संपादकीय“रुद्रपुर में बुलडोज़र नहीं, भ्रम का तमाशा चला है — असली कालोनियों के किंगमेकर तो सत्ता के साए में हैं”‘अवैध कॉलोनी’ का लाइसेंस: ₹1 लाख प्रति एकड़?बुलडोज़र की गर्जना, भ्रष्टाचार की खामोशी? सत्ता के संरक्षण में पनपा ‘रेरा माफिया’

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रुद्रपुर के फौजी मटकोटा क्षेत्र में शुक्रवार को जिला विकास प्राधिकरण (डीडीए) का बुलडोजर गरजा। पाँच अवैध कॉलोनियों को ध्वस्त कर दिया गया — यह खबर जितनी बड़ी दिखी, उतनी ही सतही भी थी। क्योंकि यह कार्यवाही उस “विकास माफिया तंत्र” की असली जड़ों को नहीं छूती, जिसने बीते दस वर्षों में उधमसिंह नगर के हर इंच ज़मीन को भ्रष्टाचार और अवैध कमाई की जमीन बना दिया है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

डीडीए के चेयरमैन जयकिशन ने कार्यभार संभालते ही “कड़े रुख” का ऐलान किया था। लेकिन जनता अब इस रुख से ज़्यादा उस “रंग-रूप” को पहचानती है, जिसमें दिखावे के बुलडोजर से कुछ झुग्गियाँ, दीवारें या अधूरी सड़कों को गिरा दिया जाता है — ताकि कैमरों के सामने “कानून का राज” दिखे। जबकि असल खेल वहीं चलता रहता है, जहाँ बुलडोजर पहुँच नहीं पाता — सत्ता के गलियारों, अधिकारियों के ड्रॉइंग रूमों और माफियाओं के गुप्त खातों में।


1. बुलडोज़र की गर्जना, भ्रष्टाचार की खामोशी

फौजी मटकोटा में शेखर विश्वास, संग्राम सिंह, जयप्रकाश, संजय चौधरी और चंद्रपाल जैसी छोटी मछलियों की कॉलोनियों पर बुलडोज़र चल गया। लेकिन क्या किसी ने पूछा कि ये कॉलोनियां सालों से बिना स्वीकृति के कैसे विकसित होती रहीं? किसकी आँखों के सामने पाँच एकड़ की अनुमति लेकर पचास एकड़ तक काट डाली गई?

डीडीए की फाइलों में हर कॉलोनी का एक “साइलेंट अप्रूवल” होता है — जो नकद सौदे से तय होता है। सूत्र बताते हैं कि प्रति एकड़ लगभग ₹1 लाख तक का “गुप्त टैक्स” वसूला जाता है, जिसे प्राधिकरण अधिकारी, कुछ राजनीतिक चेहरों और स्थानीय बिचौलियों में बाँट दिया जाता है। यह कोई रहस्य नहीं, बल्कि खुला खेल है।

आज जो बुलडोजर चला, वह जनता को यह दिखाने के लिए था कि “प्राधिकरण जाग गया है” — लेकिन असल में यह उसी सिस्टम की रिहर्सल है जो हर कुछ महीनों में एक-दो कालोनियों को बलि का बकरा बनाकर मीडिया हेडलाइन खरीद लेता है।


2. ‘अवैध कॉलोनी’ का लाइसेंस: ₹1 लाख प्रति एकड़

रुद्रपुर में रेरा (Real Estate Regulatory Authority) के नाम पर जो तमाशा हो रहा है, वह पूरे उत्तराखंड की नियोजन व्यवस्था पर कलंक है। रेरा और प्राधिकरण के कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से ऐसे दर्जनों “आंशिक स्वीकृत” प्रोजेक्ट चल रहे हैं जिनका क्षेत्रफल आधिकारिक रूप से 5 एकड़ बताया गया है, लेकिन जमीन पर 30 से 50 एकड़ तक प्लॉट काटे जा चुके हैं।

प्राधिकरण की जेब में जाता है — ₹1 लाख प्रति एकड़ का नगद शुल्क, और फाइल में लिखा जाता है “निरीक्षण लंबित”। इसके बाद कॉलोनी डेवलपर को खुली छूट मिल जाती है। जनता को बताया जाता है कि कॉलोनी “प्राधिकृत” है, जबकि उसका आधा हिस्सा नाले पर, जंगल पर या कृषि भूमि पर होता है।

यही कारण है कि जब विभागीय अधिकारी कहते हैं कि “हमने नोटिस भेजे, पक्ष सुना, फिर ध्वस्तीकरण किया”, तो यह बयान एक खोखला हास्य बनकर रह जाता है। क्योंकि नोटिस और पक्ष सुनना दरअसल उस लेन-देन का औपचारिक बहाना है जो पहले ही निपटा लिया गया होता है।


