संपादकीय लेख खरेई के टम्टा: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत के मौन प्रहरी”✍️ अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता – शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

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उत्तराखंड की कुमाऊं घाटी न केवल हिमालय की भव्यता और नैसर्गिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की विविध सांस्कृतिक परतों में रची-बसी वो लोककला और परंपरा भी है, जिसने सदियों तक पहाड़ की आत्मा को जीवित रखा है। इन परंपराओं में एक अहम नाम है – टम्टा समाज का। विशेष रूप से बागेश्वर जिले के खरेई क्षेत्र में निवास करने वाला यह समुदाय उत्तराखंड की ताम्रकला का जीवंत दस्तावेज है।

खरेई और टम्टा समाज का ऐतिहासिक रिश्ता

खरेई गांव, जो बागेश्वर जनपद की सांस्कृतिक चेतना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है, टम्टा समाज का प्रमुख ठिकाना रहा है। लोकमान्यताओं और मौखिक इतिहास के अनुसार, टम्टा समाज मूलतः पेशेवर ताम्बा शिल्पकार (तामड़ा) रहे हैं, जो सदियों पहले नेपाल, गढ़वाल और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों से यहां आकर बसे थे। तांबे के बर्तन बनाना न केवल उनका व्यवसाय था, बल्कि यह उनकी जातीय और सांस्कृतिक पहचान भी बन चुका है।

तांबे की ठनक में गूंजती है परंपरा

टम्टा शिल्पकार जिस ताम्रशिल्प को अपनाए हुए हैं, वह मात्र एक धंधा नहीं, एक विरासत है। लोहे और एल्युमिनियम की वस्तुओं के युग में भी खरेई के कुछ घरों से अभी भी ठन-ठन की वह आवाज आती है, जो परंपरा और श्रम के अद्भुत मेल का संकेत देती है। थाली, लोटा, कटोरा, हँसुली, धातु की मूर्तियां, सब कुछ एक निरंतर अभ्यास, धैर्य और कला की पराकाष्ठा से उत्पन्न होते हैं। तांबे को गर्म करना, पीटना, काटना, और फिर बर्तन का आकार देना – यह पूरी प्रक्रिया जीवन के एक दर्शन की तरह है, जिसमें श्रम और साधना दोनों समाहित हैं।

जातीय पहचान और सामाजिक विडंबना

विडंबना यह है कि समाज को सजाने वाले ये कलाकार स्वयं आज सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं। टम्टा समाज को ‘शिल्पकार’ श्रेणी में रखा गया है, जिसे सामान्यतः अनुसूचित जातियों के अंतर्गत माना जाता है। इससे उन्हें कुछ सामाजिक अधिकार तो मिले हैं, लेकिन सम्मान और संरक्षण के स्तर पर अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है। उनकी कला को न तो सरकारी योजनाओं में प्राथमिकता दी जाती है, न ही बाजार में उचित मूल्य मिलता है।

शादी-विवाह की पारंपरिक परंपरा

टम्टा समाज की विवाह पद्धति पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी रही है। पूर्व में ये विवाह संबंध आपसी बिरादरी में ही होते थे, जहां जातीय शुद्धता और सांस्कृतिक अनुशासन का कड़ा पालन होता था। हालांकि अब समय के साथ समाज में बदलाव आया है, लेकिन विवाह के दौरान अभी भी ‘सोहर’, ‘मांगल गीत’, और ‘ढोल-दमाऊ’ की उपस्थिति उस लोक परंपरा को जीवित रखे हुए है, जो उत्तराखंड की आत्मा है।

धार्मिक आस्था और लोक-देवता

टम्टा समाज की धार्मिक आस्था मुख्यतः स्थानीय ग्राम देवताओं और शिव-पार्वती की उपासना में रची-बसी है। इनका गहरा संबंध नंदा देवी, गोलू देवता, और बाणेश्वर मंदिर जैसे लोक आस्था के केंद्रों से रहा है। पूजा के लिए वे आज भी ताम्रपात्रों का उपयोग करते हैं – यह दर्शाता है कि उनके जीवन में धर्म और शिल्प दोनों आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं।

सांस्कृतिक पुनरुद्धार की आवश्यकता

आज जरूरत इस बात की है कि टम्टा समाज की ताम्रकला को एक ‘हेरिटेज क्राफ्ट’ के रूप में मान्यता मिले। उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वह खरेई जैसे गांवों को ‘क्लस्टर योजना’ के तहत लेकर टम्टा शिल्पकारों को प्रशिक्षण, विपणन, और डिज़ाइन नवाचार के माध्यम से मुख्यधारा में लाए। शिल्प के यह पारंपरिक केंद्र पर्यटन से भी जोड़े जा सकते हैं – जहां लोग आकर लाइव डेमो देख सकें, बर्तन खरीद सकें और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त कर सकें।

शिक्षा और सामाजिक जागरूकता में कमी

अफसोस की बात यह है कि आर्थिक पिछड़ेपन के चलते टम्टा समाज में शिक्षा का स्तर बेहद सीमित है। बच्चों को जल्दी काम में झोंक दिया जाता है और शिल्प की इस निरंतरता के चक्कर में उनका समग्र विकास बाधित होता है। इसके लिए जरूरी है कि विशेष छात्रवृत्ति योजनाएं, आवासीय प्रशिक्षण केंद्र, और उद्यमिता को बढ़ावा देने वाली नीतियां बनाई जाएं।


खरेई के टम्टा समाज का इतिहास केवल उत्तराखंड की एक उपेक्षित जाति का इतिहास नहीं, बल्कि वह लोकसंस्कृति की आत्मा का इतिहास है – जिसमें तांबे की थाली में भोजन परोसने से लेकर, मंदिरों में पूजा तक की एक पूरी परंपरा समाहित है। आज यदि हम इन्हें भुला दें, तो यह मात्र एक शिल्प की मृत्यु नहीं होगी, बल्कि उस सांस्कृतिक चेतना की पराजय होगी, जिसे हमारी पीढ़ियों ने संजोया था।

इसलिए राज्य सरकार, समाजसेवी संस्थाएं और स्वयं हम सब की यह जिम्मेदारी बनती है कि खरेई के टम्टाओं की कला को मरने न दें। उन्हें वो सम्मान, वो मंच और वो बाजार दें, जिसके वे वास्तविक हकदार हैं।



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