
हल्द्वानी का डॉ. सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय व मेडिकल कॉलेज उत्तराखंड की चिकित्सा व्यवस्था का प्रतीक संस्थान होना चाहिए था, पर यह आज भी “ट्रस्ट कालीन भ्रष्टाचार” की गिरफ्त में है। नाम भले ही राजकीय हो गया, पर कार्यप्रणाली अब भी ट्रस्ट जैसी मनमानी और अपारदर्शी है।

यहाँ ऐसे 30-40 कर्मचारी कार्यरत हैं जिनके पद शासन में स्वीकृत ही नहीं, फिर भी वे लाखों का वेतन ले रहे हैं। फर्जी एमबीए, लैब टेक्नीशियन और सोशल वर्कर डिग्रियों के सहारे अयोग्य लोग प्रमुख विभागों में बैठे हैं। डार्क रूम असिस्टेंट रेडियोलॉजी टेक्नीशियन बन गए हैं, लैब सहायक लैब टेक्नीशियन बन बैठे हैं—और जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
सबसे शर्मनाक यह कि योग्य डॉक्टरों के ऊपर ये “प्रबंधक वर्ग” हावी है। प्राचार्य तक इनके दबाव में निर्णय लेने से हिचकते हैं। यह संस्थान अब चिकित्सा केंद्र नहीं, भ्रष्ट तंत्र का आश्रयगृह बन चुका है।
मुख्यमंत्री धामी को अब निर्णायक कदम उठाने होंगे। यहां एसआईटी या विजिलेंस जांच कर फर्जी योग्यता और गैरजरूरी पदों पर बैठे लोगों को बर्खास्त किया जाए। यह केवल अस्पताल नहीं, उत्तराखंड की जनता के भरोसे का प्रश्न है।
अगर व्यवस्था की यह सड़ांध नहीं रोकी गई तो “राजकीय” शब्द केवल नाम रहेगा, आत्मा नहीं।
उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल का सबसे बड़ा स्वास्थ्य संस्थान — डॉ. सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय एवं राजकीय मेडिकल कॉलेज, हल्द्वानी, आज एक गहरी प्रशासनिक बीमारी से ग्रस्त है। यह वह संस्थान है, जो कभी प्रदेश की चिकित्सा व्यवस्था का गौरव हुआ करता था, लेकिन आज “राजकीय” कहलाने के बावजूद “ट्रस्ट वाली मानसिकता” से संचालित हो रहा है।
✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
ट्रस्ट की विरासत: नाम बदला, काम नहीं
अप्रैल 2010 तक यह संस्थान वन एवं ग्रामीण विकास निगम (FRTD) के अधीन एक ट्रस्ट द्वारा संचालित था। उस व्यवस्था में आईएफएस अधिकारी सचिव, और पीएफएस अधिकारी उप सचिव के पद पर होते थे। ट्रस्ट के दौर में नियुक्तियों का खेल खुलकर खेला गया — प्रबंधक, उप प्रबंधक, सहायक जनसंपर्क अधिकारी, फ्रंट डेस्क एक्जीक्यूटिव, मेडिकल सोशल वर्कर, सोशल वर्कर जैसे पद सृजित कर मनमर्जी से चहेते लोगों को बैठा दिया गया।
