संपादकीय: कोटाचामी के आंसू और गणित की गूंज – जब बच्चों के सपने सिस्टम की बेरुखी में खो जाएं!अफसरशाही की चुप्पी, नेताओं की बेरुखी

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संपादकीय: कोटाचामी के आंसू और गणित की गूंज – जब बच्चों के सपने सिस्टम की बेरुखी में खो जाएं

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता

लेखक: अवतार सिंह बिष्ट

(संपादक, शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स)

कहते हैं कि स्कूल सिर्फ इमारत नहीं होते, वो सपनों की प्रयोगशाला होते हैं। लेकिन जब उस प्रयोगशाला से गणित जैसा मूलभूत विषय ही गायब हो जाए, तो वहां भविष्य की कोई परिभाषा नहीं बचती। अल्मोड़ा जनपद के सल्ट ब्लॉक स्थित राजकीय इंटर कॉलेज कोटाचामी के छात्र आज इसी सच्चाई के बोझ तले दबे हैं। वो रोए, गुहार लगाई, वीडियो बनाकर मुख्यमंत्री को संदेश भेजा, शिक्षा मंत्री तक पहुंच बनाए, मगर जवाब में मिला केवल ‘कार्यालयी खामोशी’

यह स्थिति किसी एक स्कूल की नहीं, यह कहानी है उस “पहाड़ी व्यवस्था” की जो खुद को डिजिटल इंडिया कहती है, लेकिन आज भी एक विषय स्वीकृति के लिए छह-छह महीने दौड़ाती है। जिस सिस्टम में एक बच्चे का सपना एक फाइल की गति से बंधा हो, वहां शिक्षा नहीं, मजाक होता है।

कोटाचामी की गणितविहीन त्रासदी

गणित, जो हर प्रतियोगी परीक्षा की रीढ़ है, जो इंजीनियर और वैज्ञानिक बनने का पहला सीढ़ी है, वह विषय इस स्कूल में उपलब्ध नहीं है। परिणामस्वरूप, बच्चों को 10-12 किमी दूर दूसरे स्कूलों में जाना पड़ता है या फिर पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। लड़कियों के लिए यह दूरी एक अवरोध है, और लड़कों के लिए यह हताशा का कारण। नतीजा – नाम कट रहे हैं, और पलायन की मजबूरी हावी है।

ग्राम पंचायत भौनडंडा, डुंगरा, बूढ़ाकोट, गंगाश्री जैसे दूरस्थ गांवों के छात्र उम्मीद लगाकर स्कूल आते हैं, लेकिन सिस्टम से निराश होकर लौटते हैं। जिस राज्य की सरकार “रिवर्स माइग्रेशन” का नारा देती है, उस राज्य की शिक्षा व्यवस्था आज छात्रों को खुद मजबूर कर रही है पलायन के लिए।

अफसरशाही की चुप्पी, नेताओं की बेरुखी

स्थानीय प्रयासों से लेकर मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री तक को इस विषय में लिखा गया। सीईओ कार्यालय, बीईओ, डीएम और यहां तक कि क्षेत्रीय विधायक तक को ज्ञापन सौंपा गया, मगर किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। क्या यही है हमारा ‘सशक्त उत्तराखंड’?

शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत जी ने बात तो की, पर बातों का वो कागज अब तक किसी टेबल पर धूल फांक रहा है। अफसरशाही ने पत्रों की खानापूर्ति तो की, लेकिन पद सृजन और विषय स्वीकृति अभी तक फाइलों के कोनों में उलझी है। अगर सरकार को इन बच्चों की आंसुओं की कीमत समझ नहीं आती, तो वह सरकार नहीं, बाजार है – जिसमें सिर्फ वोट बिकते हैं, सपने नहीं देखे जाते।

कोटाचामी नहीं झुकेगा

इस स्कूल के बच्चों ने हार नहीं मानी। न कोई जनप्रतिनिधि उनका रिश्तेदार था, न कोई चुनावी समीकरण वहां से जुड़ा था। फिर भी कुछ जज्बाती नागरिक – जैसे कुलदीप सिंह रावत और उनके मित्र सोमपाल – बच्चों की आवाज बने। वीडियो बनाए, पत्र घसीटे, पैर पकड़े। यह लड़ाई अगर किसी ने लड़ी, तो “असली जनसेवकों” ने, जिन्हें कोई पद नहीं चाहिए, सिर्फ बदलाव चाहिए।

  1. राजकीय इंटर कॉलेज कोटाचामी में गणित विषय की तत्काल स्वीकृति दी जाए।
  2. स्थायी पद सृजन कर शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
  3. राज्य सरकार प्राथमिकता सूची में ऐसे दूरस्थ विद्यालयों को शामिल करे।
  4. मुख्यमंत्री खुद संज्ञान लेकर एक समय-सीमा तय करें – नहीं तो यह मामला केवल एक स्कूल का नहीं, सरकारी व्यवस्था की नाकामी का उदाहरण बन जाएगा।

सरकारें बड़े-बड़े आयोजन कर खुद की पीठ थपथपाती हैं – ‘इन्वेस्टर्स समिट’, ‘ग्लोबल उत्तराखंड’, ‘कौथिग’, ‘बनाश्री’ – लेकिन जब सवाल बच्चों की पढ़ाई और विषय की हो, तो वही सरकारें मौन साध लेती हैं

कोटाचामी के बच्चों की आंखों में अब भी सपना है – गणित पढ़ना है, इंजीनियर बनना है, वैज्ञानिक बनना है। क्या उत्तराखंड सरकार उस सपने की हत्या का अपराध अपने सिर लेना चाहती है?

यदि नहीं, तो अब देरी मत कीजिए – कागज से बाहर आइए, कोटाचामी पहुंचिए, और बच्चों से माफी मांगते हुए कहिए –

“हां, अब गणित शुरू होगा।”



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