3. डीडीए: विकास का नहीं, दलालों का प्राधिकरण

उत्तराखंड में प्राधिकरणों का ढांचा मूलतः “विकास नियंत्रण” के लिए बना था। लेकिन आज यह दलालों के वैधानिक संरक्षण केंद्र में बदल चुका है। यहाँ बिना दलाली कोई नक्शा पास नहीं होता, कोई प्लान स्वीकृत नहीं होता और कोई कंपाउंड वॉल तक नहीं उठती।

डीडीए के अधिकारी खुद कॉलोनी डेवलपर्स से बेहतर रियल एस्टेट एक्सपर्ट बन चुके हैं। इनकी संपत्ति सूची अगर लोकायुक्त के समक्ष खोली जाए तो हैरान कर देने वाली होगी —

  • किसी के पास हल्द्वानी और देहरादून में करोड़ों के रिसॉर्ट,
  • किसी के नाम से हरिद्वार या बरेली में कृषि भूमि,
  • किसी के परिवार के नाम से सोना-चांदी के शोरूम,
  • और कुछ के बच्चे मेट्रो शहरों में रियल एस्टेट कंपनियों के डायरेक्टर हैं।

यह वही वर्ग है जो “बुलडोजर नीति” की आड़ में अपने पुराने सौदों के सबूत मिटा देता है। जनता को दिखाया जाता है कि कार्रवाई हुई, लेकिन अंदरखाने में फाइलें गायब, नक्शे बदल दिए जाते हैं, और दोषी नामों की जगह “अन्य” लिख दिया जाता है।


4. जनता के विश्वास की हत्या

सबसे दुखद पहलू यह है कि आम नागरिक, जो अपनी जीवनभर की पूँजी लगाकर एक प्लॉट खरीदता है, वही इस भ्रष्ट तंत्र का सबसे बड़ा शिकार बनता है। उसे यह यकीन दिलाया जाता है कि कॉलोनी “प्राधिकृत” है, लेकिन बाद में जब बुलडोजर चलता है तो घर नहीं, विश्वास टूटता है।

डीडीए जनता से अपील करता है कि “स्वीकृत नक्शा और रेरा नंबर देख लें।” यह अपील सुनने में अच्छी लगती है, पर क्या प्राधिकरण यह बताने को तैयार है कि पिछले तीन वर्षों में कितनी कॉलोनियों का नक्शा उसने स्वयं अपने पोर्टल पर सार्वजनिक रूप से अपलोड किया? कितनी बार जनता को वास्तविक जानकारी दी गई कि कौनसी कॉलोनी वैध है और कौनसी नहीं?

प्राधिकरण जानबूझकर यह अस्पष्टता बनाए रखता है ताकि भ्रम बना रहे और हर सौदा “डील” में बदल सके।


5. सत्ता के संरक्षण में पनपा ‘रेरा माफिया’

अवैध कॉलोनी माफिया केवल कुछ प्राइवेट बिल्डर नहीं हैं — यह एक सिंडिकेट है जिसमें शामिल हैं:

  • डीडीए और नगर निगम के कुछ अधिकारी,
  • भूमि अभिलेख विभाग के कर्मचारी,
  • स्थानीय राजनीतिक संरक्षक,
  • और पुलिस के कुछ “सहयोगी”।

जब तक यह तंत्र एकजुट है, कोई बुलडोजर इन्हें छू नहीं सकता। यही कारण है कि फौजी मटकोटा की कार्रवाई केवल सांकेतिक थी — एक नाटक, ताकि जनता को लगे कि “सरकार सख्त है।”

असल में यह वही रणनीति है जो माफिया तंत्र सालों से अपनाता आ रहा है —
छोटे अपराधियों को बलि देकर बड़े अपराधियों की रक्षा।


6. बुलडोजर का अर्थ: भ्रम और भय का प्रदर्शन

राजनीतिक रूप से बुलडोजर अब एक प्रतीक बन गया है — “कठोर प्रशासन” का, “कानून के राज” का। लेकिन रुद्रपुर की सच्चाई यह है कि बुलडोजर का उपयोग अब भ्रम और भय पैदा करने के लिए होता है, न कि सुधार के लिए।

क्योंकि अगर सचमुच सुधार का इरादा होता, तो:

