
उत्तराखंड,दून की शांत वादियों में जब चिकित्सा शिक्षा के मंदिर — दून मेडिकल कॉलेज — से यह समाचार बाहर आया कि पुरुष छात्रावास में देर रात शराब, नशा, नृत्य और नग्नता का तमाशा हुआ, तो पूरा उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश का चिकित्सक समाज भी स्तब्ध रह गया। यह घटना केवल कॉलेज के अनुशासन या छात्रों की व्यक्तिगत मर्यादा का मामला नहीं है, बल्कि यह उस नैतिक पतन का संकेत है, जो चिकित्सा शिक्षा की जड़ों में दीमक बनकर घुस चुका है।

रात के सन्नाटे में पार्टी, शराब, और नशे में बेसुध होकर कपड़े उतार कर नृत्य करना, फिर पुलिस के आने पर उनसे उलझना — यह कोई साधारण शरारत नहीं है। यह उस मानसिकता का परिचायक है जो “सेवा” के पेशे को “मज़े” का मंच समझ चुकी है। जिस हॉस्टल में कभी नाइट स्टडी, मेडिकल नोट्स और ड्यूटी चार्ट्स की चर्चा होती थी, वहां अब शराब की बोतलें और तेज़ डीजे की धुनें गूंजने लगी हैं।
यह घटना क्यों शर्मनाक है?सबसे पहले तो यह समझना होगा कि मेडिकल कॉलेज केवल पढ़ाई की जगह नहीं, बल्कि “चरित्र निर्माण” का भी केंद्र होता है। एक डॉक्टर सिर्फ़ बीमारियों का इलाज नहीं करता, वह समाज में विश्वास और अनुशासन का प्रतीक होता है। और जब डॉक्टर बनने की तैयारी में लगे छात्र इस तरह की हरकतें करते हैं, तो यह पूरी चिकित्सा बिरादरी की साख पर धब्बा लग जाता है।
जिस तरह से महिला डॉक्टर्स की उपस्थिति में यह कृत्य हुआ, वह नैतिकता की सभी सीमाएं तोड़ता है। यह “स्वतंत्रता” नहीं, बल्कि “अराजकता” का प्रदर्शन है।
प्रिंसिपल की कार्यवाही और प्रशासन की जिम्मेदारी?सूत्रों के अनुसार, कॉलेज प्रिंसिपल ने कुछ छात्रों पर जुर्माना लगाया है और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई है। यह कदम सराहनीय है, लेकिन सवाल यह है — क्या इतना पर्याप्त है?
क्या महज़ जुर्माना लगाकर हम आने वाले डॉक्टरों को यह संदेश देना चाहते हैं कि “थोड़ी मस्ती चलती है”?
उत्तराखंड की सरकार और स्वास्थ्य विभाग को इस मामले में गम्भीरता से हस्तक्षेप करना चाहिए।
डॉ. एल.एम. उप्रेती, जो राज्य स्वास्थ्य विभाग में डायरेक्टर रह चुके हैं, और उनकी पत्नी डॉ. अमिता उप्रेती, जो डीजी हेल्थ पद से हाल ही में सेवानिवृत्त हुई हैं, दोनों ने सही कहा है कि — “यह केवल अनुशासन का नहीं, बल्कि संस्कृति के पतन का प्रश्न है। चिकित्सा जैसे पवित्र व्यवसाय में ऐसी घटनाएं अस्वीकार्य हैं।”
1500 डॉक्टर हर साल” – पर क्या यही योग्य हैं?
सरकार गर्व से कहती है कि उत्तराखंड से हर साल लगभग 1500 डॉक्टर तैयार हो रहे हैं।
पर सवाल है — किस गुणवत्ता के डॉक्टर?
क्या ये वही डॉक्टर हैं जो ड्यूटी टाइम में सेल्फी लेते हैं, या फिर पार्टी में नशे में चूर होकर नग्न नृत्य करते हैं?
अगर यही शिक्षा की दिशा है, तो यह केवल स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए नहीं, बल्कि समाज की नैतिकता के लिए भी खतरे की घंटी है।
एक ओर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है — मरीज घंटों लाइन में खड़े रहते हैं, महिलाएं प्रसव के लिए एम्बुलेंस में दम तोड़ देती हैं — वहीं दूसरी ओर, राजधानी देहरादून में डॉक्टर बनने वाले युवा “मस्ती की प्रयोगशाला” चला रहे हैं।
व्यवस्था की चूक: कौन है जिम्मेदार?
यह सवाल केवल छात्रों से नहीं, बल्कि व्यवस्था से भी पूछा जाना चाहिए।
क्या हॉस्टल में कोई मॉनिटरिंग सिस्टम नहीं था?क्या सुरक्षा कर्मी सो रहे थे?क्या प्रशासन ने रात के समय शराब और पार्टी पर रोक नहीं लगाई थी?
