संपादकीय:भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व की राजनीति?ऐतिहासिक पृष्ठभूमि!उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को समझने के लिए हमें इतिहास की गहराई में जाना होगा।

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उत्तराखंड की धरती सदियों से देवभूमि के नाम से जानी जाती है। हिमालय की गोद में बसा यह प्रदेश न केवल प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी पहचान भारतीय संस्कृति और हिंदू परंपराओं के केंद्र के रूप में भी है। गंगा-यमुना की धारा, बदरीनाथ–केदारनाथ जैसे धाम, गंगोत्री–यमुनोत्री जैसे तीर्थ—ये सब इस प्रदेश को आध्यात्मिक धुरी बनाते हैं। लेकिन अगर हम पिछले 30–40 वर्षों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि यहां की धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं में कई उतार-चढ़ाव आए।



✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (अध्यक्ष उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद,उत्तराखंड)

कभी यहां के गाँवों-कस्बों में रामलीला, नंदा देवी महोत्सव, होली और दीपावली बड़े उत्साह से मनाए जाते थे, तो कभी समय की मार और पलायन की वजह से ये पर्व धीरे-धीरे सिमटने लगे। कई उत्सव तो ऐसे थे जिन्हें लोग भूल ही गए। पूर्वजों की परंपरा, लोकगाथाएँ और लोकमेला गाँवों से गायब होते चले गए। यही कारण था कि उत्तराखंड की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान जैसे ठहर सी गई थी।

मगर बीते एक दशक में तस्वीर तेजी से बदली है। केंद्र और राज्य, दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद धार्मिक आयोजनों को नया जीवन मिला। भारतीय जनता पार्टी ने “संस्कृति और आस्था” को राजनीति के केंद्र में रखकर जो रणनीति बनाई, उसने उत्तराखंड की जनता, खासकर युवाओं, को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। आज हालत यह है कि जहाँ कभी धार्मिक आयोजन कराने के लिए प्रशासनिक अनुमति लेना कठिन था, वहीं अब हर गली, हर मोहल्ले, हर गाँव और हर शहर में धार्मिक उत्सव लगातार हो रहे हैं।

इसी कड़ी में गणेश उत्सव ने उत्तराखंड की संस्कृति में नया रंग घोला है। यह त्योहार मूलतः महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की पहचान रहा है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 19वीं सदी के अंत में इसे सामूहिक स्वरूप देकर आज़ादी के आंदोलन का हथियार बनाया था। दक्षिण भारत में तो गणेश चतुर्थी हमेशा से ही लोक–आस्था का मुख्य पर्व रही है। लेकिन उत्तराखंड में इसका इतिहास अपेक्षाकृत नया है।

साल 2005–2007 के बीच जब उत्तराखंड के मैदानी इलाकों—खासकर रुद्रपुर, हरिद्वार और देहरादून—में सिडकुल (SIDCUL) उद्योग क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ, तब बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय कामगार और इंजीनियर यहाँ आए। वे अपने साथ अपनी संस्कृति, परंपरा और पर्व भी लाए। उन्हीं में से एक था गणेश उत्सव। पहले यह छोटे स्तर पर कॉलोनियों और सिडकुल परिसर में मनाया गया, फिर धीरे-धीरे स्थानीय लोगों ने इसे अपनाना शुरू कर दिया।

आज नतीजा यह है कि रुद्रपुर के ओमेक्स और सिडकुल चौराहे पर गणेश महोत्सव की धूम रहती है। जगह-जगह पंडाल सजते हैं, ढोल-नगाड़ों की गूंज सुनाई देती है और “गणपति बप्पा मोरया” के जयकारे हर गली में गूँजते हैं। सिर्फ रुद्रपुर ही नहीं, बल्कि नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ लगभग उत्तराखंड के सभी 13 जनपदों में तक यह त्योहार पहुँच चुका है।

