
26 जुलाई—देश के लिए एक गर्व का दिन। एक ऐसा दिन जो केवल सैन्य विजय का प्रतीक नहीं, बल्कि उस सर्वोच्च बलिदान का स्मारक है, जिसे हमारे वीर सैनिकों ने भारत की सीमाओं की रक्षा में दिया था। कारगिल विजय दिवस, देशभक्ति, पराक्रम और अदम्य साहस का जीवंत प्रतीक है, जो हर भारतीय के हृदय में राष्ट्र प्रेम की लौ जलाए रखता है।
कारगिल युद्ध 1971 के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच पहला पूर्ण सैन्य संघर्ष था, जिसमें दोनों देश आमने-सामने युद्धभूमि में उतरे। लेकिन यह युद्ध सिर्फ सीमाओं के लिए नहीं लड़ा गया, यह युद्ध धोखे के विरुद्ध था—पाकिस्तान की उस साजिश के विरुद्ध, जिसमें उसके सैनिकों और आतंकवादियों ने भारतीय भू-भाग पर कब्जा करने की मंशा से घुसपैठ की थी।
3 मई 1999 को जब पहली बार चरवाहों ने भारतीय प्रशासन को पाकिस्तान की गतिविधियों की सूचना दी, तब किसी ने नहीं सोचा था कि अगले दो महीनों में 527 से अधिक भारतीय सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ेगी। ‘ऑपरेशन विजय’ के अंतर्गत जिस साहस और धैर्य से हमारी सेनाओं ने दुर्गम पहाड़ियों पर दुश्मन को खदेड़ा, वह केवल सैन्य इतिहास में ही नहीं, बल्कि देश के आत्मसम्मान में भी अमिट रूप से अंकित हो गया।
टोलोलिंग से टाइगर हिल तक: वीरता की वह ऊँचाइयाँ
टोलोलिंग, टाइगर हिल, प्वाइंट 4875, प्वाइंट 5060 जैसी चोटियाँ न सिर्फ भौगोलिक रूप से ऊँची थीं, बल्कि उन पर लड़ाई का स्तर भी साहस की चरम सीमा था। जब ऑक्सीजन की कमी में सांस लेना मुश्किल होता है, तब हमारे जवानों ने दुश्मन से लोहा लिया। भारतीय वायुसेना ने भी अचूक हमले कर दुश्मन के मंसूबों को तहस-नहस कर दिया।
युद्ध के इन कठिन क्षणों में कैप्टन विक्रम बत्रा की आवाज़ “ये दिल मांगे मोर” एक उद्घोष बनकर उभरी। उनका नाम आज भी बच्चों की पाठ्यपुस्तकों से लेकर हर देशभक्त के दिल में दर्ज है। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे, ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव, लेफ्टिनेंट बलवान सिंह, कैप्टन एन केंगुरुसे जैसे सैकड़ों जांबाजों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया, ताकि हम चैन की सांस ले सकें।
क्या हमने शहादत का मूल्य चुकाया है?
आज 26 वर्षों बाद, जब हम कारगिल विजय दिवस मना रहे हैं, यह केवल उत्सव नहीं, आत्मचिंतन का अवसर भी है। क्या हमने उन बलिदानों की गरिमा को कायम रखा है? क्या सीमाओं पर शहीद होने वाले जवानों के परिवारों को वो सम्मान मिला है जिसके वे अधिकारी हैं? क्या युद्ध में शहीद हुए किसानों के बेटों की कुर्बानी का जवाब हमने एक मजबूत और भ्रष्ट्राचार-मुक्त भारत बनाकर दिया है?
आज की राजनीति में जहां राष्ट्रवाद भी एक नारेबाज़ी बनकर रह गया है, वहां कारगिल विजय दिवस हमें याद दिलाता है कि देशप्रेम केवल चुनावी भाषणों में नहीं, बल्कि सीमा पर खून बहाने वाले सैनिकों की पीड़ा को समझने में है। हमें हर उस सैनिक की माँ के आँसू का मोल समझना होगा, जिसने अपना बेटा भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया।
कारगिल: केवल युद्ध नहीं, चेतना की चिंगारी
कारगिल युद्ध केवल दुश्मन की हार नहीं थी, यह भारत की चेतना का पुनर्जागरण था। यह उस भारत का परिचय था जो सहनशील तो है, लेकिन उसकी परीक्षा न ली जाए। यह उस सैनिक की गर्जना थी जो कहता है, “हम लड़ते हैं ताकि तुम्हें लड़ना न पड़े।”
आज जब देश 26वीं कारगिल विजय दिवस की वर्षगांठ मना रहा है, तब हमें केवल मोमबत्तियाँ जलाकर, सोशल मीडिया पोस्ट लिखकर रुकना नहीं चाहिए। हमें राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका को भी पुनः परिभाषित करना होगा।
स्मरण से संकल्प तक,कारगिल विजय दिवस केवल बीते युद्ध की स्मृति नहीं, बल्कि एक संकल्प का दिन है। यह संकल्प कि हम उन वीर शहीदों के सपनों का भारत बनाएंगे, जो जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर केवल एकता की बात करता है। यह संकल्प कि हर नागरिक, हर नेता, हर छात्र कारगिल के वीरों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में ईमानदारी, निष्ठा और सेवा का भाव रखेगा।
देश की सीमाएं तब सुरक्षित रहेंगी, जब देश के भीतर की सीमाएं मिटेंगी। और तब ही कारगिल की शहादत सार्थक होगी।
जय हिन्द। जय भारत।
शहीदों को शत-शत नमन।
✒️ विशेष संपादकीय स्तंभ | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
मुख्य संपादक: अवतार सिंह बिष्ट
(जिनका प्रथम संपादकीय लेख 1987 में ‘अमर उजाला’ में राज्य आंदोलन के संदर्भ में प्रकाशित हुआ था)

