संपादकीय लेख कश्मीर में खून बहा, इन्होंने झंडे लहराए अवतार सिंह बिष्ट प्रकाशन: हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स | शैल ग्लोबल टाइम्स

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26अप्रैल,कुलगाम,कश्मीर:हिंदुस्तानी पर्यटकों की पहचान पूछकर की गई निर्मम हत्या – आतंकवाद का वह सच जो बार-बार भारत की आत्मा को लहूलुहान करता है।

पर उसी समय उत्तराखंड के रुद्रपुर से गए कुछ “सांस्कृतिक सेवक”, “युवा प्रतिनिधि” और “गंगा-जमुनी पैरोकार” कश्मीर की ज़मीन पर जाकर तिरंगा लहराते, लोकनृत्य करते, और कुछ स्थानीय समुदायों पर फूलों की वर्षा करते दिखाई दिए।

इनमें से एक ने भी कुलगाम में मारे गए निर्दोष पर्यटकों की हत्या पर न कोई संवेदना जताई, न कोई विरोध दर्ज किया। जैसे कश्मीर में कुछ हुआ ही नहीं हो।

यह दृश्य विचलित करने वाला था।

जब देश एक बार फिर आतंकवाद के रक्तपात से सिहर उठा, तब रुद्रपुर के ये “प्रबुद्धजन” एक अलग ही राग गा रहे थे – ‘कश्मीर में अमन है, भाईचारा है, स्वर्ग है।’ यह क्या सच है या प्रायोजित भ्रम?

क्या इन्हें हिंदुओं की लाशें दिखाई नहीं देतीं?यह वही मानसिकता है जो मणिपुर, हाथरस, उन्नाव में मोमबत्तियाँ जलाने दौड़ पड़ती है, लेकिन कुलगाम की हत्या पर कभी पोस्ट नहीं करती।ये वही लोग हैं जो “गांधी का देश है” कहकर खूनखराबे पर शांति का पाठ पढ़ाते हैं, लेकिन जब मजहबी आतंकवादियों के हाथों निर्दोष मारे जाते हैं, तब इन्हें सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का डर सताने लगता है।

कई स्थानीय सोशल मीडिया पोस्ट और वीडियो में रुद्रपुर के नामचीन “सांस्कृतिक प्रतिनिधियों” को देखा गया, जो कश्मीर में जाकर भाषण देते हैं कि “घाटी में सब कुछ शांत है”, “यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं”, “हमें भाईचारे को बढ़ाना है” – लेकिन आतंकवाद की निंदा करने का साहस नहीं करते। क्यों यह डर है या बिके हुए विचार?
क्या ये वही वर्ग है जो पॉलिटिकल ग्रांट्स, सरकारी विज्ञापन, या मंचों की कुर्सियों के लिए देश की कीमत पर चुप रहना पसंद करता है?

या फिर ये वही मानसिक गुलाम हैं, जो भारत की असल समस्याओं को ‘डायल्यूट’ करने के लिए भेजे जाते हैं – ताकि नैरेटिव पलट दिया जाए?

रुद्रपुर के युवाओं को यह समझना होगा:सांस्कृतिक सेवा करना गलत नहीं है, लेकिन राष्ट्र के ज़ख्मों पर नमक छिड़कते हुए नाचना देशद्रोह जैसा कृत्य है।कश्मीर में तिरंगा लहराना तब अर्थपूर्ण होता, जब आपके हाथ में शहीदों के नाम की तख्ती होती, जब आपके भाषणों में आतंकवाद के खिलाफ रोष होता, जब आप यह कहते कि – “यहाँ कोई भी मारा जाए, वह भारत का नागरिक है और उसका खून ज़ाया नहीं जाएगा।”लेकिन जब कश्मीर में खून बह रहा हो और रुद्रपुर से गए प्रतिनिधि केवल एक विशेष वर्ग की ‘संस्कृति’ का गुणगान करते हों, तब यह सवाल उठता है:क्या ये रुद्रपुर के प्रतिनिधि हैं या किसी वैश्विक के एजेंट?क्या ये वही लोग हैं जो कल को कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को “प्लांटेड प्रोपेगैंडा” कहेंगे?क्या इनके ‘गुलाब और तिरंगे’ केवल दिखावे के लिए हैं और भीतर से ये राष्ट्र की चेतना को कमज़ोर करने वाले छद्म राष्ट्रनिष्ठ हैं?

कश्मीर की आग पर फूल नहीं, लौहनीति चाहिए।उत्तराखंड के युवाओं को अब यह तय करना है कि वे अपने ही लोगों की लाशों पर खड़े हो कर मौन रहेंगे, या सत्य के पक्ष में खड़े होंगे।रुद्रपुर जैसे छोटे शहरों से उठी आवाज़ें ही भारत का भविष्य तय करेंगी – लेकिन वह भविष्य कैसा होगा, यह निर्भर करता है कि हम आतंक को ‘भाईचारा’ कहकर ढकते हैं या उसका डटकर प्रतिकार करते हैं।देश के नागरिकों से यही अपील है:फूलों की तस्वीरों से नहीं, सच की लेखनी से राष्ट्र की रक्षा कीजिए।वरना एक दिन कश्मीर से उठी चिंगारी, हर शहर के आँगन तक पहुँच जाएगी – और तब तिरंगे के साथ शांति की तस्वीरें नहीं, बल्कि अंधकार का मौन होगा।



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