उत्तराखंड, जिसे आमतौर पर शीतल जलवायु और हिमालयी ठंडक के लिए जाना जाता है, इस समय भीषण गर्मी की चपेट में है। मैदानी इलाकों में पारा 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने को तैयार है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र भी तपिश से अछूते नहीं हैं। हल्द्वानी जैसे शहरों में अधिकतम तापमान 38.4 डिग्री और न्यूनतम 24.3 डिग्री तक दर्ज किया गया। बीते तीन दिनों में पांच डिग्री तक तापमान में वृद्धि इस ओर इशारा करती है कि उत्तराखंड अब पहाड़ों की ठंडी फिजाओं से अधिक, बदलते जलवायु के तीखे थपेड़ों का शिकार बनता जा रहा है।
मौसम विज्ञान केंद्र की मानें तो 11 से 14 जून के बीच प्रदेश में प्री-मानसून की दस्तक संभावित है और इससे मौसम में परिवर्तन की उम्मीद की जा रही है। किंतु यह सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या केवल मानसून का इंतजार ही भीषण गर्मी से निपटने का एकमात्र रास्ता रह गया है? या फिर हमें अब गंभीर जलवायु बदलावों को एक स्थायी खतरे के रूप में स्वीकार कर, दीर्घकालिक रणनीतियों पर विचार करना होगा?


❖ गर्मी का बढ़ता कहर: स्वास्थ्य और जीवनशैली पर संकट
उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों, विशेष रूप से उधमसिंह नगर, हरिद्वार और नैनीताल जिले के निचले हिस्सों में गर्म हवाएं लोगों की दिनचर्या को अस्त-व्यस्त कर रही हैं। खेतों में काम कर रहे किसान हों या सड़कों पर दिनभर मेहनत कर रहे मजदूर—हर कोई इस जलते मौसम से बेहाल है। हीट स्ट्रोक, डिहाइड्रेशन और त्वचा संबंधी समस्याएं आम होती जा रही हैं। न तो पर्याप्त पेयजल व्यवस्था है, न ही सरकारी स्तर पर ठोस हेल्थ एडवाइजरी। ऐसे में गरीब और निम्न वर्ग के लोग सबसे अधिक प्रभावित हैं।
❖ जलवायु परिवर्तन की अनदेखी कीमत
यह गर्मी कोई सामान्य मौसमी उतार-चढ़ाव नहीं है, बल्कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय प्रभाव है। उत्तराखंड, जो एक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पर टिका हुआ है, अब जलवायु असंतुलन की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बनता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में औसत तापमान में लगातार वृद्धि देखी गई है। भू-स्खलन, अचानक बाढ़, और अब भीषण गर्मी—ये सब संकेत हैं कि उत्तराखंड का पर्यावरणीय संतुलन गंभीर खतरे में है।
❖ मानसून से राहत की आस, मगर तैयारी शून्य
मौसम विभाग ने साफ कहा है कि 11 जून से प्रदेश में बारिश की संभावना है। यह खबर निश्चित ही राहत देने वाली है, लेकिन सवाल उठता है—क्या हम इस संभावित वर्षा के लिए तैयार हैं?
जलभराव, सड़क धंसाव, नालों की सफाई न होना, और नदी किनारे बसी बस्तियों की सुरक्षा को लेकर अभी तक कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आती। हर साल की तरह इस बार भी मानसून स्वागत नहीं, बल्कि डर और अव्यवस्था का कारण बन सकता है।
❖ नीति-निर्धारकों के लिए चेतावनी
इस स्थिति को सिर्फ मौसम के उतार-चढ़ाव के रूप में देखना भारी भूल होगी। यह राज्य सरकार, पर्यावरण मंत्रालय और स्थानीय प्रशासन के लिए स्पष्ट संकेत है कि जलवायु के मुद्दों पर सिर्फ भाषण नहीं, बल्कि ठोस और टिकाऊ कदम उठाने का समय है।
– पेयजल स्रोतों का संरक्षण,
– हरित आवरण बढ़ाना,
– शहरों की प्लानिंग में पर्यावरण के घटकों को शामिल करना,
– और स्कूलों, अस्पतालों में समुचित शीतलन व्यवस्था लागू करना—ये सब तत्काल आवश्यक हैं।
प्री-मानसून भले ही कुछ राहत लेकर आए, लेकिन उत्तराखंड के लिए यह एक और चेतावनी है कि हिमालय की गोद में बसे इस राज्य को अब अपने पर्यावरणीय अस्तित्व की रक्षा के लिए कमर कसनी ही होगी।
उत्तराखंड की वर्तमान गर्मी केवल मौसम का मिजाज नहीं, बल्कि भविष्य की गंभीर चेतावनी है। यदि अब भी हम नहीं जागे, तो “देवभूमि” जल्द ही “दग्धभूमि” बनने की राह पर चल पड़ेगी। सरकार से लेकर समाज तक, सबको पर्यावरणीय चेतना के साथ आगे बढ़ना होगा—वरना मानसून की प्रतीक्षा भी किसी दिन व्यर्थ हो जाएगी।