उत्तराखंड में गणेश उत्सव की यह नई परंपरा महज एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि कैसे एक राज्य ने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर राष्ट्रीय संस्कृति को आत्मसात किया है।

कांग्रेस शासनकाल में धार्मिक आयोजनों पर तरह-तरह की रोक-टोक थी। रोड शो या जुलूस निकालने के लिए बड़े नेताओं की सिफारिशें लगानी पड़ती थीं। वहीं बीजेपी के शासनकाल में यह माहौल पूरी तरह बदल गया। आज उत्तराखंड में धार्मिक आयोजनों के लिए प्रशासन सहयोगी भूमिका निभाता है। मंदिरों और चौक-चौराहों पर लगातार पूजा-अर्चना, भजन-कीर्तन और शोभायात्राएँ होती रहती हैं।

यह बदलाव केवल राजनीति का परिणाम नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व के प्रति लोगों के बढ़ते विश्वास और सजगता का प्रतीक भी है। आज उत्तराखंड का युवा न केवल अपनी परंपराओं को पुनर्जीवित कर रहा है, बल्कि दक्षिण भारतीय संस्कृति के पर्वों को भी अपने जीवन का हिस्सा बना रहा है। यह अपने आप में “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की सच्ची झलक है।

गणेश उत्सव का यह पुनर्जागरण हमें सातवीं शताब्दी की याद दिलाता है, जब आदि शंकराचार्य दक्षिण भारत से उत्तराखंड आए थे। उन्होंने केदारनाथ  मंदिर सहित कई अन्य मंदिरों तीर्थों का पुनर्निर्माण किया और यहाँ के ब्राह्मणों को दक्षिण भेजा तथा दक्षिण के ब्राह्मणों को उत्तराखंड में बसाया। उनका उद्देश्य एक ही था—पूरे भारत को एक ही सांस्कृतिक सूत्र में पिरोना। वही परंपरा आज गणेश उत्सव के माध्यम से उत्तराखंड में फिर से जीवित होती दिख रही है।



ऐतिहासिक पृष्ठभूमि?उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को समझने के लिए हमें इतिहास की गहराई में जाना होगा। यह प्रदेश सदियों से ही धार्मिक पर्वों और लोक मेलों का केंद्र रहा है। लेकिन जैसा कि इतिहास में होता आया है—समय के साथ कुछ परंपराएँ पुष्पित-पल्लवित होती हैं और कुछ विलुप्ति की ओर चली जाती हैं। उत्तराखंड के साथ भी यही हुआ।

लोक पर्व और लोक जीवन

उत्तराखंड के पहाड़ों में सदियों से नंदा देवी राजजात यात्रा, बग्वाल (बैसाखी मेले), जगर मेले, पांडव नृत्य, होल्यारों की होली और दीपावली की आंचरी परंपरा खूब धूमधाम से मनाई जाती रही हैं। इन आयोजनों का स्वरूप केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि सामाजिक और सामुदायिक भी था। गाँव-गाँव लोग इकट्ठा होकर गाते-बजाते, नृत्य करते और देवी-देवताओं की पूजा करते थे।

लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्ध में जब पलायन तेज़ हुआ, गाँव खाली होने लगे और लोग रोजगार की तलाश में मैदानी इलाकों की ओर बढ़े, तब इन पर्वों की रौनक फीकी पड़ गई। कई जगह तो दशकों तक कोई आयोजन नहीं हुआ।

शंकराचार्य का योगदान

अगर हम हिंदू संस्कृति के पुनर्जागरण की बात करें तो हमें सातवीं-आठवीं शताब्दी की याद करनी होगी। आदि शंकराचार्य, जो केरल से चले थे, वे पूरे भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में बांधने के लिए निकले। उत्तराखंड आकर उन्होंने बदरीनाथ धाम का जीर्णोद्धार किया।

