संपादकीय लेख: उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों में पंचायत चुनाव का ‘साड़ी-सूट-शराब’ समीकरण

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उत्तराखंड के मैदानी जिलों—विशेषकर ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार और आसपास के इलाकों में पंचायत चुनाव अब लोकतंत्र का त्योहार नहीं, एक खुला बाजार बन चुके हैं। जहाँ मतदाता अपनी नीयत और नैतिकता के बजाय साड़ी, सूट और शराब की बोली पर अपना मत बेचने को तैयार हैं। प्रत्याशी भी किसी सेवा भाव से नहीं, बल्कि एक साफ़ समझ के साथ चुनावी मैदान में उतरते हैं—“जो जितना खर्च करेगा, उतनी ही सीट पक्की करेगा।”

रुद्रपुर में ममता जल्होत्रा नामक बीडीसी प्रत्याशी के पति की स्कॉर्पियो से 262 साड़ियों और प्रचार सामग्री की जब्ती ने इस पूरे खेल की एक बानगी जनता के सामने रखी है। पुलिस ने इसे आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन माना, लेकिन यह मामला अकेला नहीं है। यह केवल वह केस है, जो पकड़ा गया है। ऐसे सैकड़ों वाहन रोज़ गांवों में साड़ी-सूट और अब धीरे-धीरे ‘महिलाओं के वोट बैंक’ को साधने के लिए किचन सेट, सिलाई मशीन, मिक्सी-गैस चूल्हे तक पहुंचा रहे हैं। शराब अब एक आम चलन नहीं रही, बल्कि इसे अब गुप्त तरीके से बड़े परिवारों, गांव के ‘मुख्य रणनीतिक वोटर्स’ के घर पहुंचाया जाता है—किसी की बेटी की शादी में पेटी, किसी के घर कार्यक्रम में ‘सिस्टम से सप्लाई’।


नारी सशक्तिकरण या साड़ी सशक्तिकरणबीते पांच वर्षों में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी निश्चित ही बढ़ी है। वे प्रत्याशी भी बन रही हैं और प्रचार में भी पुरुषों से आगे हैं। लेकिन यह भागीदारी उस समय सवालों के घेरे में आ जाती है जब महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए सूट-साड़ी के पैकेट बांटे जाते हैं। जिस महिला को सत्ता में भागीदार बनना चाहिए, वह वस्त्रों के बदले वोट की सौदेबाज़ी का हिस्सा बन रही है। यह न केवल महिला सशक्तिकरण का अपमान है, बल्कि ग्राम स्वराज की आत्मा के भी खिलाफ है।


वोट की कीमत तय करते धन और बल यह अब स्थापित सत्य है कि पंचायत चुनावों में केवल वही प्रत्याशी खड़ा हो सकता है जिसके पास अथाह धन हो या फिर राजनीतिक-प्रशासनिक संरक्षण। चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का, चुनाव वही लड़ता है जो ‘मैनेज’ कर सकता है—मतदाता, पार्टी, थाने और अंततः प्रशासन।

ऐसे में ईमानदार और सेवाभावी ग्रामीण लोग या तो किनारे कर दिए जाते हैं या ‘कमज़ोर उम्मीदवार’ कहकर मज़ाक बना दिया जाता है।


लोकतंत्र या लोक-व्यापार?मतदाता भी अब केवल विकास या ईमानदारी पर नहीं, ‘कितना मिलेगा’ इस आधार पर वोट डालने लगा है। उसे पता है कि यह मौका हर पांच साल में आता है—वह सोचता है कि जो दो हजार की साड़ी, कुछ क्वार्टर और पेट्रोल भरवा दे, वही तो असली सेवक है।

इसने लोकतंत्र को बाजार में तब्दील कर दिया है, जहां “मत की कीमत सौदे से तय होती है, नीतियों से नहीं।”


शराब का बदला रूप?पहले शराब का वितरण खुलेआम होता था, अब यह कला हो गई है। गांव में किसी भी बड़े आदमी की बेटी की शादी या जनेऊ हो, वहां ‘सामाजिक योगदान’ के नाम पर पेटी भेज दी जाती है। स्कूल के मास्टर, पंचायत मित्र, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, राशन डीलर, यहां तक कि सफाईकर्मी तक भी इस गुप्त प्रचार-तंत्र के हिस्से बन गए हैं।


चुनाव आयोग की सीमाएं?पुलिस व प्रशासन ऐसे मामलों में कार्रवाई तो करता है, लेकिन यह उस हिमशिला का केवल एक सिरा होता है जो सतह पर दिखाई देता है। असली खेल गांवों की गलियों, चौपालों, मंदिरों और गुप्त मीटिंगों में तय होता है, जहां आचार संहिता केवल कागज पर होती है। चुनाव आयोग के पास न संसाधन हैं, न इच्छाशक्ति, कि वह हर स्कॉर्पियो की डिक्की, हर पंचायत घर के अंदर, और हर गुप्त कार्यक्रम की निगरानी कर सके।


लोकतंत्र का अपहरण?उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में लोकतंत्र अब साड़ी, सूट और शराब का बंधक बन चुका है। यह चिंता का विषय है कि ग्रामीण भारत, जहां से जनतंत्र की जड़ें सबसे मजबूत मानी जाती थीं, वहां अब वोटर भी अपने मत को ‘कीमत’ के तराजू पर तोल रहा है। प्रत्याशी सेवा नहीं, सौदे के इरादे से मैदान में हैं। और इस पूरे खेल का सबसे बड़ा नुकसान उन ईमानदार उम्मीदवारों और गांव के विकास को हो रहा है, जिसकी आज सबसे ज्यादा ज़रूरत है।

यदि यही स्थिति रही तो अगली पीढ़ी न ग्रामसभा को पवित्र मानेगी, न मतदान को उत्तरदायित्व—बल्कि वह इसे भी एक व्यापार मानेगी, और सौदे की भाषा ही उसका लोकतंत्र होगा।

उत्तराखंड राज्य निर्वाचन आयोग को चाहिए कि वह पंचायत चुनाव में “सामाजिक प्रलोभन निषेध अधिनियम” जैसा सख्त कानून बनवाने की सिफारिश करे और महिलाओं के लिए बांटे जा रहे कपड़ों, रसोई सामग्री और शराब पर कड़ी निगरानी के लिए ग्राम स्तर की चौकसी समिति का गठन हो।

यदि हम आज नहीं चेते, तो कल यह ‘लोकतंत्र का उत्सव’ सिर्फ ‘लोकतंत्र का मेला’ बनकर रह जाएगा—जहाँ बोली लगती है, और खरीद-फरोख्त होती है।



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