संपादकीय : धराली त्रासदी – आपदा प्रबंधन की खोखली हकीकत

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संपादकीय : धराली त्रासदी – आपदा प्रबंधन की खोखली हकीकत।अवतार सिंह बिष्ट हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स मुख्य संपादक उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी रुद्रपुर

धराली में 5 अगस्त को बादल फटने से आई तबाही ने एक बार फिर हमें आईना दिखा दिया है—कि पहाड़ों में आपदा प्रबंधन केवल कागजों में ही आधुनिक और ‘हाईटेक’ है, जमीनी हकीकत में नहीं। चार दिन गुजर जाने के बाद भी राहत कार्यों के लिए जरूरी भारी मशीनें और थर्मल सेंसिंग उपकरण सिर्फ 60 किलोमीटर दूर भटवाड़ी में फंसे हैं, और धराली तक पहुंचने में उन्हें चार दिन और लगेंगे। यह किसी भौगोलिक मजबूरी से ज्यादा, हमारे सिस्टम की तैयारी की पोल खोलता है।

80 एकड़ में फैला 20 से 60 फीट ऊंचा मलबा, 100-150 लोगों के दबे होने की आशंका और बचाव के लिए सिर्फ 3 जेसीबी—यह स्थिति उस सोच का परिणाम है जिसमें आपदा के बाद हम ‘प्रतिक्रिया’ तो तुरंत देते हैं, पर ‘तैयारी’ कभी नहीं करते। उत्तराखंड जैसे संवेदनशील राज्य में, जहां बादल फटना, भूस्खलन और अचानक बाढ़ आम बात है, वहां भारी मशीनरी, राहत उपकरण और प्रशिक्षित टीमें नजदीकी इलाकों में पहले से तैनात क्यों नहीं रहतीं?

ISRO की सैटेलाइट तस्वीरें भले राहत अभियान में दिशा दे रही हैं, लेकिन जब तक मशीनें और रास्ता नहीं खुलता, तब तक इन तस्वीरों का फायदा सीमित ही रहेगा। धराली में सड़क और पुल टूटने के कारण रास्ता बंद होना स्वाभाविक है, पर यह भी एक सच्चाई है कि पिछले वर्षों में आपदा के बाद वैकल्पिक मार्ग और अस्थायी पुल बनाने के लिए जो योजनाएं बनीं, वे या तो अधूरी रह गईं या फाइलों में दब गईं।

सेना और NDRF का जज़्बा काबिल-ए-तारीफ है, जो सीमित संसाधनों में भी लगातार रेस्क्यू कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब देश के पास उन्नत उपकरण, हवाई संसाधन और इंजीनियरिंग क्षमता है, तो उन्हें आपदा स्थल तक पहुंचाने में हमें इतना वक्त क्यों लगता है?

धराली की त्रासदी केवल प्राकृतिक आपदा की कहानी नहीं है, यह हमारे प्रशासनिक ढांचे, राजनीतिक प्राथमिकताओं और आपदा प्रबंधन की असफलताओं की भी कहानी है। चारधाम यात्रा का पंजीकरण रोकना और पर्यटकों को सुरक्षित निकालना जरूरी कदम हैं, लेकिन ये ‘आपदा के बाद’ के निर्णय हैं। असली बदलाव तभी आएगा जब उत्तराखंड में ‘आपदा पूर्व’ तैयारी को उतनी ही गंभीरता से लिया जाएगा, जितनी राजनीति में घोषणाओं को लिया जाता है।

धराली के मलबे में दबे लोग केवल इंसान नहीं हैं, वे हमारी संवेदनहीन नीतियों के मौन गवाह भी हैं। अगर इस बार भी हमने केवल मुआवजा बांटकर और भाषण देकर आगे बढ़ जाना चुना, तो आने वाली हर बरसात हमें इसी तरह का एक और ‘धराली’ दिखा सकती है—शायद और भी भयावह।


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