संपादकीय लेख: सूरजमल यूनिवर्सिटी बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ — निजी विश्वविद्यालयों की लापरवाही पर बड़ा सवाल—प्रदेश के चार निजी विश्वविद्यालय — माया देवी यूनिवर्सिटी, माइंड पावर यूनिवर्सिटी, श्रीमती मंजीरा देवी यूनिवर्सिटी अवतार सिंह बिष्ट, संवाददाता, रुद्रपुर (उधमसिंह नगर)

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शिक्षा किसी भी समाज की सबसे मजबूत नींव होती है। लेकिन जब वही नींव खोखली कर दी जाए, तो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अस्थिर हो जाता है। उत्तराखंड जैसे शिक्षित और शांत प्रदेश में उच्च शिक्षा के नाम पर जो व्यापार फल-फूल रहा है, उस पर अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की कार्रवाई ने काला पर्दा उठा दिया है।
प्रदेश के चार निजी विश्वविद्यालय — माया देवी यूनिवर्सिटी, माइंड पावर यूनिवर्सिटी, श्रीमती मंजीरा देवी यूनिवर्सिटी और सूरजमल यूनिवर्सिटी — को यूजीसी द्वारा डिफॉल्टर घोषित किया जाना केवल एक प्रशासनिक चेतावनी नहीं, बल्कि शिक्षा तंत्र की नैतिक विफलता का दस्तावेज है।
जानकारी छिपाने का गुनाह?यूजीसी के दिशा-निर्देश स्पष्ट हैं — हर विश्वविद्यालय को अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर कोर्स, फैकल्टी, शोध कार्य, छात्रों की संख्या, वित्तीय जानकारी और अन्य सभी मान्य विवरण सार्वजनिक करने होते हैं। यह पारदर्शिता इसलिए जरूरी है ताकि छात्र, अभिभावक और समाज जान सकें कि संस्था की शैक्षणिक स्थिति क्या है।

लेकिन इन चारों विश्वविद्यालयों ने जानबूझकर यह जानकारी छिपाई। आयोग की ओर से कई बार ईमेल, ऑनलाइन मीटिंग और स्मरण पत्र भेजे गए, फिर भी इन संस्थानों ने कोई जवाब नहीं दिया। यह केवल नियम उल्लंघन नहीं, बल्कि छात्रों के अधिकारों के साथ सीधा धोखा है।
शिक्षा का व्यापार, नहीं सेवा?
उत्तराखंड में पिछले एक दशक में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ आई है। हर जिले में ‘ग्लोबल’, ‘इंटरनेशनल’, ‘मॉडर्न’, ‘माइंड पावर’ जैसे नामों से चमकते-बिजलाते बोर्ड लगाए गए, पर भीतर की सच्चाई खोखली निकली।
इन संस्थानों का उद्देश्य शिक्षा नहीं, बल्कि प्रवेश शुल्क और डिग्रियों का कारोबार बन गया है। न मानक के अनुसार फैकल्टी हैं, न शोध संस्कृति। बस दिखावे के लिए भवन और वेबसाइट खड़ी कर ली जाती है।
अब जब यूजीसी ने जांच की, तो सामने आया कि ये विश्वविद्यालय अपनी बुनियादी जिम्मेदारी तक निभाने में नाकाम हैं। यह ‘डिफॉल्टर’ टैग सिर्फ वेबसाइट अपडेट न करने का नहीं, बल्कि नैतिक दिवालियापन का प्रमाण है।छात्रों का भविष्य खतरे में?आज इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले हजारों छात्र असमंजस में हैं — उनकी डिग्रियों की मान्यता क्या होगी? क्या उनका समय और पैसा अब व्यर्थ चला जाएगा? क्या वे किसी सरकारी नौकरी या उच्च अध्ययन के लिए पात्र रहेंगे?

यूजीसी की चेतावनी से यह स्पष्ट है कि यदि सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो आगे और सख्त कार्रवाई हो सकती है — यहां तक कि मान्यता रद्द होना भी संभव है। ऐसे में, सबसे अधिक नुकसान उन छात्रों का होगा जिन्होंने मेहनत, उम्मीद और सपनों के साथ इन संस्थानों में दाखिला लिया था।
सरकार और शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी?
यह सवाल अब प्रदेश सरकार से पूछा जाना चाहिए कि इन विश्वविद्यालयों को अनुमति कैसे दी गई? क्या राज्य उच्च शिक्षा विभाग ने समय-समय पर निरीक्षण नहीं किया?
अगर यूजीसी को दिल्ली से यह पता चल सकता है कि जानकारी अपडेट नहीं की गई, तो राज्य के अफसरों को यह क्यों नहीं दिखा? यह न केवल विश्वविद्यालयों की गलती है, बल्कि शासन-प्रशासन की मिलीभगत या लापरवाही भी सामने लाती है।

