
लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, वरिष्ठ संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स / शैल ग्लोबल टाइम्स


उत्तराखंड राज्य की स्थापना कोई सामान्य प्रशासनिक घटना नहीं थी। यह एक जनांदोलन से उपजा वह संकल्प था, जो पर्वतीय अस्मिता, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक गरिमा की रक्षा के लिए खड़ा हुआ। लेकिन इस संकल्प को पल्लवित करने की जिम्मेदारी जिन हाथों में गई, उन हाथों ने इसे कितना सींचा और कितना सूखा छोड़ा—इसका निष्पक्ष मूल्यांकन आवश्यक है। आज जब राज्य 25 वर्षों की यात्रा पूरी कर चुका है, यह जरूरी हो गया है कि हम आत्ममंथन करें: क्या हमारे मुख्यमंत्री उत्तराखंड राज्य आंदोलन के उद्देश्यों पर खरे उतरे? और क्या आज की धामी सरकार राज्य आंदोलन के सपनों के करीब पहुंची है?
मुख्यमंत्रियों की सूची और उनका मूल्यांकन
1. नित्यानंद स्वामी (भा.ज.पा): 9 नवम्बर 2000 – 29 अक्टूबर 2001
उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री स्वामी जी वरिष्ठ, शांत और सौम्य नेता थे। परंतु उन्होंने पहाड़ के जनांदोलन की मूल पीड़ा को कभी महसूस नहीं किया। वह ज़्यादा तर देहरादून व लखनऊ की नौकरशाही के दबाव में रहते थे। उनकी सरकार पूरी तरह प्रशासनिक संक्रमण में उलझी रही और कोई भी दीर्घकालिक नीति निर्धारण नहीं कर सकी।
कमियाँ:राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
- पहाड़ के मुद्दों से दूरी
- आंदोलनकारियों को हाशिए पर रखा गया
2. भगत सिंह कोश्यारी (भा.ज.पा): 30 अक्टूबर 2001 – 1 मार्च 2002
पहाड़ के मूल निवासी और संघर्षशील छवि के साथ सत्ता में आए, लेकिन महज कुछ महीनों के कार्यकाल में वे अपनी छवि को नीति में नहीं बदल सके। उन्हें पार्टी के भीतर ही असहयोग का सामना करना पड़ा।
कमियाँ:निर्णयात्मकता की कमी
- प्रशासनिक अनुभव की कमी
- अल्पकालीन कार्यकाल में जनता से जुड़ाव नहीं बना पाए
3. नारायण दत्त तिवारी (कांग्रेस): 2 मार्च 2002 – 7 मार्च 2007
तिवारी जी एक वरिष्ठ और अनुभवी राजनेता थे। उन्होंने औद्योगिक विकास की नींव रखी, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों की उपेक्षा उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी विफलता रही। आंदोलनकारियों के साथ कोई संवाद नहीं, और देहरादून से शासन का केंद्रीकरण उन्होंने ही शुरू किया।
कमियाँ:मैदानी क्षेत्रों को प्राथमिकता, पहाड़ी क्षेत्रों की अनदेखी
- आंदोलनकारियों के प्रति उदासीनता
- भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते नौकरशाही पर पकड़ कमजोर
4. भुवन चंद्र खंडूरी (भा.ज.पा):
- पहला कार्यकाल: 7 मार्च 2007 – 26 जून 2009
- दूसरा कार्यकाल: 11 सितम्बर 2011 – 12 मार्च 2012
खंडूरी जी एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्हें “ईमानदारी की पहचान” माना गया। उन्होंने लोकायुक्त कानून की पहल की, अनुशासन लागू किया और राजनीतिक भ्रष्टाचार से लड़े। लेकिन उनकी कार्यशैली से उनकी ही पार्टी के विधायक असहज हो गए और उन्हें हटा दिया गया।
कमियाँ:कठोर निर्णयों से विधायकों की नाराजगी
- जनसंपर्क में कमी
- राजनीतिक साजिशों के शिकार
5. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ (भा.ज.पा): 27 जून 2009 – 10 सितम्बर 2011
निशंक जी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार और घोटालों की चर्चाएं सबसे ज्यादा रहीं। उनका प्रशासनिक नियंत्रण कमजोर रहा और उन्होंने नौकरशाही को बेलगाम छोड़ दिया।
कमियाँ:शिक्षा भर्ती घोटालों के आरोप
- पर्यटन और धार्मिक योजनाओं में अपारदर्शिता
- जनता से संवादहीनता
6. विजय बहुगुणा (कांग्रेस): 13 मार्च 2012 – 31 जनवरी 2014
एक बाहरी और दिल्ली केंद्रित नेता, जिन्होंने कभी भी पहाड़ के दर्द को समझने की कोशिश नहीं की। 2013 की आपदा में उनकी सरकार पूरी तरह फेल रही। उन्होंने आपदा राहत को भी राजनीतिक बना दिया।
कमियाँ:आपदा प्रबंधन में असफलता
- प्रशासनिक निर्णयों में देरी
- राज्य की अस्मिता के प्रश्नों पर चुप्पी
7. हरीश रावत (कांग्रेस):
- पहला कार्यकाल: 1 फरवरी 2014 – 27 मार्च 2016
- दूसरा कार्यकाल: 21 अप्रैल 2016 – 18 मार्च 2017
हरीश रावत खुद को ‘पर्वतीय नेता’ कहते रहे, लेकिन उनके कार्यकाल में उत्तराखंड में घोटालों की बाढ़ आ गई। शराब घोटाला, पशुपालन घोटाला और नियुक्तियों में भ्रष्टाचार उनके लिए सबसे बड़ा दाग बन गया। आंदोलनकारियों से भी वे केवल औपचारिक संपर्क रखते थे।
