
हल्द्वानी राजकीय मेडिकल कॉलेज और डॉ. सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय, हल्द्वानी – उत्तराखण्ड की स्वास्थ्य सेवाओं की धड़कन कहे जाते हैं। परंतु आज यह धड़कन बायोमेट्रिक मशीनों की ठंडी स्क्रीन पर ठहर-सी गई है। शासन के सख्त आदेशों के बावजूद, कॉलेज और अस्पताल में अनुशासन का तंत्र “ट्रस्ट प्रबंधन” की मनमानी के सामने असहाय प्रतीत हो रहा है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
मुख्य सचिव से लेकर सचिव चिकित्सा शिक्षा तक ने अप्रैल 2025 में आदेश जारी कर दिए थे कि सभी अधिकारी-कर्मचारी अनिवार्य रूप से बायोमेट्रिक उपस्थिति दर्ज करें। स्पष्ट निर्देश था कि बिना उपस्थिति के वेतन नहीं दिया जाएगा। बावजूद इसके, मेडिकल कॉलेज में “ट्रस्ट की कार्यप्रणाली” का एक और चेहरा सामने आया है—जहाँ आदेशों का पालन कागज़ों पर होता है, और उपस्थिति मशीन पर “वॉक के समय” दर्ज की जाती है।
फर्जी नियुक्तियाँ और ट्रस्ट संस्कृति का फैलता जाल
सूत्रों के अनुसार, मेडिकल कॉलेज में ट्रस्ट के माध्यम से नियुक्त किए गए कई कर्मचारी फर्जी दस्तावेजों पर कार्यरत हैं। इनमें प्रबंधक, उप-प्रबंधक, फ्रंट डेस्क एक्जीक्यूटिव, मेडिकल सोशल वर्कर जैसे पद शामिल हैं। ये लोग न केवल सरकारी नियमों की अनदेखी कर रहे हैं, बल्कि अपने आप को किसी “ठेकेदारी राज” का हिस्सा मान चुके हैं। कोई ठेके ले रहा है, कोई प्रॉपर्टी डीलर बन चुका है, कोई ट्रांसपोर्टर के रूप में कारोबार कर रहा है — और इन सबके बावजूद हर महीने लाखों रुपए वेतन के रूप में उठा रहा है।
यह स्थिति न केवल शासन की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाती है, बल्कि जनता के टैक्स से चलने वाले संस्थानों में जवाबदेही के पतन का भी उदाहरण है। बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली का मकसद पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना था, लेकिन मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी ने इसे भी दिखावा बना दिया है।
आदेश पर आदेश — पर अनुपालन नहीं
15 अप्रैल 2025 को सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा जारी आदेश संख्या 556/XXXI(15)ग/25-34(सा०)/2017 में स्पष्ट लिखा गया था कि राज्य के सभी कार्यालयों में बायोमेट्रिक उपस्थिति अनिवार्य होगी। इसके बाद 22 अप्रैल को सचिव, चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग द्वारा और 23 अप्रैल को प्राचार्य, राजकीय मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी द्वारा आदेश जारी हुए।
हर आदेश में एक ही बात दोहराई गई — “अनुपालन न करने की स्थिति में संबंधित अधिकारी/कर्मचारी के विरुद्ध कठोर विभागीय कार्यवाही की जाएगी।” परंतु सवाल यह है कि मई से अक्टूबर तक, कितने कर्मचारियों के विरुद्ध वास्तव में कार्यवाही हुई? शासन के आदेश फाइलों में दबे पड़े हैं, और ट्रस्ट आधारित कर्मचारियों की उपस्थिति “मार्निंग वॉक” या “इवनिंग वॉक” में दर्ज हो रही है।
क्या यह मेडिकल कॉलेज ‘ट्रस्ट लिमिटेड’ बन चुका है?