इतिहासकार लिखते हैं कि शंकराचार्य ने न केवल मंदिर की पुनःस्थापना की, बल्कि यहाँ दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों को पुजारी नियुक्त किया। बदले में उत्तराखंड के कई ब्राह्मणों को दक्षिण भारत भेजा गया। यह अदला-बदली केवल प्रशासनिक व्यवस्था नहीं थी, बल्कि यह उस समय की एक दूरदर्शी योजना थी, जिससे यह सुनिश्चित हो कि उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सब एक ही सांस्कृतिक धारा में बहें।

यही कारण है कि आज भी बदरीनाथ मंदिर के रावल (मुख्य पुजारी) केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण होते हैं। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति हमेशा से एक रही है, भले ही उसके रूप अलग-अलग दिखाई दें।

औपनिवेशिक काल और धार्मिक आयोजन

ब्रिटिश शासन के समय में उत्तराखंड के पर्व-त्योहारों का स्वरूप और बदल गया। कई बड़े धार्मिक आयोजनों पर प्रशासन की निगरानी कड़ी हो गई। अंग्रेजों को डर था कि कहीं ये आयोजन राजनीतिक रंग न ले लें। यही कारण था कि बहुत से पर्वों को सीमित कर दिया गया।

यही वह दौर था जब गणेश चतुर्थी को महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने नया रूप दिया। उन्होंने इसे घर-घर से बाहर निकालकर सार्वजनिक मंच पर मनाना शुरू किया। उनका उद्देश्य था—लोगों को एकजुट करना और अंग्रेजों के खिलाफ एक सामाजिक-राजनीतिक चेतना जगाना।

दक्षिण भारत में पहले से ही गणेश चतुर्थी एक प्रमुख पर्व था। वहीं महाराष्ट्र और मध्य भारत में भी यह तेजी से लोकप्रिय हुआ। लेकिन उत्तराखंड में इसका असर नहीं दिखा। यहाँ के लोग अपने पारंपरिक पर्वों तक ही सीमित रहे।

उत्तराखंड में त्योहारों का ठहराव

राज्य गठन (2000) से पहले और बाद तक भी उत्तराखंड में धार्मिक आयोजनों का स्वरूप स्थानीय ही रहा। होली, दीपावली और रामलीला तो होती थीं, लेकिन सामूहिकता का वह स्वरूप नहीं दिखा जो महाराष्ट्र या गुजरात में देखने को मिलता था।

कांग्रेस शासनकाल में हालात और भी कमजोर हुए। धार्मिक आयोजनों के लिए प्रशासनिक अनुमति लेना बेहद कठिन था। जगह-जगह पाबंदियाँ थीं। यहाँ तक कि कई बार गाँवों में रामलीला मंडलियाँ फंड की कमी और सरकारी उदासीनता की वजह से बंद हो गईं।

लेकिन बदलाव का बीज तो बहुत पहले ही बो दिया गया था—शंकराचार्य के जमाने में। वह बीज था उत्तर-दक्षिण की सांस्कृतिक एकता का बीज। यह बीज 21वीं सदी में गणेश उत्सव के रूप में अंकुरित हुआ।

गणेश उत्सव का उत्तराखंड में प्रवेश

साल 2005–2007 के बीच जब रुद्रपुर, हरिद्वार और देहरादून में सिडकुल (SIDCUL) औद्योगिक क्षेत्र खड़ा हुआ, तो तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र से बड़ी संख्या में लोग यहाँ नौकरी के लिए आए। उनके साथ उनके पर्व-त्योहार भी आए।

पहले तो यह आयोजन उनके बीच तक सीमित रहा। कॉलोनियों में छोटे पंडाल बने, मूर्तियाँ आईं और विसर्जन हुआ। स्थानीय लोग इस नए उत्सव को देखकर हैरान भी हुए और आकर्षित भी। धीरे-धीरे स्थानीय समाज ने भी इसमें भागीदारी शुरू की।

