उत्तराखंड के चमोली जिले से एक डेढ़ साल के मासूम की मौत की खबर न केवल एक परिवार का दुख है, बल्कि यह पूरे राज्य की ढहती स्वास्थ्य व्यवस्था पर एक क्रूर और खौफनाक टिप्पणी है। शुभांशु जोशी की मौत सिर्फ एक बच्चा खो देने की त्रासदी नहीं, बल्कि उस सरकारी मशीनरी की असफलता का साक्ष्य है, जो आम नागरिक को ‘जीवन’ के अधिकार की भी गारंटी नहीं दे सकती।


।✍️ अवतार सिंह बिष्ट |हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स रुद्रपुर (उत्तराखंड) उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
एक फौजी पिता – जो देश की सीमाओं की रक्षा कर रहा है – उसका अपना बच्चा इस सिस्टम की असंवेदनशीलता के आगे दम तोड़ देता है। यह विडंबना नहीं, बल्कि अपराध है।
स्वास्थ्य नहीं, सरकारी शवगृह बन गए हैं पहाड़ों के अस्पताल
ग्वालदम से बैजनाथ, बैजनाथ से बागेश्वर और फिर बागेश्वर से हल्द्वानी तक, डेढ़ साल का एक बीमार बच्चा लाचार मां की गोद में छटपटाता रहा और सिस्टम सिर्फ “रेफर” करता रहा। क्या उत्तराखंड के सरकारी अस्पताल अब “रेफर सेंटर” बनकर रह गए हैं? क्या इनका मकसद केवल मरीज को एक-दूसरे के पाले में धकेलना है?
शुभांशु के मामले में सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि उसे एक समय पर एंबुलेंस तक नहीं मिल सकी। यह उसी राज्य की सच्चाई है, जहां के नेताओं की भाषणबाजी में “हर गांव-हर घर स्वास्थ्य सेवाएं” जैसे जुमले गूंजते हैं।
सिस्टम नहीं, सड़ चुका है ज़मीर
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस घटना को “अत्यंत पीड़ादायक” कहा और जांच के आदेश दिए — पर क्या यह काफी है? जांचें तो हर त्रासदी के बाद होती हैं, लेकिन क्या इनका कोई परिणाम दिखता है? कितनी ही माताएं पहले भी अपने मासूमों को इस लापरवाह व्यवस्था के कारण खो चुकी हैं। और अब एक फौजी पिता को अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने के बाद सिस्टम को आइना दिखाना पड़ रहा है। यह प्रशासन की नहीं, शासन की भी हार है।
डॉक्टरों का गैरजिम्मेदार रवैया, बागेश्वर अस्पताल की लापरवाही और 108 सेवा की विफलता — ये सब मिलकर साबित करते हैं कि उत्तराखंड का स्वास्थ्य विभाग सिर्फ कागजों पर सक्रिय है। जनता का दर्द, उनके आंसू, उनकी गुहार — इन सबका यहां कोई मूल्य नहीं है।
जनता अब नारे नहीं, न्याय चाहती है
क्या राज्य सरकार इस मामले में केवल “आदेशित जांच” करके छुट्टी पा लेगी? या फिर पहली बार ऐसा कुछ होगा जो भविष्य में व्यवस्था को झकझोर सके? शुभांशु की मौत पर केवल संवेदना नहीं, बल्कि सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार डॉक्टर, एंबुलेंस समन्वयक और लापरवाह अधिकारियों को निलंबित और दंडित किया जाना चाहिए। अगर कोई अधिकारी जवाब नहीं देता या असंवेदनशीलता दिखाता है, तो यह केवल लापरवाही नहीं — यह एक मानव जीवन की हत्या के बराबर है।
यह सिर्फ शुभांशु की मौत नहीं है, यह पहाड़ की उम्मीदों की मौत है
हर बार चुनावी रैलियों में “डबल इंजन सरकार” का हवाला दिया जाता है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि चिडंगा गांव से हल्द्वानी तक एक एंबुलेंस की व्यवस्था तक नहीं हो पाई। पहाड़ में हर साल हजारों लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ते हैं, और सरकारें आंकड़ों के नीचे उन्हें दफन कर देती हैं।अगर यह सरकार संवेदनशील है, तो करे कुछ साहसिक?मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी यदि वास्तव में इस प्रकरण से “झकझोर” गए हैं, तो उन्हें सिर्फ ट्विटर पोस्ट से आगे बढ़कर ठोस कार्रवाई करनी होगी। लापरवाही करने वालों को बर्खास्त किया जाए, अस्पतालों की कार्यप्रणाली का सोशल ऑडिट कराया जाए, और 108 सेवाओं की जवाबदेही तय की जाए।
वरना यह सिस्टम फिर किसी और शुभांशु की सांसें निगल जाएगा। और अगली बार कोई और फौजी अपनी वर्दी की सलामी के साथ अपने बच्चे को मुखाग्नि देगा — सिस्टम की इस सड़ी हुई चुप्पी के बीच।
✍️ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स संपादकीय
लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता – उत्तराखंड
सम्पर्क: editorialdesk@hgtimes.in