कई सूत्र यह संकेत देते हैं कि राजकीय मेडिकल कॉलेज में “ट्रस्ट कल्चर” गहराई तक पैठ चुका है। कई गैर-शैक्षणिक कर्मचारी ऐसे हैं जो ट्रस्ट के नाम पर फर्जी नियुक्ति से अंदर आए और अब वर्षों से स्थायी कर्मचारियों की तरह कार्यरत हैं। ये लोग किसी भी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त हैं।
मेडिकल कॉलेज जैसे संस्थान, जिन पर हजारों मरीजों का जीवन निर्भर करता है, वहाँ अनुशासन की पहली शर्त होती है समयपालन। जब कर्मचारी ही गायब हों, तो चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता कैसी होगी, यह किसी से छिपा नहीं। डॉक्टरों से लेकर तकनीशियनों तक, हर विभाग में समय पर उपस्थित होना आवश्यक है, लेकिन जब बायोमेट्रिक उपस्थिति सिर्फ औपचारिकता बन जाए, तो जनता का विश्वास डगमगाना स्वाभाविक है।
शासन और प्रशासन की दोहरी भूमिका
मुख्य सचिव और सचिव चिकित्सा शिक्षा ने अपने आदेशों में यह स्पष्ट किया था कि “बायोमेट्रिक उपस्थिति के बिना वेतन नहीं दिया जाएगा।” लेकिन यहाँ वेतन नियमित जारी हो रहा है, भले ही उपस्थिति फर्जी हो। यह तभी संभव है जब अंदरूनी मिलीभगत हो।
यह प्रश्न भी उठता है कि जिला प्रशासन और निदेशक, चिकित्सा शिक्षा ने इस पूरे प्रकरण पर अब तक कोई सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या यह मान लिया जाए कि शासन के आदेश सिर्फ दिखावे के लिए हैं, और “ट्रस्ट” के कुछ संरक्षित लोग पूरी व्यवस्था को अपनी जेब में रखे बैठे हैं?
जनता के पैसे से चलने वाला संस्थान, लेकिन जनता के प्रति जवाबदेह नहीं
राजकीय मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी और उससे संबद्ध डॉ. सुशीला तिवारी चिकित्सालय में प्रतिदिन हजारों मरीज इलाज के लिए आते हैं। राज्य का यह सबसे बड़ा सरकारी चिकित्सा संस्थान है। यहाँ हर सुविधा, हर वेतन, हर निर्माण जनता के टैक्स से होता है। ऐसे में यदि कर्मचारी अपने कार्यस्थल से गायब रहकर निजी व्यवसायों में लिप्त हैं, तो यह केवल भ्रष्टाचार नहीं बल्कि जनसेवा के सिद्धांतों के साथ विश्वासघात है।
एक तरफ उत्तराखण्ड सरकार “सुशासन” और “डिजिटल पारदर्शिता” की बात करती है, वहीं दूसरी ओर सरकारी संस्थानों में आदेशों का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। अगर बायोमेट्रिक उपस्थिति जैसे सरल और पारदर्शी तंत्र को भी लागू नहीं किया जा पा रहा है, तो फिर बड़े सुधारों की उम्मीद बेमानी है।
समाधान क्या है?
- स्वतंत्र जांच समिति का गठन: शासन को चाहिए कि एक स्वतंत्र जांच दल गठित करे जो अप्रैल 2025 के बाद से बायोमेट्रिक रिकॉर्ड की समीक्षा करे और अनुपस्थित पाए जाने वाले सभी कर्मचारियों की सूची सार्वजनिक करे।
- फर्जी नियुक्तियों की समीक्षा: ट्रस्ट के माध्यम से की गई सभी नियुक्तियों की सत्यता की जांच अनिवार्य की जाए।
- वेतन रोकने की नीति: जिन कर्मचारियों की उपस्थिति प्रमाणित नहीं, उनका वेतन तुरंत रोका जाए।
- डिजिटल निगरानी: मेडिकल कॉलेज में सीसीटीवी के माध्यम से बायोमेट्रिक मशीनों की निगरानी की जाए ताकि कोई “मार्निंग वॉक” या “डमी एंट्री” न कर सके।
- जनता के लिए पारदर्शिता पोर्टल: कॉलेज की वेबसाइट पर मासिक उपस्थिति रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए ताकि जनता जान सके कि किस विभाग में अनुशासन है और कहाँ लापरवाही।
राजकीय मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी जैसे संस्थान केवल चिकित्सा सेवा का केंद्र नहीं, बल्कि राज्य की शासन व्यवस्था की साख भी हैं। यदि यहाँ शासन के आदेशों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ेंगी, तो इसका सीधा असर पूरे चिकित्सा तंत्र पर पड़ेगा।
यह केवल बायोमेट्रिक मशीन की बात नहीं है — यह उस मानसिकता की बात है, जहाँ सरकारी नौकरी को “सुविधा” समझ लिया गया है, “सेवा” नहीं।
मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव को इस मामले को एक टेस्ट केस के रूप में लेना चाहिए। यदि इस कॉलेज में अनुशासन बहाल नहीं किया गया, तो उत्तराखण्ड के अन्य संस्थानों में भी “ट्रस्ट संस्कृति” की जड़ें और गहरी होती जाएँगी।
जनता अब सिर्फ अस्पतालों में इलाज नहीं, बल्कि ईमानदारी भी चाहती है — और यह तभी संभव है जब बायोमेट्रिक मशीनें केवल औपचारिक यंत्र नहीं, बल्कि जवाबदेही का प्रतीक बनें।
(लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, वरिष्ठ संवाददाता, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स / उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी


