संपादकीय:यूकेएसएसएससी परीक्षा स्थगन : बेरोजगार युवकों की निराशा और ‘बेरोजगार संघ’ की राजनीति— अवतार सिंह बिष्ट

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अपने पैरों की जंजीरें खुद खोलो, वरना कोई और तुम्हारे सपनों की डोर अपने हाथों में थाम लेगा।यूकेएसएसएससी परीक्षा स्थगन : राजनीति का फैसला या पारदर्शिता का बहाना?

उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UKSSSC) स्नातक परीक्षा 2025 नकल प्रकरण की जांच को लेकर बड़ा कदम उठाया गया है।

ऊधमसिंहनगर में होगी नकलकांड पर जनसुनवाई, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति यू.सी. ध्यानी करेंगे जांच

रुद्रपुर। स्नातक प्रतियोगिता परीक्षा-2025 में नकल के आरोपों की जांच के लिए गठित एकल सदस्यीय जांच आयोग की जनसुनवाई 4 अक्टूबर को रुद्रपुर में आयोजित होगी। यह जनसुनवाई प्रातः 11:30 बजे से 12:30 बजे तक एपीजे अब्दुल कलाम सभागार, कलेक्ट्रेट परिसर में होगी।

इस संबंध में अपर जिलाधिकारी (वि./रा.) कौस्तुभ मिश्र ने आदेश जारी करते हुए जिला सूचना अधिकारी को व्यापक प्रचार-प्रसार कराने के निर्देश दिए हैं ताकि अधिक से अधिक हितधारक अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें।

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एवं आयोग अध्यक्ष श्री यू.सी. ध्यानी इस जनसुनवाई में सीधे तौर पर परीक्षार्थियों और आमजन से पक्ष सुनेंगे। इसके लिए पुलिस प्रशासन को सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद रखने के निर्देश दिए गए हैं। वहीं मुख्य शिक्षा अधिकारी और अन्य संबंधित अधिकारियों को भी उपस्थिति सुनिश्चित करने को कहा गया है।

ज्ञात हो कि UKSSSC की इस परीक्षा में नकल और अनियमितताओं के आरोप लगे थे, जिसकी जांच के लिए राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में आयोग गठित किया है।

उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा 5 अक्टूबर की प्रस्तावित परीक्षा अचानक स्थगित कर दी गई। वजह बताई गई “अधूरी तैयारियां और अभ्यर्थियों की मांग”। मगर असली कारण कहीं गहरे राजनीतिक समीकरणों में छिपा है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

धामी सरकार हाल ही में पेपर लीक प्रकरण पर विपक्ष और बेरोजगार संघ के दबाव में आकर सीबीआई जांच की घोषणा कर चुकी है। अब स्थिति यह है कि जब तक जांच पूरी नहीं होगी, हर परीक्षा संदेह के घेरे में रहेगी। सरकार चाहती है कि कोई नया विवाद न खड़ा हो, क्योंकि 2027 के चुनाव निकट हैं और बेरोजगारी पहले ही बड़ा मुद्दा बन चुकी है। यही वजह है कि आयोग के दावे और तैयारी के बावजूद परीक्षा टालने का निर्णय लिया गया।

असल में यह कदम युवाओं की सुविधा से ज्यादा राजनीतिक जोखिम को ध्यान में रखकर उठाया गया है। सरकार अपने ही बनाए माहौल की शिकार हो रही है—एक ओर पारदर्शिता दिखाने की मजबूरी, दूसरी ओर विपक्ष को हथियार न देने की चिंता। नतीजा यह कि परीक्षाएं टल रही हैं और बेरोजगार युवा फिर से निराशा के घेरे में हैं।

युवाओं को समझना होगा कि परीक्षा स्थगन सिर्फ प्रशासनिक कारण नहीं, बल्कि राजनीति का खेल है।

उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (यूकेएसएसएससी) ने 5 अक्टूबर को प्रस्तावित परीक्षा को अचानक स्थगित कर दिया। यह वही परीक्षा थी, जिसकी पारदर्शिता और तैयारी को लेकर आयोग ने एक दिन पहले तक बड़े दावे किए थे। स्थगन की घोषणा ने लाखों अभ्यर्थियों को निराशा में धकेल दिया।
लेकिन इस निर्णय के पीछे की कहानी केवल प्रशासनिक नाकामी या अधूरी तैयारी तक सीमित नहीं है। यह उस राजनीतिक नाटक का हिस्सा भी है, जो पिछले कई वर्षों से उत्तराखंड की भर्ती परीक्षाओं के इर्द-गिर्द खेला जा रहा है।

बेरोजगार युवाओं की हताशा?
परीक्षा स्थगन की खबर से सबसे अधिक प्रभावित वही वर्ग हुआ है, जो पहले से ही सबसे असुरक्षित और बेचैन है – बेरोजगार युवा।

तैयारी में जुटे छात्रों की दिनचर्या एक झटके में बिखर गई।
कई युवाओं ने कहा कि उन्होंने घर से दूर किराए पर रहकर महीनों तक पढ़ाई की, लेकिन अब सब व्यर्थ हो गया।

कुछ तो यह भी कह रहे हैं कि सरकार और आयोग उन्हें “परीक्षा की जगह राजनीति का मोहरा” बना रहे हैं।
यह गुस्सा उचित भी है। एक बेरोजगार युवक की सबसे बड़ी पूंजी उसका समय और उसकी मेहनत होती है। और जब बार-बार परीक्षाएं स्थगित होती हैं, पेपर लीक होते हैं और जांचें खिंचती चली जाती हैं, तो उनका आत्मविश्वास ही नहीं, बल्कि भविष्य भी संकट में पड़ जाता है।
आयोग की दलील और असलियत?
आयोग ने परीक्षा स्थगन का कारण “अधूरी तैयारियां और अभ्यर्थियों की मांग” बताया।
पर सवाल यह है कि—
तैयारी अधूरी थी तो फिर पहले पारदर्शिता और व्यवस्थित परीक्षा का दावा क्यों किया गया?

अगर वास्तव में छात्रों ने ही परीक्षा टालने की मांग की थी, तो वे छात्र कौन थे और उनकी संख्या कितनी थी?
सच्चाई यही है कि आयोग और सरकार, दोनों ही बेरोजगार युवाओं का भरोसा जीतने में नाकाम साबित हो रहे हैं।
पेपर लीक और सीबीआई जांच का ‘जुमला’
उत्तराखंड की भर्ती परीक्षाओं का इतिहास पिछले कुछ वर्षों में पेपर लीक, नकल माफिया और न्यायिक हस्तक्षेप की कहानियों से भरा पड़ा है। पटवारी और वी.डी.ओ. परीक्षा के घोटाले ने पूरे राज्य को झकझोर दिया था।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने आंदोलनकारी छात्रों के बीच जाकर सीबीआई जांच कराने की घोषणा की। साथ ही नकल विरोधी कानून बनाकर कई लोगों को सलाखों के पीछे भेजा गया। यह कदम सराहनीय था।

लेकिन सच्चाई यह है कि सीबीआई जांच का नाम लेना एक लंबी प्रक्रिया को आमंत्रित करना है।

कोई भी सीबीआई जांच पाँच-सात साल तक खिंचती रहती है।

तब तक न तो दोषियों को सजा मिलती है, न ही नई परीक्षाएं समय पर हो पाती हैं।
और इस बीच हर सरकार यही कहती रहती है कि “मामला जांचाधीन है”।

यह स्थिति बेरोजगार युवाओं के लिए एक और अंधेरे कुएँ की तरह है।

बेरोजगार संघ’ का खेल?
इन परिस्थितियों में एक नया चेहरा उभरता है – बेरोजगार संघ।
पहली नज़र में यह संगठन बेरोजगार युवाओं की आवाज़ लगता है। लेकिन गहराई में देखने पर साफ होता है कि यह भी राजनीति की उपज है।
यह संघ हर बार ठीक उसी समय सक्रिय होता है, जब राज्य में कोई बड़ा परीक्षा विवाद खड़ा होता है।
मांगें तो बेरोजगार युवकों की लगती हैं, लेकिन बयानबाज़ी और आंदोलनों की दिशा अक्सर विपक्षी पार्टियों के हित में जाती है।
कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि इस संघ को कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों का संरक्षण प्राप्त है।

सवाल यह उठता है कि अगर बेरोजगार युवकों का संगठन सचमुच ईमानदार होता, तो उनका लक्ष्य परीक्षा प्रक्रिया को सुचारु बनाना और युवाओं के लिए ठोस नीति बनवाना होता, न कि हर मुद्दे को राजनीतिक हथियार में बदलना।
युवाओं के पैरों में बंधे ‘खुले ही कुहासे’
आज उत्तराखंड का बेरोजगार युवा दोहरी मार झेल रहा है –

आयोग की लापरवाह व्यवस्था और लंबी खिंचती जांचें।
स्वयंभू संगठनों द्वारा उनका राजनीतिक इस्तेमाल।

यह स्थिति वैसी ही है, जैसे किसी ने अपने ही पैरों में खुले कुहासे (खुला हुआ जंजीर) डाल ली हो।
युवा अपनी मेहनत और संघर्ष से आगे बढ़ना चाहते हैं।

लेकिन राजनीति उन्हें बार-बार उसी जगह खींच लाती है, जहाँ से वे चले थे।
हल्द्वानी बुद्ध पार्क का सच
इस समय हल्द्वानी बुद्ध पार्क आंदोलन का सबसे बड़ा अड्डा बना हुआ है। यहाँ रोज़ाना धरना, भाषण और नारेबाज़ी होती है।
लेकिन वहाँ जाकर यह समझना मुश्किल नहीं है कि असली मुद्दा रोजगार नहीं, बल्कि राजनीतिक माहौल बनाना है।
कई नेता यहाँ आकर फोटो खिंचवाते हैं और बेरोजगार युवाओं के गुस्से को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश करते हैं।
मंच से ज्यादा समय सरकार की आलोचना में जाता है, रोजगार समाधान की ठोस रणनीति में नहीं।

बेरोजगार युवकों को समझना होगा कि यह ‘संघर्ष’ कहीं उनका भविष्य और लंबा न लटका दे।

राजनीति बनाम हकीकत?
उत्तराखंड का युवा जानता है कि 2027 के चुनाव नज़दीक हैं।
सरकार चाहती है कि किसी भी तरह विपक्ष के पास बेरोजगारी का मुद्दा हथियार न बने।

विपक्ष चाहता है कि बेरोजगारी का हर विवाद सरकार की नाकामी का सबूत बने।
दोनों ही स्थितियों में असली नुकसान केवल बेरोजगार युवकों का है।

अब युवाओं को करना होगा आत्ममंथन।
अब वक्त आ गया है कि बेरोजगार युवा खुद तय करें कि उनका लक्ष्य क्या है—
क्या वे वास्तविक रोजगार नीति और पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया चाहते हैं?

या फिर वे राजनीति की भीड़ का हिस्सा बनकर सिर्फ नारे लगाते रहेंगे?

अगर युवाओं ने अपनी दिशा खुद तय नहीं की, तो उनकी मेहनत, उनका संघर्ष और उनका समय केवल नेताओं की रोटियां सेंकने में ही खर्च होता रहेगा।

यूकेएसएसएससी परीक्षा स्थगन केवल एक परीक्षा का मामला नहीं है, यह पूरे राज्य की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था का आईना है।
आयोग अपनी तैयारी और पारदर्शिता को लेकर भरोसा खो चुका है।

सरकार ‘सीबीआई जांच’ और ‘नकल विरोधी कानून’ के सहारे युवाओं को आश्वासन देती है।

बेरोजगार संघ जैसे संगठन युवाओं की हताशा को राजनीति का हथियार बना रहे हैं।
ऐसे में सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद युवाओं की है। उन्हें समझना होगा कि उनकी लड़ाई रोजगार और भविष्य की है, न कि नेताओं की सत्ता और कुर्सी की।
युवाओं को अब एक ही संदेश आत्मसात करना होगा—
“अपने पैरों की जंजीरें खुद खोलो, वरना कोई और तुम्हारे सपनों की डोर अपने हाथों में थाम लेगा।”


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