यही वह ऐतिहासिक मोड़ था जब उत्तराखंड में गणेश उत्सव ने जन्म लिया।

आज हालत यह है कि गणेश उत्सव केवल रुद्रपुर या हरिद्वार तक सीमित नहीं है। चमोली, टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और यहाँ तक कि सीमांत उत्तरकाशी तक भी यह उत्सव पहुँच चुका है।



उत्तराखंड राज्य गठन के बाद का दौर?साल 2000 में जब उत्तराखंड एक नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आया तो पूरे प्रदेश में एक नई उम्मीद जगी। लोगों को लगा कि अब विकास की धारा सीधे पहाड़ों और मैदानी इलाकों तक पहुँचेगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और रोज़गार के क्षेत्र में एक नई सुबह होगी। लेकिन जैसे ही राज्य की राजनीतिक बागडोर बार-बार बदली और नेताओं ने सत्ता की राजनीति को प्राथमिकता दी, विकास की यह धारा लड़खड़ाने लगी।

औद्योगीकरण और सिडकुल की स्थापना

उत्तराखंड के औद्योगिक विकास की असली कहानी शुरू हुई सिडकुल (State Infrastructure and Industrial Development Corporation of Uttarakhand Limited) की स्थापना से। साल 2003–2004 में सिडकुल के अंतर्गत रुद्रपुर, हरिद्वार और देहरादून जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित की गईं।

इन उद्योगों के लिए केवल उत्तराखंड के स्थानीय लोग ही पर्याप्त नहीं थे। परिणामस्वरूप तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के अन्य राज्यों से हजारों की संख्या में लोग यहाँ आकर बसने लगे। यह प्रवास केवल रोजगार का प्रवास नहीं था, बल्कि इसके साथ वे अपने पर्व-त्योहार, भोजन, भाषा और संस्कृति भी लेकर आए।

इसी सांस्कृतिक प्रवाह में उत्तराखंड ने पहली बार गणेश उत्सव का परिचय पाया।

दक्षिण भारतीय संस्कृति का प्रभाव

दक्षिण भारतीय कामगारों और इंजीनियरों ने जब पहली बार रुद्रपुर और हरिद्वार में गणेश चतुर्थी मनाई तो यह स्थानीय लोगों के लिए नया अनुभव था। मूर्तियों का आगमन, पंडाल सजाना, आरती, भजन-कीर्तन और फिर पूरे उल्लास के साथ विसर्जन यात्रा—यह सब उत्तराखंड में अनदेखा था।

पहले यह आयोजन सिडकुल कॉलोनियों और कंपनियों तक सीमित रहा। लेकिन धीरे-धीरे स्थानीय समाज, खासकर उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों के लोग, इसमें सम्मिलित होने लगे। यह सम्मिलन किसी आदेश या सरकारी योजना की वजह से नहीं था, बल्कि आस्था और आकर्षण की वजह से था।

आज स्थिति यह है कि रुद्रपुर के ओमेक्स और सिडकुल चौराहे पर गणेश महोत्सव भव्य स्तर पर मनाया जाता है। यहाँ न केवल दक्षिण भारतीय बल्कि स्थानीय कुमाऊँनी और गढ़वाली लोग भी भाग लेते हैं।

भारतीय जनता पार्टी की सांस्कृतिक राजनीति

राज्य गठन के बाद शुरुआती दौर में कांग्रेस की सरकारें रहीं। उस समय धार्मिक आयोजनों को लेकर प्रशासन का रवैया उदासीन और कभी-कभी नकारात्मक भी था। जुलूस निकालने के लिए अनुमति लेना कठिन होता था। धार्मिक आयोजनों को अक्सर “कानून-व्यवस्था” की समस्या बताकर सीमित कर दिया जाता था।

लेकिन जब से उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की पकड़ मजबूत हुई, धार्मिक आयोजनों का स्वरूप पूरी तरह बदल गया। बीजेपी ने हिंदुत्व को केवल राजनीति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का माध्यम बनाया।

