संपादकीय :फर्जी राजनीतिक दलों के नाम पर 5500 करोड़ का घोटाला — उत्तराखंड के लिए चेतावनी की घंटी

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देश में लोकतंत्र की जड़ें तभी मजबूत हो सकती हैं जब राजनीति पवित्र और पारदर्शी रहे। लेकिन आयकर विभाग की हालिया जांच ने यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीति अब कई जगहों पर “धन कमाने का धंधा” बन चुकी है। विभाग ने देशभर में फैले 5,500 करोड़ रुपये के फर्जी राजनीतिक दान घोटाले का खुलासा किया है — यह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी कर-पंचिंग (tax evasion through politics) साजिश बताई जा रही है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

जांच में पाया गया कि 63 राजनीतिक दल ऐसे थे जो केवल “कागज़ पर अस्तित्व” रखते थे। इन दलों की कोई सक्रिय राजनीतिक गतिविधि नहीं थी, न कार्यालय, न कार्यकर्ता, न वैध लेखा-परीक्षण। फिर भी इनके नाम से हजारों “चंदे” की रसीदें जारी की गईं — वह भी एक जैसी हैंडराइटिंग में! यह सब एक “सेंट्रल नेटवर्क” के तहत किया जा रहा था जिसमें बिचौलिए और तथाकथित प्रभावशाली लोग शामिल थे। “राउंड ट्रिपिंग” के ज़रिए दानदाता पैसे को इन्हीं दलों को देकर टैक्स कटौती का लाभ लेते और फिर वही पैसा कमीशन काटकर नकद वापस ले लेते थे। नतीजा — सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ का नुकसान, और लोकतंत्र के नाम पर खुला मज़ाक।

यह मामला बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से शुरू होकर दिल्ली और महाराष्ट्र तक फैला है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड इससे अछूता है?

उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे “छोटे दल” उभरे हैं जो न तो किसी वैचारिक जनाधार से जुड़े हैं, न किसी जनआंदोलन से। कुछ रजिस्टर्ड हैं, पर ज़मीन पर उनका अस्तित्व नहीं है। ऐसे में यह जांच राज्य के लिए भी एक गंभीर संकेत है — क्योंकि अगर बिहार, गुजरात, यूपी में यह नेटवर्क फैल सकता है, तो छोटे राज्यों में यह और भी आसान है।

राज्य में कुछ दलों और संगठनों द्वारा बीते वर्षों में फर्जी चंदा रसीदें काटने, बिना हिसाब के नकदी लेने या “राज्य आंदोलन” और “सामाजिक सेवा” के नाम पर दान लेने की शिकायतें भी कई बार सार्वजनिक चर्चाओं में आई हैं। इन पर कभी कोई गहन जांच नहीं हुई। अब जबकि केंद्र स्तर पर इस तरह का महाघोटाला सामने आया है, तो उत्तराखंड चुनाव आयोग और आयकर विभाग की संयुक्त जांच ज़रूरी हो गई है — ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कहीं यहां भी “Registered Unrecognised Political Parties” (RUPPs) के नाम पर टैक्स माफ़ी और फर्जी दान का खेल तो नहीं चल रहा।

लोकतंत्र में राजनीतिक दल केवल चुनाव लड़ने का माध्यम नहीं, बल्कि जनता की आकांक्षाओं के संवाहक होते हैं। लेकिन जब वही दल फर्जीवाड़े के औजार बन जाएं, तो लोकतंत्र की आत्मा आहत होती है।

उत्त्तराखंड के संदर्भ में यह घोटाला दो सवाल उठाता है:

  1. क्या यहां भी कुछ तथाकथित छोटे दल चंदे और टैक्स छूट के नाम पर आर्थिक अपराध में लिप्त हैं?
  2. क्या राज्य के आयकर विभाग और निर्वाचन आयोग ने ऐसे “पंजीकृत लेकिन निष्क्रिय दलों” की ऑडिट रिपोर्ट कभी देखी है?

यह आवश्यक है कि राज्य सरकार और स्थानीय आयकर इकाइयाँ इन 63 दलों के नेटवर्क की स्थानीय कड़ियाँ तलाशें — क्योंकि इस तरह के अपराध केवल दिल्ली या मुंबई में नहीं, बल्कि छोटे शहरों, कस्बों और यहां तक कि ग्राम पंचायत स्तर पर भी फैल चुके हैं।

यह घटना सिर्फ वित्तीय घोटाला नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक गहरा प्रहार है। अब वक्त है कि भारत के चुनाव आयोग को RUPPs (Registered Unrecognised Political Parties) की नई नीति बनानी चाहिए — जिसमें हर दल को वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट, बैंक स्टेटमेंट और सदस्यता रजिस्टर सार्वजनिक करना अनिवार्य हो।

उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में जहां राजनीति अक्सर भावनाओं, धर्म, और स्थानीय पहचान के नाम पर संचालित होती है, वहां इस तरह का वित्तीय भ्रष्टाचार जनता के विश्वास को खोखला कर देगा।

यह घोटाला केवल राष्ट्रीय शर्म नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक पतन का संकेत है। अगर इस पर सख्त कार्रवाई नहीं हुई, तो भविष्य में “राजनीति” को “काला धन वैध करने की प्रयोगशाला” बना दिया जाएगा।

अब ज़रूरत है एक “राजनीतिक शुद्धिकरण” अभियान की — ताकि जनता का विश्वास फिर से लौटा सके और उत्तराखंड जैसे ईमानदार प्रदेश को इस महामारी से पहले ही बचाया जा सके।


लेखक:
अवतार सिंह बिष्ट
वरिष्ठ संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
रुद्रपुर, उत्तराखंड, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी


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