है कि संस्थान में बाहरी राज्यों से आए लोगों को प्राथमिकता देकर नियुक्त किया गया, जबकि उत्तराखंड मूल के योग्य युवाओं को दरकिनार कर दिया गया।
कर्मचारियों का कहना है कि अधिकांश बाहरी राज्य के नियुक्त कर्मचारियों के पास फर्जी डिग्रियां और दस्तावेज हैं। इन दस्तावेजों की जांच कभी गंभीरता से नहीं की गई। इससे यह संदेह और गहरा हो जाता है कि यहां भाई-भतीजावाद और सिफारिश कल्चर हावी है। शीर्ष नेतृत्व ने अपने रिश्तेदारों, परिचितों या पड़ोसी राज्यों के लोगों को प्राथमिकता दी, और योग्यता के कठोर मानकों को नजरअंदाज कर दिया।
विडंबना यह है कि आज वही कर्मचारी संविदा पर रहकर अस्पताल के अहम पदों पर काबिज हैं। दूसरी ओर, उत्तराखंड मूल के संविदा कर्मी वर्षों से मेहनत कर रहे हैं, लेकिन उनकी सेवाओं को नियमित करने की बजाय उन्हें उपेक्षा और वेतन संकट झेलना पड़ रहा है। यह स्थिति न केवल न्यायसंगतता पर प्रश्नचिन्ह है, बल्कि उत्तराखंड की शिक्षा और युवाओं की मेहनत का भी अपमान है।
अब आवश्यक हो गया है कि सभी संविदा नियुक्तियों के दस्तावेजों की उच्च स्तरीय जांच कराई जाए। यदि फर्जी प्रमाण पत्र या गलत तरीके से नौकरी पाए लोग पाए जाते हैं तो उनकी सेवाएं तुरंत समाप्त की जानी चाहिए। साथ ही, राज्य के योग्य और वास्तविक कर्मचारियों को ही संस्थान की रीढ़ माना जाए।