अगर कॉलेज प्रशासन की नाक के नीचे शराब और संगीत का यह कांड हुआ, तो यह “व्यवस्था की सहमति” के बिना संभव नहीं।
इसलिए यह केवल छात्रों का अपराध नहीं, बल्कि कॉलेज प्रशासन और स्वास्थ्य शिक्षा विभाग की भी संस्थागत विफलता है।
चिकित्सा शिक्षा में बढ़ती ‘नैतिक दिवालियापन’ की बीमारी?यह घटना कोई एकाकी उदाहरण नहीं है।
देश के कई मेडिकल कॉलेजों में पिछले कुछ वर्षों में रैगिंग, यौन उत्पीड़न, ड्रग्स और फर्जी उपस्थिति जैसी घटनाएं सामने आई हैं।
यह बताता है कि शिक्षा का उद्देश्य “डिग्री” तक सीमित रह गया है, “संस्कार” का स्थान “स्वार्थ” ने ले लिया है।
आज डॉक्टर बनने की दौड़ में छात्र पढ़ तो बहुत लेते हैं, पर समझते कम हैं।
उन्हें एमबीबीएस की किताबें याद होती हैं, पर “मानवता” की परिभाषा भूल जाती है।
उन्हें शरीर की संरचना पता होती है, लेकिन आत्मा का महत्व नहीं समझ आता।
समाज पर प्रभाव: जब डॉक्टर ही रोगी बन जाएं?यह केवल कॉलेज की चारदीवारी के भीतर की बात नहीं है। जब समाज यह दृश्य देखता है कि डॉक्टर बनने वाले छात्र इस स्तर तक गिर चुके हैं, तो उनके प्रति सम्मान भी कम होता है।
एक मरीज डॉक्टर के पास सिर्फ इलाज नहीं, बल्कि भरोसा लेकर जाता है। अगर यही भरोसा टूटने लगे, तो समाज में “अविश्वास का रोग” फैल जाएगा।
ऐसी घटनाएं भविष्य के डॉक्टरों को नहीं, बल्कि “भविष्य के खतरे” को जन्म देती हैं।
डॉ. उप्रेती दंपत्ति का दृष्टिकोण: “शर्मनाक और आत्ममंथन का अवसर”

पूर्व निदेशक डॉ. एल.एम. उप्रेती और पूर्व स्वास्थ्य महानिदेशकडॉ. अमिता उप्रेती ने सही कहा है —यह केवल मेडिकल कॉलेज की नहीं, पूरे उत्तराखंड की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। जिस राज्य ने हिमालय जैसी पवित्रता, गंगा जैसी पावनता और सेवा की परंपरा को जन्म दिया, वहां ऐसे दृश्य अत्यंत शर्मनाक हैं। सरकार को चाहिए कि वह इस पर तत्काल जांच बैठाए और दोषियों को कड़ी सज़ा दे।”
उनका यह दृष्टिकोण केवल आलोचना नहीं, बल्कि आत्ममंथन का आह्वान है।
सरकार के लिए चेतावनी: चिकित्सा शिक्षा का “रोग” गहराता जा रहा है?राज्य सरकार को इस घटना को एक “संयोग” नहीं बल्कि “संकेत” के रूप में लेना चाहिए।
अगर अभी भी सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड की चिकित्सा शिक्षा का नाम “अनुशासन” से नहीं, बल्कि “अराजकता” से जोड़ा जाएगा।
मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री को चाहिए कि:
- कॉलेज प्रशासन की जवाबदेही तय करें।
- मेडिकल कॉलेजों में “एथिक्स एंड बिहेवियर” पर अनिवार्य कोर्स शुरू करें।
- नशे और अनुशासन भंग करने वाले छात्रों को तत्काल निलंबित करें।
- सभी हॉस्टलों में CCTV और नाइट सुपरविजन अनिवार्य करें।
अब मौन नहीं, सुधार की मांग?चिकित्सा एक “धर्म” है, कोई “मनोरंजन” नहीं।
हमारे मौन रहने का मतलब मौन स्वीकृति नहीं होना चाहिए।
अब समय है कि समाज, सरकार और चिकित्सा समुदाय — सभी मिलकर इस पतन के विरुद्ध आवाज़ उठाएँ।
यह कोई “स्टेज शो” नहीं था जिस पर ताली बजाई जाए।
यह उत्तराखंड की आत्मा पर लगा कलंक है, जिसे धोने की जिम्मेदारी हम सबकी है।
लेखक का संदेश:दून मेडिकल कॉलेज की यह घटना केवल कॉलेज का मामला नहीं, बल्कि चिकित्सा शिक्षा की पूरी व्यवस्था की आत्मा को झकझोरने वाला दर्पण है। अगर हमने अभी भी इसे मज़ाक में लिया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।”