कमियाँ:बार-बार की राजनीतिक अस्थिरता
- घोटालों की भरमार
- जन सरोकारों से दूरी
8. त्रिवेन्द्र सिंह रावत (भा.ज.पा): 18 मार्च 2017 – 17 मार्च 2021
त्रिवेन्द्र रावत ने ई-गवर्नेंस और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन की बात की, लेकिन वह ज़मीन पर नहीं उतर पाया। शिक्षकों की भर्ती, स्वास्थ्य सुविधाएं, और न्यायिक नियुक्तियाँ उनकी सबसे बड़ी विफलता रहीं।
कमियाँ:ठोस कार्यों का अभाव
- संवेदनशील मुद्दों पर चुप्पी
- प्रशासनिक अहंकार
9. तीरथ सिंह रावत (भा.ज.पा): 18 मार्च 2021 – 4 जुलाई 2021
तीरथ सिंह रावत का कार्यकाल बेहद अल्पकालिक और विवादों से भरा रहा। उनके बयान अक्सर हास्यास्पद बन जाते थे और उन्होंने गंभीर प्रशासनिक कार्यों में कोई पहल नहीं की।
कमियाँ:अपरिपक्व वक्तव्य
- जनहित से दूर निर्णय
- आत्मप्रचार की प्रवृत्ति
10. पुष्कर सिंह धामी (भा.ज.पा): 4 जुलाई 2021 – वर्तमान
पुष्कर सिंह धामी अब तक के सबसे युवा मुख्यमंत्री हैं। वे आंदोलनकारी परिवार से आते हैं और खुद भी छात्र जीवन में राज्य आंदोलन से जुड़े रहे। उन्होंने UCC लागू करने, भ्रष्टाचार पर अंकुश, नकल विरोधी कानून, महिला सम्मान कानून, धार्मिक पर्यटन, सीमावर्ती गांवों को बसाने जैसी पहलों से जनविश्वास अर्जित किया है।
विशेष उपलब्धियाँ:समान नागरिक संहिता का प्रारूप कानून
- राज्य आंदोलनकारियों की योजनाओं का विस्तार
- युवाओं के लिए पारदर्शी भर्ती व्यवस्था
- सीमांत क्षेत्रों को मजबूत बनाने की पहल
- लोक भावना के साथ संप्रेषणीय नेतृत्व
राज्य की वर्तमान समस्याएँ
- पलायन और वीरान गांव: आज भी पहाड़ी गांवों में रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा की कमी है।
- बेरोजगारी: सरकारी नौकरियाँ सीमित और प्रतियोगी परीक्षाओं में बार-बार की धांधली युवाओं को तोड़ रही है।
- स्वास्थ्य सेवाएं: जिला अस्पतालों की हालत खराब, पर्वतीय क्षेत्रों में डॉक्टर नहीं।
- शिक्षा प्रणाली: सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं, निजी स्कूल लूट रहे हैं।
- भ्रष्टाचार: न केवल राजनीतिक बल्कि संस्थागत भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हो चुकी हैं।
- प्राकृतिक आपदाएं और अवैज्ञानिक विकास: जलवायु असंतुलन, चारधाम परियोजना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी।
- भूमिहीनों की अनदेखी: राज्य आंदोलनकारी, भूमिहीन श्रमिक, अनुसूचित वर्ग—सबके पुनर्वास में सरकारें विफल।
- शहरी अतिक्रमण और अपराध: विशेषकर कुमाऊं के मैदानी इलाकों में जनसंख्या विस्फोट और असामाजिक तत्वों का प्रवेश चिंता का विषय है।
निवेदन,राज्य के 25 वर्षों की यह यात्रा आत्ममंथन की मांग करती है। हम मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से आग्रह करते हैं कि वे इसे केवल उत्सव का अवसर न मानें, बल्कि उन ऐतिहासिक भूलों से सीखकर राज्य को सही दिशा दें। राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड तभी बन सकेगा, जब:
- पलायन रुकेगा
- स्थानीय रोजगार सृजन होगा
- स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएं मजबूत होंगी
- भ्रष्टाचार पर सख्त कार्रवाई होगी
- और आंदोलनकारी भावना से राज्य का निर्माण होगा, दिखावा नहीं
उत्तराखंड के 25 वर्षों की यात्रा सत्ता के अनुभव की नहीं, बल्कि आत्मा की तलाश की यात्रा रही है। अब भी देर नहीं हुई है। यदि वर्तमान नेतृत्व, विशेषकर पुष्कर सिंह धामी, इस चेतना को समझे और उसी भावभूमि पर कार्य करें, तो आने वाले 25 वर्ष उत्तराखंड को विश्व के मानचित्र पर एक स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, और जन-हितकारी राज्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं।मुख्यमंत्री जी, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद आपकी राज्य आंदोलनकारियों के सम्मान में की गई पहलों हेतु हार्दिक आभार व्यक्त करता है। यह आंदोलनकारी राज्य की आत्मा है, और हमारी अपेक्षा है कि राज्य आंदोलनकारियों का जीवन स्तर और भी ऊंचा उठे। ₹20,000 पेंशन, उच्च शिक्षा में आश्रितों को निशुल्क शिक्षा, तथा सरकारी कार्यों में भागीदारी सुनिश्चित की जाए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आंदोलनकारियों को सर्वोच्च सम्मान देना ही राज्य की परिकल्पना को सार्थक करेगा। हम विश्वास करते हैं कि आप इन मांगों को गंभीरता से लेकर जल्द कार्रवाई करेंगे।