  • पहले उन अधिकारियों की संपत्ति जांच होती जिन्होंने वर्षों तक इन कॉलोनियों को पनपने दिया।
  • प्राधिकरण के पुराने नक्शों और रजिस्ट्रियों का ऑडिट होता।
  • रेरा पंजीकरण की पारदर्शी सूची जनता के सामने लाई जाती।
  • और कॉलोनी डेवलपर्स से मिलीभगत में लिप्त इंजीनियरों को निलंबित किया जाता।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सिर्फ बुलडोजर चला — वह भी वहीं, जहाँ विरोध नहीं होगा, कैमरे मौजूद होंगे, और फाइलें सुरक्षित रहेंगी।


7. “जनता के लिए नहीं, व्यवस्था के लिए बुलडोजर”

यह कार्रवाई जनता के हित में नहीं, बल्कि व्यवस्था की सफाई के लिए थी — वह भी दिखावे की सफाई। क्योंकि जो असली गंदगी है, वह अब कुर्सियों में बैठ चुकी है।

डीडीए के सचिव पंकज उपाध्याय ने प्रेस नोट जारी कर “जनता से सावधानी बरतने” की अपील की। यह अपील उतनी ही व्यंग्यात्मक है जितना कि चोर का यह कहना कि “दरवाज़ा बंद कर लो, वरना चोरी हो जाएगी।”

जनता को सावधान करने से पहले अधिकारियों को जवाब देना चाहिए कि —

  • पिछले पाँच वर्षों में कितनी कॉलोनियों को अवैध घोषित किया गया?
  • कितने डेवलपर्स के खिलाफ FIR दर्ज हुई?
  • और कितनी बार डीडीए अधिकारियों पर स्वयं अनुशासनात्मक कार्यवाही हुई?

इन सवालों के उत्तर अगर ईमानदारी से दे दिए जाएँ, तो रुद्रपुर ही नहीं, पूरे उत्तराखंड की जमीनें सिसक उठेंगी।


8. उत्तराखंड के नौकरशाहों का साम्राज्य

यह कोई स्थानीय मसला नहीं है। देहरादून से लेकर किच्छा तक, हर जिले में यही कथा है —
जहाँ नौकरशाही माफिया ने “विकास” को व्यापार बना दिया है।
ये वही अफसर हैं जो उत्तराखंड राज्य बनने के बाद “सेवा” के नाम पर “संपत्ति” जुटाने में सबसे आगे रहे।

  • किसी ने मुख्यमंत्री कैंप में पोस्टिंग लेकर सरकारी जमीनों पर कब्जा कराया,
  • किसी ने आवासीय नक्शों को “कृषि उपयोग” घोषित करवा दिया,
  • और किसी ने अपने रिश्तेदारों के नाम से कॉलोनी रजिस्टर करा दी।

आज अगर लोकायुक्त या सीबीआई इन प्राधिकरणों के अफसरों की संपत्ति का हिसाब माँग ले, तो आधे अधिकारी जेल में होंगे। लेकिन ऐसा होगा नहीं, क्योंकि सत्ता और नौकरशाही का यह गठजोड़ ही उत्तराखंड की सबसे बड़ी “रेरा रियल्टी” है।


9. जनता की ज़िम्मेदारी — सवाल पूछो, डर मतो

अब वक्त है कि जनता केवल “कार्रवाई देखकर” संतुष्ट न हो।
सवाल पूछना ही लोकतंत्र का पहला कर्तव्य है।
हर प्लॉट खरीदने वाला नागरिक यह पूछे:

  • क्या यह कॉलोनी डीडीए/रेरा से अनुमोदित है?
  • क्या इसका मानचित्र वेबसाइट पर उपलब्ध है?
  • और क्या यह जमीन भू-राजस्व रिकार्ड में आवासीय घोषित है?

अगर ये जवाब नहीं मिलते, तो समझिए कि बुलडोजर अगली बार आपके दरवाजे पर आ सकता है — और तब कोई अधिकारी नहीं, सिर्फ कैमरे होंगे।


जब तक माफिया सत्ता में, बुलडोज़र केवल प्रतीक रहेगा

रुद्रपुर में जो बुलडोजर चला, वह केवल दीवारें नहीं गिरा रहा था — वह जनता की आँखों में धूल झोंकने की कला दिखा रहा था।

प्राधिकरण का यह “सांकेतिक अभियान” असली भ्रष्टाचार को नहीं रोक सकता, क्योंकि असली भ्रष्टाचार उन्हीं हाथों में है जो कल फिर फाइलें साइन करेंगे, नोटिस जारी करेंगे, और नई कॉलोनियों की मंजूरी देंगे।

उत्तराखंड का विकास तभी संभव है जब इस “प्राधिकरण-माफिया-सत्ता गठजोड़” को तोड़ा जाए। वरना बुलडोजर चलता रहेगा —
दीवारों पर, लेकिन अपराधियों पर नहीं।


(लेखक — संपादकीय डेस्क, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स)


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