आज हर गली-मोहल्ले में आप भगवा ध्वज लहराते देख सकते हैं। मंदिरों में नियमित भजन-कीर्तन होते हैं। रामलीलाएँ फिर से जीवित हो रही हैं। होली और दीपावली का उत्सव गाँव-गाँव और शहर-शहर नई ऊर्जा के साथ मनाया जा रहा है।

पर्वतीय क्षेत्रों तक पहुँच

शुरुआत में लोग सोचते थे कि गणेश उत्सव सिर्फ रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे औद्योगिक इलाकों तक सीमित रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे उत्तराखंड के पहाड़ों से लोग सिडकुल क्षेत्रों में नौकरी करने आए और फिर अपने गाँव लौटे, उन्होंने अपने साथ यह परंपरा भी वापस ले गए।

यही कारण है कि आज चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, पौड़ी और बागेश्वर जैसे दूरस्थ जिलों में भी गणेश चतुर्थी मनाई जाने लगी है।

उत्तराखंड का नया सांस्कृतिक नक्शा

राज्य गठन के बाद का यह दौर हमें यह सिखाता है कि उत्तराखंड की संस्कृति अब केवल “स्थानीय” नहीं रह गई है। यह “राष्ट्रीय” हो चुकी है। उत्तराखंड ने महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की परंपराओं को आत्मसात किया है।

यह वही विचार है जिसे आदि शंकराचार्य ने सातवीं शताब्दी में स्थापित किया था—एक ही भारत, एक ही संस्कृति।

राजनीति और आस्था का संगम

भारतीय जनता पार्टी ने इस बदलाव को अपने राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बना लिया। “हर घर हिंदुत्व” और “हिंदू राष्ट्र” की परिकल्पना केवल नारों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह जनजीवन में उतर गई।

कांग्रेस के शासनकाल में जहाँ धार्मिक आयोजन हाशिये पर चले गए थे, वहीं बीजेपी शासन में वे राजनीति और समाज दोनों के केंद्र में आ गए हैं।



भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व की राजनीति?उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य की राजनीति को समझना हो तो हमें यह मानना होगा कि यहाँ की राजनीति केवल सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा तक सीमित नहीं है। यहाँ की राजनीति का एक महत्वपूर्ण आधार हमेशा से धर्म और आस्था रही है। देवभूमि कहलाने वाला यह प्रदेश जब 2000 में नया राज्य बना, तब लोगों की अपेक्षाएँ केवल विकास तक सीमित नहीं थीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक परंपराओं की पुनर्स्थापना भी एक बड़ा मुद्दा था।

भारतीय जनता पार्टी ने इसे भली-भांति समझा।

कांग्रेस का दौर: उदासीनता और सीमाएँ

राज्य गठन के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस की सरकारें सत्ता में रहीं। उस दौर में विकास की कुछ योजनाएँ बनीं, लेकिन धार्मिक आयोजनों को लेकर एक तरह की उदासीनता देखने को मिली।

  • रामलीला मंडलियों को सरकारी सहायता नहीं मिली।
  • धार्मिक जुलूस निकालने के लिए प्रशासनिक अनुमति मुश्किल हो गई।
  • कई जगह छोटे आयोजनों को “कानून-व्यवस्था की समस्या” बताकर रोका गया।
  • युवाओं में सांस्कृतिक आयोजनों के प्रति रुचि कम होती चली गई।

नतीजा यह हुआ कि कई गाँवों और कस्बों में दशकों से चले आ रहे मेले और उत्सव धीरे-धीरे खत्म हो गए।

बीजेपी का आगमन: नया विमर्श

भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में आई तो उसने इस उदासीनता को तोड़ा। पार्टी ने समझा कि उत्तराखंड की असली ताकत इसकी सांस्कृतिक जड़ों में है।

