
ऊधमसिंहनगर जिले की राजनीति में इन दिनों एक अजीब-सी सरगर्मी है। सुरेश गंगवार के आरोपों ने सियासी गलियारों में हलचल और आम जनता में बेचैनी पैदा कर दी है। आरोप सीधे सत्ता पक्ष के एक कैबिनेट मंत्री पर हैं, जिन पर जिला पंचायत चुनाव की निष्पक्षता प्रभावित करने का आरोप लगा है। कहा जा रहा है कि मत्स्य पालन विभाग के अधिकारी, जो इस चुनाव प्रक्रिया में अहम भूमिका निभा रहे हैं, मंत्री के दबाव में काम कर रहे हैं।
संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
यह सवाल कोई मामूली सवाल नहीं है। यह सीधा-सीधा लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट करता है। पंचायत चुनावों की सबसे बड़ी खूबसूरती यही मानी जाती है कि आम जनता का सीधा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है। मगर जब सत्ता की पकड़ इतनी मज़बूत हो जाए कि वह पूरी चुनावी प्रक्रिया को अपनी अंगुलियों पर नचाने लगे, तब लोकतंत्र का स्वरूप ‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन’ नहीं बल्कि ‘नेताओं के लिए, नेताओं द्वारा, नेताओं का शासन’ बनकर रह जाता है।
सुरेश गंगवार के आरोप केवल व्यक्तिगत नहीं हैं। वे एक बड़ी राजनीतिक परम्परा और विडम्बना की ओर इशारा करते हैं। गंगवार का कहना है कि 2008 में उनकी माता पुष्पा गंगवार को हराने के लिए सत्ता का दुरुपयोग हुआ था। आज फिर वही दावे दोहराए जा रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर सत्ता में बैठने वाले लोग अपने राजनीतिक हितों की खातिर संस्थानों को क्यों कठपुतली बना डालते हैं? क्यों जनता का भरोसा लोकतांत्रिक संस्थाओं से उठता जा रहा है?


और यह केवल चुनावी लड़ाई का मुद्दा नहीं है। यह विकास, कल्याण और सामाजिक न्याय से भी जुड़ा सवाल है। आरोप यह भी हैं कि आरक्षण नीति की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। जिन सीटों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित होना चाहिए था, उन्हें नियमों को ताक पर रखकर अन्य वर्गों को दे दिया गया। क्या यह केवल चुनावी गणित है या सामाजिक न्याय पर सीधी चोट?
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में, जहाँ राज्य गठन का सपना ही लोगों की भागीदारी और विकास पर टिका था, वहीं सत्ता का खेल इतना गहरा और तिलिस्मी हो चुका है। आज सत्ता किसी एक पार्टी की नहीं, बल्कि एक मानसिकता की हो गई है – कुर्सी बचाओ, कब्जा बनाए रखो, चाहे जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाएँ कितनी भी कुचलनी क्यों न पड़े।
आगामी पंचायत चुनाव निश्चित रूप से ऊधमसिंहनगर ही नहीं, पूरे प्रदेश की राजनीतिक दिशा तय करेंगे। जनता को अब और सजग रहने की ज़रूरत है। यदि लोकतंत्र को वास्तव में जीवित रखना है, तो उसे नेताओं के तिलिस्म और सत्ता के गणित से मुक्त करना होगा। निष्पक्षता, पारदर्शिता और न्याय – यही लोकतंत्र की असली पहचान है। और यह जिम्मेदारी सिर्फ चुनाव आयोग या सरकारी अफसरों की नहीं, बल्कि हम सबकी है।
उत्तराखंड के मतदाताओं को यह याद रखना होगा कि लोकतंत्र में सबसे बड़ा मंत्री या नेता नहीं, बल्कि जनता होती है। और जनता की सत्ता ही असली सत्ता है।

