
उत्तराखंड हिमालय—जिसे हम श्रद्धा से देवभूमि कहते हैं—आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा है। हाल ही में उत्तराखंड सेवा निधि परिसर में आयोजित कार्यक्रम में ट्रैकर और हिमालयी ग्लेशियरों के विद्वान डॉ. महेंद्र सिंह मिराल ने जिस चेतावनी के स्वर में ग्लोबल वॉर्मिंग की गंभीरता को रेखांकित किया, वह केवल शाब्दिक अलंकार नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की असल तस्वीर है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यदि तापमान वृद्धि का मौजूदा क्रम अगले 75-100 वर्षों तक यूं ही जारी रहा, तो हिमालय के ग्लेशियर पिघलकर समाप्त हो सकते हैं। यह चेतावनी किसी एक क्षेत्र या समुदाय के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता के लिए है, क्योंकि इन ग्लेशियरों पर न सिर्फ गंगा, यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों का अस्तित्व निर्भर है, बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका और संस्कृति भी।
संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
डॉ. मिराल का अनुभव गंगोत्री हिमनद से कलिंदीखाल दर्रे को पार कर बदरीनाथ तक की हिमयात्रा और ग्लोबल वॉर्मिंग पर किए गए उनके स्लाइड शो और व्याख्यान में झलकता है। उनकी बातें केवल आंकड़ों की ठोस बुनियाद पर नहीं खड़ी थीं, बल्कि वे प्रकृति के उस दर्द को भी अभिव्यक्त कर रही थीं, जो हिमालय की दरारों में, पिघलती बर्फ की धाराओं में और सूखती नदियों की कराह में दर्ज है।


इसी कार्यक्रम में पर्यावरण सेवा निधि के निदेशक, पद्मश्री डॉ. ललित पांडे ने भोजपत्र वृक्ष के संरक्षण और पुनः रोपण का उल्लेख किया। भोजपत्र, जो कभी हिमालय की जैविक और सांस्कृतिक विरासत का गौरव रहा, अब संरक्षण का मोहताज है। उत्तराखंड सेवा निधि द्वारा गंगोत्री क्षेत्र में भोजपत्र के रोपण और उसके सकारात्मक परिणाम यह साबित करते हैं कि यदि ठान लें तो हम क्षति को कुछ हद तक संभाल सकते हैं। यह प्रयास हमें आशा की किरण दिखाता है कि हिमालय को बचाना असंभव नहीं, बशर्ते हमारी नीतियां और आचरण ईमानदार हों।
डॉ. मिराल ने अनियंत्रित पर्यटन को हिमालय की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाने वाला कारक माना। यह बात अक्षरशः सत्य है। ट्रैकिंग, तीर्थाटन, होटल निर्माण, सड़क चौड़ीकरण और प्लास्टिक जैसे प्रदूषकों का बढ़ता बोझ हिमालय को सांस लेने नहीं दे रहा। पर्वत सिर्फ पर्यटन स्थल नहीं हैं; वे हमारे भविष्य के जल स्रोत हैं। उनकी गोद में जीवनदायिनी नदियां जन्मती हैं। मगर आज विकास की अंधी दौड़ में हम हिमालय के घाव गहरा करते जा रहे हैं।
गंगोत्री ग्लेशियर ऑफ हिमालया: पैराडाइज इन पेरिल नामक पुस्तक का विमोचन, जो इस कार्यक्रम में हुआ, सही समय पर आई दस्तावेज़ है। यह पुस्तक केवल शब्दों का संकलन नहीं, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी है। यह हिमालय के सौंदर्य और संकट दोनों का प्रमाण-पत्र है।
हिमालय की रक्षा केवल सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है। यह हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, जो किसी न किसी रूप में हिमालय पर निर्भर है। पर्यटन को नियंत्रित, टिकाऊ और पर्यावरण-मित्र बनाने की जरूरत है। ग्लेशियरों के संरक्षण को विकास की प्राथमिकता में रखना होगा। स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रयासों में सहभागी बनाया जाए, क्योंकि वे ही इस पारिस्थितिकी के सबसे बड़े प्रहरी हैं।
डॉ. मिराल, डॉ. पांडे और अन्य पर्यावरणविदों की यह आवाज अनसुनी न हो। हिमालय को बचाना मानवता को बचाना है। यह केवल पर्वत श्रृंखलाओं की रक्षा नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जल, जीवन और आस्था को बचाने का प्रश्न है। अभी भी समय है—हम हिमालय को कराहने से रोक सकते हैं। वरना जिस दिन हिमालय चुप हो गया, उस दिन नदियां भी चुप हो जाएंगी।