बीजेपी ने यह संदेश दिया कि “धर्म केवल पूजा-पाठ का विषय नहीं है, बल्कि यह समाज को एकजुट करने का माध्यम है।”

  • धार्मिक आयोजनों को प्रशासनिक सहयोग मिलने लगा।
  • गाँव-गाँव और शहर-शहर में धार्मिक जुलूस और शोभायात्राएँ निकलने लगीं।
  • मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए विशेष योजनाएँ बनीं।
  • हर त्योहार को “राष्ट्रवाद” से जोड़ा गया।

यही कारण है कि आज आप उत्तराखंड के हर घर, हर मोहल्ले और हर गली में भगवा ध्वज फहराते देख सकते हैं।

“हर घर हिंदुत्व” की परिभाषा

भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड में “हर घर हिंदुत्व” का जो नारा दिया, उसने समाज को नई दिशा दी।

यह नारा केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं था, बल्कि यह लोगों को यह एहसास दिलाने का माध्यम बना कि हिंदू संस्कृति ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है।

आज रुद्रपुर, हरिद्वार और देहरादून जैसे शहरों में शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब मंदिरों, चौक-चौराहों या प्रतिष्ठानों पर कोई धार्मिक आयोजन न हो।

गणेश उत्सव और हिंदुत्व का विस्तार

गणेश उत्सव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। दक्षिण भारत से आया यह पर्व आज उत्तराखंड की नई पहचान बन चुका है।

बीजेपी ने इसे केवल एक “पर्व” नहीं माना, बल्कि इसे हिंदुत्व के प्रसार और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बताया।

  • रुद्रपुर के ओमेक्स और सिडकुल चौराहे पर भव्य गणेश महोत्सव होता है।
  • विसर्जन यात्राएँ हजारों लोगों की भागीदारी का प्रतीक बनती हैं।
  • युवा और महिलाएँ दोनों सक्रिय रूप से इसमें भाग लेते हैं।
  • सोशल मीडिया और लाइव प्रसारण के ज़रिए यह उत्सव गाँव-गाँव तक पहुँच चुका है।

कांग्रेस बनाम बीजेपी: सांस्कृतिक राजनीति का फर्क

जहाँ कांग्रेस के दौर में धार्मिक आयोजनों पर रोक लगती थी, वहीं बीजेपी के दौर में उन्हें प्रोत्साहन मिलता है।

  • कांग्रेस की राजनीति “धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर आयोजनों से दूरी बनाकर चलती थी।
  • बीजेपी ने स्पष्ट कहा—धर्म ही हमारी संस्कृति है और संस्कृति ही राष्ट्र की पहचान है।

यही कारण है कि आज उत्तराखंड की राजनीति में बीजेपी की पकड़ सबसे मज़बूत है।

हिंदुत्व और युवा चेतना

बीजेपी की रणनीति का सबसे बड़ा असर युवा पीढ़ी पर पड़ा है।

आज का युवा केवल रोजगार और विकास की बात नहीं करता, बल्कि वह अपनी संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण की भी चिंता करता है।

  • कॉलेजों में धार्मिक समितियाँ सक्रिय हैं।
  • सोशल मीडिया पर हिंदू त्योहारों के प्रचार-प्रसार के लिए अभियान चलते हैं।
  • युवा खुद आयोजन समितियों में शामिल होकर उत्सवों को सफल बनाते हैं।

यह युवा चेतना बीजेपी की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी बन चुकी है।

भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड की राजनीति को केवल सत्ता और विकास तक सीमित नहीं रखा। उसने इसे हिंदुत्व और सांस्कृतिक पुनर्जागरण से जोड़ा।

गणेश उत्सव इसका जीवंत उदाहरण है, जिसने यह साबित कर दिया कि धर्म केवल पूजा का विषय नहीं है, बल्कि समाज को जोड़ने और राजनीति को नई दिशा देने का सबसे बड़ा माध्यम है।



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