राज्य के शिक्षा मंत्री और सचिवों को अब सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए कि डिफॉल्टर घोषित इन विश्वविद्यालयों के खिलाफ क्या ठोस कार्रवाई होगी। केवल चेतावनी या नोटिस से बात नहीं बनेगी — यदि आवश्यक हो तो लाइसेंस निलंबित किए जाएं और छात्रों को वैकल्पिक संस्थानों में स्थानांतरित करने की व्यवस्था की जाए।
शिक्षा नहीं, शोषण की मंडी ?आज निजी विश्वविद्यालयों का एक वर्ग शिक्षा को ‘कमाई का जरिया’ बना चुका है।
कई जगहों पर बिना मान्यता वाले कोर्स, फर्जी प्लेसमेंट रिपोर्ट, और फेक फैकल्टी लिस्ट्स आम हो चुकी हैं।
ग्रामीण और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के छात्र सबसे अधिक शिकार बनते हैं — वे सरकारी विश्वविद्यालयों में सीट न मिलने पर निजी संस्थानों का रुख करते हैं, जहां उनसे मोटी फीस लेकर घटिया शिक्षा दी जाती है।
यूजीसी की यह कार्रवाई यदि एक चेतावनी है, तो समाज को इसे जागरण का अवसर मानना चाहिए। अब समय आ गया है कि शिक्षा को ‘व्यवसाय’ नहीं, ‘सेवा’ के रूप में पुनः परिभाषित किया जाए।
पारदर्शिता और जवाबदेही ही समाधान?
समस्या का स्थायी समाधान केवल कठोर नियंत्रण में नहीं, बल्कि पारदर्शिता में है।
हर विश्वविद्यालय को अपनी वेबसाइट पर रियल-टाइम अपडेटेड डाटा रखना चाहिए —
कितने कोर्स चल रहे हैं
कितने शिक्षक हैं!
किस विषय में शोध हो रहा है!
कितने छात्र पंजीकृत हैं?
वित्तीय स्थिति क्या है?
यूजीसी को भी अपनी सार्वजनिक पोर्टल पर ‘विश्वविद्यालय पारदर्शिता रैंकिंग’ जैसी व्यवस्था लानी चाहिए ताकि छात्र स्वयं देख सकें कि कौन-सा विश्वविद्यालय ईमानदारी से काम कर रहा है।
शिक्षा का चरित्र बचाना होगा?कभी भारत को विश्वगुरु कहा गया था — तक्षशिला और नालंदा जैसी विश्वविद्यालयें हमारे गौरव की प्रतीक थीं। आज वही भारत, वही उत्तराखंड अगर शिक्षा के नाम पर धोखाधड़ी के लिए चर्चा में है, तो यह चिंताजनक है।
यह केवल संस्थानों की गलती नहीं, बल्कि समाज की भी कमजोरी है — जहां माता-पिता ब्रांडेड विश्वविद्यालय के नाम पर आंख मूंदकर फीस जमा कर देते हैं, बिना यह देखे कि संस्थान की मान्यता और गुणवत्ता क्या है।

अंतिम प्रश्न: शिक्षा या छलावा?यूजीसी की कार्रवाई ने पर्दा हटाया है, लेकिन यह कहानी खत्म नहीं हुई। सवाल अब यह है — क्या राज्य सरकार इन डिफॉल्टर विश्वविद्यालयों को सुधारने के लिए सख्ती दिखाएगी, या फिर यह मामला भी कागजों में दफन हो जाएगा?
अगर कार्रवाई केवल नोटिस तक सीमित रही, तो यह आने वाली पीढ़ियों के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात होगा।
बच्चों का भविष्य किसी वेबसाइट की अपडेट या फाइल की औपचारिकता पर निर्भर नहीं होना चाहिए।
शिक्षा मंदिर है — और जो मंदिर भ्रष्ट हो जाए, वहां से निकलने वाले शिष्य समाज के लिए बोझ बन जाते हैं।
यूजीसी की इस कार्रवाई को हमें चेतावनी की तरह नहीं, बल्कि सुधार की शुरुआत की तरह देखना चाहिए।
सरकार, विश्वविद्यालय और समाज — तीनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि
“डिग्री नहीं, ज्ञान बिके; व्यापार नहीं, शिक्षा बचे।”


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