संपादकीय लेख: 25 जून 1975 — जब भारत की लोकतांत्रिक साँसें थम गईं (स्वतंत्र भारत के इतिहास का काला अध्याय)

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25 जून 1975 की मध्यरात्रि, जब देश की अधिकांश जनता अपने दैनिक जीवन की थकान से विश्राम कर रही थी, तभी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा कर दी। देश को बिना किसी पूर्व सूचना के एक ऐसी स्थिति में धकेल दिया गया, जिसे आजादी के बाद का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक संकट माना जाता है। अगले 21 महीनों तक भारत के संविधान, संस्थान और नागरिक अधिकारों पर जैसे ताले जड़ दिए गए।

प्रस्तावना: लोकतंत्र बनाम सत्ता का मोह

आपातकाल की जड़ें किसी एक दिन की राजनीतिक अस्थिरता में नहीं, बल्कि एक लंबे और सघन राजनीतिक संघर्ष, अहंकार, चुनावी वैधता और सत्तालोलुपता में थीं। 1971 में प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी। लेकिन यह लोकप्रियता 1973 के बाद गिरने लगी जब भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ जनाक्रोश उफान पर था। गुजरात और बिहार में छात्र आंदोलनों ने कांग्रेस सरकार को घेर लिया था। जयप्रकाश नारायण जैसे जननायक ने “सम्पूर्ण क्रांति” का नारा देकर सत्ता को सीधी चुनौती दी।

इलाहाबाद से तानाशाही तक

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया जिसने इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को निरस्त कर दिया और उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया। यह फैसला लोकतंत्र की जीत का प्रतीक बन सकता था, यदि उसी दिन प्रधानमंत्री इस्तीफा देकर नैतिक उदाहरण पेश करतीं। लेकिन इसके उलट, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से केवल सीमित राहत ली और फिर सत्ता को बचाने के लिए लोकतंत्र की बुनियाद हिला दी।

25 जून की रात, संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत ‘आंतरिक अस्थिरता’ का हवाला देते हुए आपातकाल लागू कर दिया गया। यह फैसला न तो मंत्रिमंडल की सामूहिक सलाह से हुआ, न ही संसद में कोई गंभीर बहस हुई। यह पूरी तरह एक व्यक्ति द्वारा लोकतंत्र पर थोपी गई तानाशाही थी।

आपातकाल: व्यवस्था या बर्बरता?

आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गई, विपक्षी नेताओं को बिना वारंट के गिरफ्तार किया गया, जनसभाओं पर प्रतिबंध लगा, और नागरिक स्वतंत्रताएं खत्म कर दी गईं। जो जेल में नहीं थे, वे डर के माहौल में जी रहे थे। आर.के. लक्ष्मण के कार्टूनों की स्याही सूख गई, अख़बारों के पहले पन्नों पर केवल सफेद खाली जगहें छपने लगीं।

इस दौरान संजय गांधी का उदय हुआ, जो किसी संवैधानिक पद पर नहीं थे लेकिन सत्ता के एक समानांतर केंद्र बन गए। दिल्ली सहित कई हिस्सों में जबरन नसबंदी कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसमें लाखों पुरुषों को जबरन बंध्याकरण के लिए विवश किया गया। झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने की मुहिम मानवाधिकारों की खुली हत्या बन गई। यह आपातकाल लोकतांत्रिक मूल्य नहीं, बल्कि सत्ता की निरंकुशता और भय का पर्याय बन गया।

जनता की निर्णायक वापसी

लेकिन भारत का लोकतंत्र इतना कमजोर नहीं था। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने चुनावों की घोषणा की और विपक्ष को खुला मैदान दे दिया, शायद यह सोचकर कि प्रचार पर लगी लगाम और डर का माहौल उन्हें फिर सत्ता में ले आएगा। लेकिन परिणाम विपरीत थे—16 मार्च को इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए। 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और जनता पार्टी की सरकार ने देश को लोकतंत्र की ओर पुनः मोड़ा।

निष्कर्ष: क्या हमने सीखा?

आपातकाल केवल एक राजनीतिक दुर्घटना नहीं थी, वह एक चेतावनी थी। यह याद दिलाने वाली घटना है कि जब संस्थाओं की स्वायत्तता कमजोर होती है, न्यायपालिका पर दबाव बढ़ता है, प्रेस की आवाज कुचल दी जाती है और आमजन की स्वतंत्रता पर अंकुश लगता है, तब लोकतंत्र का तानाबाना बिखर जाता है।

1975 का आपातकाल भले ही 21 महीनों में समाप्त हो गया हो, लेकिन वह इस बात की स्थायी स्मृति बन गया है कि लोकतंत्र को सजग नागरिक, स्वतंत्र मीडिया और जिम्मेदार राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत होती है। सत्ता की ललक जब अंधी हो जाती है, तब संविधान की किताब को ताक पर रखकर भी फैसले लिए जाते हैं।

आज की पीढ़ी के लिए सबक

आज जब हम 25 जून 2025 को आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ की ओर बढ़ रहे हैं, यह वक्त है यह सोचने का—क्या आज का लोकतंत्र उन मूल्यों पर खरा उतर रहा है, जिनके लिए हमने स्वतंत्रता पाई थी? क्या सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को निभा रहे हैं? क्या हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए उतने सजग हैं जितने हमें होना चाहिए?

यदि नहीं, तो हमें इतिहास के इस काले पन्ने से कुछ सीखकर फिर से लोकतंत्र को मजबूत करने की जरूरत है। क्योंकि एक बार की गई चूक, इतिहास बन जाती है। और इतिहास सिखाता है, पर कभी-कभी बहुत भारी कीमत पर।


लेखक: अवतार सिंह बिष्ट

वरिष्ठ संपादक, शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स


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