राज्य सरकार ने जब 2010 में इस संस्थान को राजकीय कर दिया, तो उम्मीद थी कि ट्रस्टकालीन भ्रष्टाचार समाप्त होगा और एक नई पारदर्शी व्यवस्था बनेगी। लेकिन हुआ उल्टा — ट्रस्ट का ढांचा हट गया, पर ट्रस्ट की कार्यप्रणाली जस की तस रह गई।
अयोग्यता की फसल और फर्जी योग्यता की फाइलें
आज भी यहाँ 30-40 ऐसे कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनके पदों की न तो शासन में कोई स्वीकृति है, न इनकी किसी विभागीय संरचना में कोई भूमिका। ये लोग लाखों का वेतन उठाते हैं, पर इनका काम क्या है — यह न प्राचार्य को स्पष्ट है, न विभाग को।
इनमें कई ऐसे हैं जो “फ्रंट डेस्क एक्जीक्यूटिव” या “सहायक जनसंपर्क अधिकारी” के नाम पर विभागों में ऐसे काम कर रहे हैं जहाँ से उन्हें “अतिरिक्त लाभ” मिलता है। जनता की सेवा और सूचना देने का कार्य छोड़, ये कर्मचारी ऐसे विभागों में जमे हैं जहाँ से धन प्रवाह होता है — चाहे वह फार्मेसी हो या क्रय विभाग।
कई मामलों में मेडिकल सोशल वर्कर और हेल्थ इंस्पेक्टर जैसे लोग, जिनका कार्य जनजागरूकता और स्वास्थ्य कैंपों में जनता से जुड़ना होना चाहिए, वे फार्मेसी प्रभारी बन बैठे हैं। यह स्थिति न केवल सेवा-नैतिकता का उल्लंघन है, बल्कि स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ खुला मज़ाक है।
योग्यता पर फर्जी डिग्रियों का रंग-रोगन
सूत्र बताते हैं कि इन पदों पर बैठे कई कर्मचारी मूल रूप से अयोग्य थे। बाद में इन्होंने बाहरी राज्यों के फर्जी संस्थानों से MBA, लैब टेक्नीशियन या पैरामेडिकल कोर्स की डिग्रियाँ लगाकर अपने पदों को वैध ठहराने का खेल खेला।
यही कारण है कि आज आवश्यक है कि इन कर्मचारियों की शैक्षणिक योग्यता, प्रशिक्षण प्रमाणपत्र, और रजिस्ट्रेशन नंबरों की एसआईटी या विजिलेंस जांच हो। क्योंकि जिस दिन यह जांच ईमानदारी से हो जाएगी, कई नामचीन चेहरों की पोल खुल जाएगी जो वर्षों से जनता के टैक्स के पैसे पर बिना काम के ऐश कर रहे हैं।
डार्क रूम असिस्टेंट से रेडियोलॉजी टेक्नीशियन!
संस्थान की व्यवस्था का एक और चौंकाने वाला पहलू यह है कि यहाँ डार्क रूम असिस्टेंटों को रेडियोलॉजी टेक्नीशियन बना दिया गया है। यानी जो व्यक्ति सिर्फ फिल्म बदलने या मशीन ऑपरेट करने का सहायक था, आज वह MRI और CT स्कैन रिपोर्ट बना रहा है। सोचिए — जब रिपोर्ट की बुनियाद ही अयोग्य हाथों में होगी तो इलाज कितना सटीक होगा?
