संपादकीय ,सेवा, सुशासन और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के 11 वर्ष – लेकिन क्या उत्तराखंड अब भी राज्य आंदोलनकारियों के सपनों के अनुरूप है?” ✍️ अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संपादकीय – शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

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रुद्रपुर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने 11 वर्ष पूर्ण किए हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून स्थित भाजपा प्रदेश मुख्यालय में इसे “न भूतो न भविष्यति” वाला कालखंड बताया। उन्होंने 2014 से शुरू हुई इस यात्रा को अभूतपूर्व बताया, जहां राष्ट्रवाद, गरीब कल्याण और सुशासन की संस्कृति ने देश को चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर किया है।

बेशक, इन 11 वर्षों में केंद्र सरकार ने सेवा, सुशासन और गरीबों के लिए योजनाओं की झड़ी लगा दी — उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत, पीएम आवास योजना, जनधन योजना, रोड कनेक्टिविटी, रक्षा निर्यात में वृद्धि और महिला सशक्तिकरण। ये सब उपलब्धियां कागज़ों पर और सरकार की नजर में “स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य” हो सकती हैं।

परंतु, आइए इस प्रकाशमय परिप्रेक्ष्य में एक ईमानदार सवाल पूछें — क्या उत्तराखंड, वह प्रदेश जिसे राज्य आंदोलनकारियों ने बलिदान देकर रचा, सचमुच उन सपनों के अनुरूप बन रहा है? क्या 25 साल बाद भी हम उस शहीदों के उत्तराखंड की बात कर सकते हैं जिसका सपना बिनाकुर्सी धरनों, लाठियों और शहादतों के सहारे बुना गया था?


❖ सेवा और सुशासन की सीमाएं: उत्तराखंड की हकीकत

मुख्यमंत्री धामी अपने भाषण में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और समान नागरिक संहिता जैसी पहल को गर्व के साथ प्रस्तुत करते हैं। लेकिन क्या इन वैचारिक घोषणाओं के समानांतर उत्तराखंड में प्रशासनिक व्यवस्था उतनी ही सुदृढ़ हुई है?

  • पंचायती लोकतंत्र में ठहराव: प्रदेश की 343 जिला पंचायतों, 2936 क्षेत्र पंचायतों और 7505 ग्राम पंचायतों का कार्यकाल दिसंबर 2024 में समाप्त हो गया था। छह महीने की प्रशासक प्रणाली भी समाप्त हो चुकी है, परंतु चुनाव नहीं हुए। क्या यह लोकतंत्र का मजाक नहीं?

  • शहीद आंदोलनकारियों की उपेक्षा: जिन आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड की लड़ाई लड़ी, वे आज भी मूलभूत पेंशन, पहचान और सम्मान को तरस रहे हैं। उनकी संतानों को सरकारी नौकरियों में वरीयता नहीं मिली, और कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाई गई।

  • प्राकृतिक आपदाओं में असहाय व्यवस्था: 2023-24 में जोशीमठ जैसी त्रासदी हुई, पर पुनर्वास अब भी अधर में है। मलबों में दबे घरों की जगह “नैतिकता और आस्था” की बातें की गईं, पुनर्निर्माण की ठोस योजना नहीं।

  • युवाओं की बेरोजगारी और पलायन: जिन युवाओं ने राज्य के लिए संघर्ष किया था, उनकी संतानों को आज रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई या गुजरात भागना पड़ रहा है। पेपर लीक, फर्जी नियुक्तियां और परीक्षा घोटालों से प्रदेश का युवा हताश है।


❖ मोदी सरकार की 11 साल की उपलब्धियों में उत्तराखंड की जगह कहां?

जब मुख्यमंत्री धामी कहते हैं कि 11 सालों में 25 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले, तो सवाल उठता है — क्या उत्तराखंड की गरीबी में भी वही गति आई?

  • चंपावत, बागेश्वर, पिथौरागढ़, और चमोली जैसे जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं जर्जर हैं। आधुनिक अस्पतालों की बजाय, गरीब जनजातियों को अभी भी ‘फार्मासिस्ट-डॉक्टर’ या ‘झोला छाप’ चिकित्सकों पर निर्भर रहना पड़ता है।

  • पीएम आवास योजना का लाभ किसे मिला? कई पत्रकारों की रिपोर्ट बताती हैं कि ज़रूरतमंदों की जगह सत्ताधारी दलों से जुड़े लोग लाभ उठा रहे हैं।

  • क्या उत्तराखंड में “उड़ान योजना” जैसी योजनाएं गांव-गांव तक पहुंची हैं, या फिर सिर्फ देहरादून, पंतनगर और हल्द्वानी जैसे गिने-चुने शहरों तक ही सीमित रह गई हैं?


❖ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम लोकसंस्कृति

मोदी युग में “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” की बात होती है, पर क्या यह उत्तराखंड की लोकसंस्कृति को समृद्ध करने में मदद कर रही है?

  • लोककला, झोड़ा, चांचरी, हुड़का-बौल, रम्माण, ये सब नीतियों से गायब हैं।
  • राज्य आंदोलनकारी गाथाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में जगह क्यों नहीं मिली? क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा सिर्फ चुनिंदा ‘राष्ट्रीय प्रतीकों’ तक सीमित रह गई है?


एक अदृश्य उत्तराखंड और अदेखे सवाल

केंद्र में भले ही 11 वर्षों का “स्वर्णकाल” हो, परंतु उत्तराखंड में यह काल मौन और मंथन का विषय होना चाहिए।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उनका विजन शहीद आंदोलनकारियों के स्वप्नवत उत्तराखंड के करीब है? क्या उन्होंने युवाओं, मातृशक्ति, पलायन रोकने और पारदर्शी प्रशासन की तरफ ठोस कदम उठाए हैं?

जब भाजपा अपने 11 वर्षों की यात्रा को जश्न के रूप में मना रही है, तो यह जरूरी है कि उत्तराखंड जैसे छोटे लेकिन संघर्षशील राज्य में यह विचार किया जाए — क्या यह सरकार भी उस राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बन गई है, जो वादों से शुरू होती है और आंकड़ों में खुद को महान साबित करती है, लेकिन ज़मीन पर संघर्षों की आवाज नहीं सुनती?


आज उत्तराखंडी जनता को यह आत्मनिरीक्षण करना होगा —

“हमने जो उत्तराखंड मांगा था, क्या वह इसी राजनीति में दब कर रह गया है?”

“क्या हम सिर्फ ‘सेवा और सुशासन’ के नारों में उलझे रह जाएंगे, या आंदोलन की अग्नि को फिर से अपने हक के लिए जलाएंगे?”

✍️ जब तक उत्तराखंड के शहीदों का सपना साकार नहीं होता, तब तक कोई भी कालखंड स्वर्णाक्षरों में नहीं लिखा जा सकता — चाहे वह 11 साल का हो या 111 साल का।


सम्पादक: अवतार सिंह बिष्ट

(रूद्रपुर से विशेष संपादकीय | संपर्क: shailglobaltimes@gmail.com)


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