इसी तरह कई लैब सहायकों को लैब टेक्नीशियन बना दिया गया है। जिनके पास न तो मान्यता प्राप्त डिग्री है, न प्रशिक्षित तकनीकी ज्ञान — और वही लोग रोगी का ब्लड सैंपल लेकर रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में मरीजों का उपचार कितनी गलत रिपोर्टों पर आधारित होगा, यह अनुमान लगाया जा सकता है।
राजकीयकरण का खोखलापन: शासन की अनुमति के बिना नियुक्तियाँ
संस्थान के राजकीय होने के बाद भी तत्कालीन प्राचार्य ने बिना पद सृजन करवाए और बिना शासन की अनुमति के, सैकड़ों कर्मचारियों को आउटसोर्सिंग माध्यम से नियुक्त कर दिया। इनमें से कई चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी बाद में लिपिक और पर्यवेक्षक बना दिए गए।
जब शासन को इसकी भनक लगी, तो 6-7 महीने का वेतन रोक दिया गया। पर इसके बावजूद सुधार नहीं हुआ। आज भी वे ही पुराने लोग संस्थान की नीतियों और प्राचार्य के काम में हस्तक्षेप करते हैं।
भ्रष्ट संरचना की जड़ें और जिम्मेदारी से बचाव
हल्द्वानी का यह मेडिकल कॉलेज राज्य का एकमात्र ऐसा सरकारी संस्थान है, जहाँ अब भी अनावश्यक पदों पर लोग कार्यरत हैं। उत्तराखंड के सातों मेडिकल कॉलेजों में इस तरह की व्यवस्था नहीं है।
सबसे दुखद बात यह है कि इन लोगों की दखल के कारण अच्छे डॉक्टर टिक नहीं पाते। वरिष्ठ चिकित्सक जहां टाइप-2 क्वार्टर या हॉस्टल में परिवार सहित रहने को मजबूर हैं, वहीं एक साधारण लिपिक टाइप-4 सरकारी आवास में आराम फरमा रहा है।
यह सिर्फ असमानता नहीं, बल्कि संस्थान की आत्मा पर चोट है।
धामी सरकार के लिए चेतावनी की घड़ी
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने बार-बार “जवाबदेह शासन” और “जिम्मेदार प्रशासन” की बात की है। लेकिन अगर राज्य के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान में ही जवाबदेही नहीं है, तो यह शासन के लिए गंभीर चुनौती है।
यह मामला केवल सुशीला तिवारी अस्पताल का नहीं है — यह उस मानसिकता का प्रतीक है, जहाँ सरकारी संस्थान ट्रस्ट की तरह निजी कब्जे में चलाए जाते हैं। यह जनता के स्वास्थ्य, शासन की पारदर्शिता और उत्तराखंड की चिकित्सा शिक्षा — तीनों के साथ धोखा है।
जनहित में ठोस कदम जरूरी
अब वक्त आ गया है कि राज्य सरकार इस संस्थान में कार्यरत सभी संवर्गों की उच्च स्तरीय जांच कराए।
- जिन पदों का सृजन नहीं हुआ, उन्हें समाप्त किया जाए।
- फर्जी योग्यता या फर्जी डिग्री वाले कर्मचारियों को तत्काल सेवानिवृत्त किया जाए।
- हर कर्मचारी की भूमिका और कार्यक्षमता की नवीन समीक्षा की जाए।
- चिकित्सकों, प्रोफेसरों और प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों में गैर-तकनीकी कर्मचारियों का हस्तक्षेप बंद किया जाए।
- सबसे महत्वपूर्ण — जनहित में एसआईटी या विजिलेंस जांच गठित की जाए, ताकि जनता के टैक्स से चल रहे इस संस्थान में पारदर्शिता और जवाबदेही की बहाली हो।
अस्पताल नहीं, आश्रयगृह बना दिया गया है”
डॉ. सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय अब जनसेवा का नहीं, बल्कि निजी स्वार्थों का ठिकाना बन चुका है। यहाँ के कर्मचारियों का बड़ा तबका न जनता को जवाबदेह है, न शासन को।
जब तक राज्य सरकार साहसपूर्वक इस “ट्रस्टनुमा कार्यप्रणाली” की जड़ों को नहीं काटेगी, तब तक गरीब मरीजों को सही उपचार मिलना असंभव रहेगा।
आज जनता को उत्तर चाहिए — आखिर राजकीय मेडिकल कॉलेज हल्द्वानी किसके लिए चल रहा है?
मरीजों के लिए, या उन कर्मचारियों के लिए जिन्होंने सरकारी व्यवस्था को अपनी निजी कंपनी बना लिया है?
अगर मुख्यमंत्री धामी वास्तव में परिवर्तन और जवाबदेही के प्रतीक हैं, तो यह उनका अगला बड़ा जनहितकारी कदम होना चाहिए —
“डॉ. सुशीला तिवारी अस्पताल में पारदर्शिता और योग्यता की पुनर्स्थापना।”


